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[306]... चतुर्थ परिच्छेद
भावना रखना एवं एसी पवित्र सुंदर, शुद्ध भावनाएँ जिन प्रवचन के अलावा अन्यत्र नहीं है- एसी भावना से मन को भावित करना 'चारित्र भावना' हैं।"
तप भावना अनशन, ऊनोदरी, वृत्ति संक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश, संलीनता - ये छ: प्रकार से बाह्य तप और प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग- ये छ: आभ्यन्तर तप - इस प्रकार यथाशक्ति बारह प्रकार से तपश्चरण करना, तप भावना है। 10 वैराग्य भावना - जीव को संसार से वैराग्य उत्पन्न करानेवाली अनित्याभावना आदि 12 भावनाएँ वैराग्य भावनओं के नाम से जानी जाती हैं। वे निम्नानुसार हैं। - (1) अनित्य
(2) अशरण
(3) संसार
(4) एकत्व
(5) अन्यत्व
(6) अशुचित्व
(7) आस्रव
(8) संवर
(9) निर्जरा
(10) लोकस्वभाव (11) बोधिदुर्लभ (12) धर्मकथकोर्हन् बारसाणुवेक्खा में आचार्य कुन्दकुन्दने इन भावनाओं का क्रम निम्नानुसार दर्शाया है 12
(1) अनित्य
(2) अशरण
(5) संसार
(4) अन्यत्व
(7) अशुचित्व (10) निर्जरा
1. अनित्यत्व भावना :
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन के क्लेश और महारंभ से पाप बाँधकर नारक पृथ्वियों (नरकवासों) में घोर अंधकार युक्त स्थानों में छेदन- भेदन, प्रदहनादि, अनेक प्रकार के दुःख भोग रहे हैं। जिसे कहने में ब्रह्मा भी समर्थ नहीं है। अतिमाया और दुःख के बंधनों से प्राप्त सिंह, बाघ, हाथी, मृग, बैल, बकरी आदि के रुप में तिर्यंच योनि में क्षुधा, तृषा, वध, बंधन, ताडन आदि अनेक प्रकार के दुःखी जीव सहता है उसकी अवर्णनीय वेदना को कहने में कौन समर्थ है !
(8) आस्रव
(11) धर्म
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(3) एकत्व (6) लोक
(9) संवर
(12) बोधिदुर्लभ
यह शरीर कदलीवृक्ष के गर्भ जैसा निःसार है; जैसे बिल्ली दूध पी रही है और उपर से कोई लाठी से मार रहा है वैसे विषय सुख में लोग आनंद मनाते हैं लेकिन लाठी की तरह मृत्यु / काल (यमराज) उसे देखते ही उठा ले जाता है। इस प्रकार विषय सुख का क्षणिक आनंद अंत में अति दारुण दुःखदायी है। आयुष्य जल के बुदबुदे (बुलबुले) और वायु से चलायमान ध्वजा के वस्त्र जैसा चंचल हैं, रुपलावण्य स्त्री के नेत्र जैसा चंचल है, यौवन हाथी के कान जैसा चलित है, सत्ता स्वप्नवत् है, सम्पत्ति चपल (अस्थिर) है, प्रेम, क्षणभंगुर है, सुख स्थिरतारहित है, प्राणप्रिय पुत्रादि भी संकट में सहायक नहीं , फिर भी मूढ जीव इन सर्व भावों को नित्य समझकर जीर्णशीर्ण कुटिया (शरीर) नष्ट होने पर रात-दिन रोता है। अतः तृष्णा के नाश के द्वारा निर्ममत्व ( निर्मोहीत्व) धारण करने के लिए शुद्ध बुद्धि (आत्मा) को हमेशा अनित्य भावना भावनीय है।13 2. अशरण भावना :
विचित्र शास्त्रविद् (वैज्ञानिक) मान्त्रिक, तान्त्रिक, ज्योतिषी, शस्त्रविद्, शूरवीर, सेठ - साहूकार, देव-देवेन्द्र, सैकडों सुभट एवं हजारों मदांध हाथियों से घिरे हुए चक्रवर्ती आदि को भी बलपूर्वक ग्रहण करके यम के चाकर यम के घर ले जाते हैं। सर्वश्रेष्ठ बल के स्वामी तीर्थंकर सहित सब लोग मृत्यु को नष्ट करने में या दूर करने में समर्थ नहीं है। एसा सोचकर बुद्धिमान पुरुष स्त्री-परिवार, मित्र, पुत्रादि के स्नेह की निवृत्ति के लिए 'अशरण भावना' का मनन करें। 14 3. संसार भावना :
सुमति बुद्धिहीन है, श्रीमान लक्ष्मीरहित है, सुखी सुखरहित है, सुतनु बीमार है, स्वामी - नौकर है, प्रिय प्रगट अप्रिय है, नृपति राजा नहीं है, स्वर्गी तिर्यंच है, मनुष्य नारक (नारकीय वेदना युक्त) है, इस प्रकार संसार में लोग अनेक तरह से नृत्य करते, अनेक प्रकार
मनुष्य गति में अनार्यदेशोत्पन्न मनुष्य सेव्यासेव्य, भक्ष्याभक्ष्य, गम्यागम्य के विवेक रहित होकर विषयाधीन बनकर निरन्तर महारम्भादि के द्वारा दुःसह दुःख सहते हैं। और आर्यदेशोत्पन्न मनुष्य भी अज्ञान, दरिद्रता, व्यसन, दौर्भाग्य, रोगादि के द्वारा अनेक प्रकार के दुःख सहन करते हैं। एक तरुण पुण्यवान पुरुष के शरीर में प्रत्येक रोम में सुई के प्रवेश पर जितना दुःख होता है उससे आठ गुना दुःख स्त्री की कुक्षी में जीव को होता है। और जन्म समय में तो इससे भी अनंतगुणा दुःख होता है। वृद्धावस्था में शरीर की अस्वस्थता इन्द्रियों की असमर्थता, परिवारादि द्वारा अवज्ञाजनित दुःख है, देवलोक में सम्यग्दर्शनादि पालन से प्राप्त देव भव में भी जीव शोक, विषाद, मत्सर भय, ईर्ष्या, काम, क्षुधादिजनित दुःखों से पीडित होने से अपने दीर्घायुष्य को भी क्लेशपूर्वक पूर्ण करता है।
अतः बुद्धिमान मोक्षफलदायी भववैराग्यरुपी बीज को पुष्पित करनेवाली अमृतवृष्टि समान संसार भावना से आत्मा को भावित करें। 15 4. एकत्व भावना :
जीव अकेला जन्म लेता है, अकेला ही दुःख भोगता है, अकेला ही कर्मों को बांधता है और उसके फल भी वही अकेला ही भोगता है। इस जीव के द्वारा बहुत कष्ट उठाकर जो धन स्वयं उपार्जित किया जाता है उसका तो स्त्री, मित्र, पुत्र, परिवारादि मिलकर उपभोग करते हैं लेकिन उस धनोपार्जन में जो कर्मबंध हुए उससे नरकादि चारों गति में तज्जनित दुःखों को तो जीव अकेला ही सहन करता है, जिसके लिए जीव दशों दिशाओं में भटकता है, दीनता को धारण करता है, धर्म से भ्रष्ट होता है, आत्महित से ठगा जाता हैं (दूर रहता है), न्याय (नीति) मार्ग से दूर रहता है, वह स्वदेह और स्वजन इस आत्मा के साथ परभव में एक कदम भी साथ में नहीं जाते हैं, तब वह तुम्हारी सहायता कैसे करेगा ?
हे आत्मन् ! स्वार्थैकनिष्ठ स्वजन-स्वदेहादि को छोडकर कल्याण के लिए सर्वत्र सहायरूप एक मात्र धर्म को धारण कर 116
9.
अ. रा. पृ. 5/1507
10. अ.रा. पृ. 5/1507, तत्त्वार्थसूत्र 9 / 19, 20, 6/23
11.
अ. रा. पृ. 5/1507; आचारांग 2/3; शान्तसुधारसभावना, श्लोक 7, 8; तत्त्वार्थसूत्र 9/7
12.
13.
बारसाणुवेक्खा, श्लोक 2
अ. रा. पृ. 1/331; 5 / 1508; शान्तसुधारसभावना, प्रथम भावनाष्टक; बारसाणुवेक्खा 3 से 7
14. अ.रा. पृ. 1/844; 5/1508; शान्तसुधारसभावना, द्वितीय भावनाष्टक; बारसाणुवेक्खा 8 से 13
15. अ. रा. पृ. 5/1508; 7 / 254; शान्तसुधारसभावन, तृतीय भावनाष्टक; बारसाणुवेखा 24 से 37
16. अ.रा. पृ. 1/33; 5 / 1508; शान्तसुधारसभावन, चतुर्थ भावनाष्टक; बारसाणुवेक्खा 14 से 20
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