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[104]... तृतीय परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन लोयाचार - लोकाचार (पु.) 6/755
प्राणियों के द्वारा किये गये कषाय हेतुक कर्मोपादान, संसार भ्रमण के हेतुभूत अनुष्ठान को 'लोकाचार' कहते हैं। वण्ण - वर्ण (पुं.) 6/818
ब्राह्मणत्वादि चारों वर्ण, पीतादि वर्ण, अर्धदिग्व्यापि और सर्वदिग्वापी साधुवाद युक्तता लक्षण, श्रमणादि चतुर्विध संघ, वन्दन, संयम, मोक्ष, शरीर को अलंकृत करने का साधन, शरीर की छबि आदि के लिए 'वर्ण' शब्द का प्रयोग किया जाता हैं। वत्थु - वस्तु (न.) 6/871; वास्तु (न.) 6/880
द्रव्य, पदार्थ, हेय-ज्ञेय-उपादेय पदार्थ/गुण आदि, गुणी, आचार्यादि महापुरुषों के विषय में नमस्कार योग्यता विषयक वर्णन, अधिकारित्व, पूर्वान्तर्गत अध्ययनगत भागविशेष, पक्ष (न्याय में), भाव, आदि अर्थ में वत्थु शब्द का 'वस्तु' पर्याय प्रयुक्त हैं।
'वास्तु' अर्थ में मकान के प्रकार वर्णित हैं, जैसे - सेतु- भूमिगृह; केतु - प्रासाद, गृह आदि; खात-भूमिगृह; उच्छ्रित-एकदो मंजिला भवन/गृह आदि; खातोच्छ्नि - भूमिगृह सहित प्रासाद ।
यहाँ भूमि परीक्षा की विधि बताते हुए कहा गया है कि घर या भूमि के मध्य एक हाथ-लम्बा-चौडा-गहरा खड्डा करके उसी मिट्टी को पुनः भरने पर यदि मिट्टी आदि कम पड़े तो हीनभूमि, सम रहे तो बराबर और मिट्टी अधिक हो जाय (बच जाय) तो भूमि धन्य, लाभदायक और उत्तम जानना। व्यवसाय सभा - व्यवसाय सभा (स्त्री.) 6/901
व्यवसाय की हेतुभूत सभा और देवेन्द्र की शास्त्रवाचनपूर्वक तत्त्वनिश्चयकरण सभा 'ववसाय सभा' कहलाती हैं। ववहारि (ण) - व्यवहारिन् (त्रि.) 6/635
___ व्यापार, क्रय-विक्रय आदि के कर्ता को व्यवहारी (व्यापारी) कहते हैं। यहाँ द्रव्य और भाव व्यापारी के भेद-प्रभेद और लक्षण दर्शाये गये हैं। वाणपत्थ - वानप्रस्थ (पुं.)6/1070
ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और यति इन चार आश्रमों में तृतीय वानप्रस्थाश्रम में गृहस्थ का वन में जाकर निवास करना 'वानप्रस्थ' (आश्रम) हैं। यहाँ अनेक प्रकार के वानप्रस्थों का परिचय दिया गया हैं। वावरणसाला - व्यावरणशाला (स्त्री.) 6/1101
जहाँ स्वयंवर हेतु अग्निकुण्ड में अग्नि नित्य प्रज्वलित रहता है उसे 'व्यावरण शाला' कहते हैं। वित्ति - वृत्ति (स्त्री.) 6/1191
राजाज्ञापूर्वक की जानेवाली आजीविका, पन्द्रह प्रकार के कर्मादान, विविध अभिग्रह धारण करना, जीवन उपाय-जिससे नियुक्त पुरुष के पास 12 लाख स्वर्ण (मोहर) हो वह, आहार का 32 कवल परिमाण, अनुष्ठान, निवृत्ति, घ्राणेन्द्रिय (तांत्रिक परिभाषा में), सूत्र का विवरण, समुदाय, लक्षण, अवयवी का अवयव, और समवाय को 'वृत्ति' कहते हैं। विवाह - विवाह 56/1237
चारों वर्ण के विवाह योग्य कुलीन 12 वर्ष की कन्या और 16 वर्ष का पुरुष विवाह पूर्वक कुटुम्ब उत्पादन-परिपालनरुप व्यवहार करते हैं, उसे विवाह करते हैं या युक्तिपूर्वक वर निर्धारित करके अग्निदेवता आदि की साक्षीपूर्वक 'पाणिग्रहण करना' विवाह कहलाता है। विवाह के आठ प्रकार हैं - 1. ब्रह्म विवाह
अलंकृत कन्यादान 2. प्राज्यापत्य विवाह
विभवविनियोगपूर्वक कन्यादान 3. आर्ष विवाह
गाय के जोडे के दानपूर्वक का विवाह 4. देव विवाह
यज्ञ के लिए ऋत्विज को कन्यादान 5. गान्धर्व विवाह
माता-पिता-बन्धु आदि के द्वारा प्रामाणित न होने पर भी परस्पर अनुरागपूर्व का विवाह 6. आसुर विवाह
शर्तपूर्वक बन्धन होने से कन्यादान 7. राक्षस विवाह
कन्या की अनिच्छापूर्वक कन्याग्रहण 8. पैशाच विवाह
सोती हुई या प्रमादग्रस्त कन्या का ग्रहण यहाँ पर यह भी सूचित किया गया है कि वर-वधु की इच्छापूर्वक किया गया विवाह अधर्म्य होने पर भी 'धर्म्य हो जाता है।
शुद्धस्त्री की प्राप्ति विवाह का हेतु है। विवाह का फल सुजातपुत्र, संतति की प्राप्ति, स्वच्छंदचित्त की निवृत्ति, गृहकार्य की सुव्यवस्था, जाति की आचार विशुद्धि, देव-अतिथि-बन्धु आदि का सत्कार हैं। गृहकर्म विनियोग, परिमित अर्थसंयोग, अस्वतन्त्रता और सदाचार पालन 'कुलवधू' की रक्षा के उपाय हैं। वेस - वेश (पुं.) नेपथ्य 6/1463, वेश्य (पुं.) साधुवेश; वैश्य (पुं.) वणिक; वेष (पुं.) वस्त्राभरण, नेपथ्य, निर्मल वस्त्र धारण; वेष्य (पुं.) वेषोचित
ऋषभदेव द्वारा गृहस्थावस्था में उपदिष्ट अग्नि आदि की उत्पत्ति के द्वारा लोहा, चकमक (अयस्कार) के द्वारा शिल्प तथा व्यापार के द्वारा जीवन यापन करनेवाले, तृतीय वर्ण के लोगों को 'वैश्य' कहते हैं।
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