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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
5. अन्यत्व :
जीव और काया (आत्मा और शरीर भिन्न भिन्न हैं । यह आत्मा (परलोक गमन के समय) इस शरीर को छोड़कर परलोक (परभव) में जाती है अतः उसका क्या करना ? इसलिए हे जीव ! कोई इस शरीर को चंदन से विलेपन करे या दण्ड से हनन करे, धनादि से पोषण करे या उसका हरण करे, उसमें समभाव रख | 17
जो बुद्धिनिधान अन्यत्व भावना को धारण करता है, उसका सर्वस्व नष्ट होने पर भी उसे शोक का एक अंश भी उत्पन्न नहीं होता हैं।
6. अशुचित्व भावना :
जैसे लवण समूह में जो भी पदार्थ गिरता है वह लवणवत् (खारा) होता है। वैसे इस अशुचि से भरी हुई काया में जो भी गिरता है वह भी मलमलिन होता है।
गर्भावस्था में यह शरीर शुक्र- शोणित के मेल से उत्पन्न होता है। जरायु वेष्टित हों माता के द्वारा किये गये आहार से बढ है । सप्तधातु से निर्मित होता है । स्वादिष्ट खाद्य-पेय पदार्थो का मलरुप में परिवर्तित करता है। जल के सैकड़ों घड़ों से धोने पर या चंदन- कपूर- कस्तूरी आदि से सुवासित करने पर भी क्षण में दुर्गन्धित हो जाता है।
इस प्रकार (1) बीज अशुचि (2) अपष्टम्भ अशुचि (3) स्वयं अशुद्धि का भाजन (4) उत्पत्ति स्थान की अशुचि (5) अशुचि पदार्थ का नल (6) अशक्य प्रतीकार और (7) अशुचिकारक होने से शरीर की अशुचिता का विचार कर परमार्थ से सुमतिवान जीवों को इस शरीर में कभी भी मोह (ममता) नहीं करना चाहिए। 7. आस्रव भावना 19
:
मन, वचन, काया के योग से जीवों को जो शुभाशुभ कर्मों का आगमन होता है उसे तीर्थंकरों ने आस्रव कहा है। अव्रत, इन्द्रिय, कषाय और क्रिया ये चार आस्रव हैं और मन, वचन, काया उसका कारण हैं।
सर्वज्ञ भगवान, गुरु, सिद्धान्त और संघ के गुणवर्णन (स्तुति, प्रशंसा, भक्ति) से, हितकारी सत्य भावना से, देव पूजा, गुरु सेवा, साधु-वैयावृत्य (सेवा) आदि से शुभ कर्म उपार्जन होता है, और आर्त्त ध्यान, रौद्र ध्यान, मिथ्यात्व कषाय विषयाभिलाषा, देव, गुरु संघ और सिद्धान्त की निंदा, उन्मार्ग प्रेरकवचन, मांसाहार, मदिरापान, जीवहिंसा, चोरी, परस्त्रीगमन आदि अशुभ कार्यो से 82 प्रकार से अशुभ कर्मो का उदय होता है। जिससे जीव चतुर्गति भ्रमण करता है।
ऐसे आस्रव का स्वरुप ज्ञात कर जो आत्मा आस्रव भावना से मन को भावित करता है वह अनर्थ की परम्परा को उत्पन्न करनेवाले दुष्ट आस्रवों का त्यागकर समस्त दुःखों को नष्ट कर समस्त सुखों की श्रेणीरुप निर्वाण (मोक्ष) रुपी जहाज में नित्य आनंद का पोषण करता हैं।
8. संवर भावना 20 :
आस्रवों को रोकना संवर कहा जाता है। वह सर्वथा और देशत: (आंशिक) -दो प्रकार से है। सर्वथा 'संवर' अयोगि केवली भगवान को होता है। देश 'संवर' एक प्रकार से ( मिथ्यात्व का), दो प्रकार से (मिथ्यात्व और अविरति का), और बहुत प्रकार से (मिध्यात्व,
चतुर्थ परिच्छेद... [307]
अविरति, चारों कषायों के भेद-प्रभेद, मन वचन के योगों का) है और ये प्रत्येक भेद भी द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से हैं।
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आत्मा (आत्मप्रदेशों) पर संसक्त कर्मपुद्गलों का सर्व से या देश (आंशिक रूप से नाश द्रव्य संवर है। संसार के (कर्मबंधनों के हेतुभूत क्रिया का त्याग भाव संवर है। 5 समिति, 3 गुप्ति, 22 परिषहजय, 10 यति धर्म, 12 अनुप्रेक्षा (भावना) और पाँच चारित्र -ये 57 संवर के हेतु हैं। इसका फल कर्मनिर्जरा और आत्मिक सुख है- एसा चिन्तन करना संवर भावना है। अतः मनीषियों के द्वारा आस्रवों के निरोध के लिए उसके प्रतिपक्षी उपायों का प्रयोग करना चाहिए। जैसे सम्यग्दर्शन और धर्मध्यान के द्वारा मिथ्यात्व और आर्तरौद्र ध्यान को, क्षमा से क्रोध को, नम्रता (मृदुता ) से मान को, सरलता (ऋजुता) से माया को, संतोष से लोभ को, ज्ञान से राग द्वेष और पाँचों इन्द्रियों के विषयों से दूर हटना चाहिए।
संवरभावनायुक्त जीव सौभाग्य को प्राप्त करता है और स्वर्ग तथा मोक्ष के सुखों को अवश्य प्राप्त करता हैं। 9. निर्जरा भावना - "
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-:
संसार (संसार भ्रमण के हेतुभुत कर्म परम्परा को जो नष्ट करती है, वह निर्जरा सकाम और अकाम दो प्रकार से हैं। साधुओं को सकाम निर्जरा होती है। शेष सभी प्राणियों को अकाम निर्जरा होती है। जैसे आम अपना समय होने पर ही पकते हैं और उपाय से भी पकाये जाते हैं। उसी प्रकार सम्यग्ज्ञान रहित एकेन्द्रियादि प्राणियों के द्वारा शीत, उष्णता, वृष्टि, दहन, छेदन - भेदनादि के द्वारा कष्ट सहन करने से जो कर्म निर्जरा होती है वह अकाम निर्जरा है। और मेरे कर्मो का ( जल्दी से) क्षय नहीं हो रहा है- एसा सोचकर सज्जनों (साधुओं) द्वारा तपस्यादि के द्वारा जो कर्मनिर्जरा की जाती है) वह सकाम निर्जरा है।
अनशनादि बारह प्रकार के तप आदि के द्वारा निर्जरा वृद्धि को प्राप्त होती है। अतः संसार और कर्म ममत्व को नष्ट करने के लिए आत्मा को निर्जरा भावना से भावित करना चाहिए। 10. लोक स्वभाव भावना 22 :
सिर के बालों की चोटी रहित कोई पुरुष कमर पर हाथ रखकर चौड़ाकर खड़ा हो वैसा लोक का संस्थान (आकार, स्वरुप) है। इसमें नीचे के सात रज्जु प्रमाणवाला अधोलोक, ऊपर के सात रज्जु प्रमाण उर्ध्वलोक और मेरु पर्वत की समभूतला (सपाट पृथ्वी जहाँ आठ रुचक प्रदेश स्थित हैं) से 900 योजन ऊपर और 900 योजन नीचे मध्य लोक है। अधोलोक में सात नारकी परमाधामी और भवनपति देवों का, मध्यलोक में व्यंतर, वाणव्यंतर, ज्योतिष
17. अ.रा. पृ. 5/1508, 1509; शान्तसुधारसभावन, पंचम भावनाष्टक; बारसाणुवेक्खा 21 से 23
18. अ. रा. पृ. 5/850; 5/1509; शान्तसुधारसभावन, षष्ठ भावनाष्टक; बारसाणुवेक्खा 43 से 46
19. अ.रा. पृ. 2/503 5/1509; शान्तसुधारसभावन, सप्तम भावनाष्टक; बारसाणुवेक्खा 47 से 59
20. अ. रा.पू. 5/850; 7/237; संवर शब्द 238 'संवर भावना'; शान्तसुधारसभावन, अष्टम भावनाष्टक; बारसाणुवेक्खा 61 से 64 तत्त्वार्थसूत्र
21. अ.रा. पृ. 4/2509 5/1509; शान्तसुधारसभावन, नवम भावनाष्टक; बाररसाणुवेक्खा 66 67
2.अ. रा. पृ. 5/1509, 1510; शान्तसुधारसभावन, अष्टक - 11; बाररसाणुवेक्खा 38 से 42
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