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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [305]
भावना
आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने अभिधान राजेन्द्र कोश में 'भावना' शब्द का वर्णन करते हुए भावना के वासना, अध्यवसाय, सम्यक्क्रियाभ्यास, बारंबार चिंतन, अविच्छिन्न संस्कारजनित पुनः-पुनः तदनुष्ठानरुपता, आध्यात्मिक वर्तन, आदि अनेक अर्थो का वर्णन करते हुए 'भावना' शब्द का सटीक अर्थ बताते हुए कहा है'
"आत्मज्ञान से उत्पन्न ज्ञान हेतु और दृष्ट तथा अनुभूत श्रुतज्ञान के अर्थों के विषय में स्मृति, प्रत्यभिज्ञा को बढानेवाला सद्भाव 'भावना' है।
द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका में अशुभ अभ्यास से निवृत्ति और शुभ अभ्यास में बुद्धिसंगत वृद्धिरुप भावों का फल 'भावना' है।
प्रवचनसारोद्धार, ओघनियुक्ति, धर्मसंग्रहसटीक, आवश्यकत बृहद्वृत्ति, सूत्रकृतांग एवं आचारांग के अनुसार मुमुक्षु के द्वारा जो संसार की अनित्यतादि का अभ्यास किया जाय उसे भावना कहते हैं। भावना को अनुप्रेक्षा कहते हैं।
अणुप्पेहा (अनुप्रेक्षा) :
____ अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार 'अणुप्पेहा' का संस्कृत शब्द अनुप्रेक्षा है जो कि अनुप्रेक्षण अर्थ में प्रयुक्त है। तत्त्वार्थ भाष्य में स्वाध्याय के पाँच प्रकार कहे हैं - वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा।
अभिधान राजेन्द्र कोश में अनुप्रेक्षा शब्द का विवेचन करते हुए आचार्य विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजीने लिखा है(1) किसी एक विषय में मन को चिन्तन में जोडना (2) अर्थ का चिन्तन करना (3) ग्रन्थों के अर्थ का चिन्तन करना (4) सूत्रों का चिन्तन करना (5) जिनप्रवचन के अन्तर्गत गुरु वचन को सुनकर एकाग्रमन से
चिन्तन करना 'अनुप्रेक्षा' है। (6) धर्मध्यान के बाद पर्यालोचन करना 'अनुप्रेक्षा' है। (7) अर्हन्तों के गुणों का बार-बार स्मरण करने के लिए 'अनुप्रेक्षा'
करनी चाहिए। (8) तत्त्वों के अर्थो का चिन्तन करना 'अनुप्रेक्षा' है। भावना के भेद :(1) द्रव्य भावना :
कुसुमादि द्रव्यों में तथा तिलादि में जो सुगंध-दुर्गंधादि वासना तथा शीत-उष्णादि के भाव 'द्रव्य भावना' है। (2) भाव भावना :- .
यह दो प्रकार की है - अप्रशस्त प्रशस्त । जीव हिंसादि सावध पापकार्यों को करने की भावना अप्रशस्त भावना है। दर्शनज्ञान-चारित्र-तप-वैराग्यादि में जो भावना होती है वह प्रशस्त भावना है। स्थूल रुप से प्रशस्त भावना के पाँच प्रकार बताये गये हैं - 1. दर्शन भावना 2. ज्ञान भावना 3. चारित्र भावना4. तप भावना । 5. वैराग्य भावना। दर्शन भावना - तीर्थंकर, गणधर, द्वादशांगी, केवलज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, पूर्वधर, श्रुतधर, आचार्यादि, युगप्रधान, अतिशययुक्त, ऋद्धिधर, (विद्याधर, चारणमुनि आदि), लब्धिधर आदि विशिष्ट गुणनिधि पूज्य पुरुषों के सम्मुख, तथा तीर्थंकर की कल्याणक भूमि और शाश्वताशाश्वत तीर्थ एवं अतिशयवान् धर्म स्थानों में जाकर यथाशक्य वंदन, पूजन, गुणोत्कीर्तन, करना दर्शन भावना
है। इससे सम्यकत्व की शुद्धि होती है। इसी प्रकार शासन प्रभावक आचार्य, वादी, निमित्तज्ञानी, ज्योतिषि, प्रवचन कुशल, तपस्वी, आदि गुणमाहात्म्यपूर्वक आचार्यादि के गुणोत्कीर्तन, पूर्वमहर्षियों के नामोत्कीर्तन तथा महापुरुषों की दिव्य महिमादि का वर्णन करना तथा जिनपूजन करना 'दर्शनभावना' हैं।' ज्ञान भावना - जीवाजीवादि नव तत्त्वो/पदार्थो को जिन प्रवचन के द्वारा यथावद्रुप से जानना, सम्यग्दर्शन से युक्त होकर कार्मण वर्गणाओं को (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, वेदनीय, आयुः, नाम, गोत्र, अंतराय, इन आठ कर्म बंधनों को) मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग - इन पाँच बंध हेतुओं को तथा कर्मबंध के फलस्वरुप चतुर्गति संसार भ्रमण एवं साता-असाता का अनुभव को समझना
और इस संसार के बंध एवं इससे मोक्ष (मुक्ति) की बातें जिनेश्वर परमात्माने पूर्ण स्पष्टतापूर्वक बताई हैं और अन्य शाक्यादि के प्रवचन में इस कर्मबंध-मोक्षादि की बातें नहीं होती है। एसी भावना ज्ञान भावना है तथा अज्ञानी जो कर्म करोडों वर्ष तप करके क्षय करता है वह ज्ञानी श्वासोच्छवास में क्षय करता है। एसी भावना से भावित होकर ज्ञान का अभ्यास करना । ज्ञान का अभ्यास करने से मेरा ज्ञान विशिष्ट हो - एसी भावना रखना 'ज्ञान भावना' है।
गुरुकुलवास में ज्ञान की प्राप्ति, कर्म, निर्जरा, स्वाध्याय आदि लाभ हैं- एसी भावनाओं से भावित होकर गुरुकुलवास का त्याग न करना 'ज्ञान भावना' हैं। चारित्र भावना -अहिंसा, सत्य, अचौर्य (अदत्तादान) नव वाड के पालन पूर्वक ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह - ये पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएँ, द्रव्यादि चारों निक्षेपयुक्त बारह प्रकार के तप के करने को भावना, अनित्यादि बारह भावना रुप वैराग्य भावना, गर्दादि प्रमादों के त्याग रुप अप्रमाद भावना, ज्ञान, दर्शन, चारित्रयुक्त शाश्वत आत्मा के एकत्व स्वरुप को एकाग्रतापूर्वक भावना को पालन करने की 1. अ.रा.पृ. 5/1506 2. सम्मतितर्क प्रकरण, 3 काण्ड 3. द्वात्रिशद् द्वात्रिंशिका, 18
अ.रा.पृ. 5/1506; प्रवचनसारोद्धार; ओ धनियुक्ति, धर्मसंग्रह,
आवश्यकबृहद्वृत्ति; सूत्रकृतांग; आचारांग 5. अ.रा.पृ. 1/389-390; तत्त्वार्थ सूत्र 9/20 पर भाष्य 6. अ.रा.पृ. 5/1506 7. वही, पृ.5/1506, 1507 8. अ.रा.पृ. 5/1507
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