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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
तृतीय परिच्छेद... [105] वैश्य के लिए वेसिय-वैशिक (6/1465) शब्द भी प्रयुक्त हैं। शस्तवाह - सार्थवाह (पुं.) 7/1
सार्थ (व्यापारियों का समूह) के अधिपति को सार्थवाह कहते हैं। सार्थवाह के लिए सत्थवाह (7/336) और सत्थिग (वही) शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। संघ- सङ्घ (पुं.) 7/77
'संघ' शब्द का अर्थ गुणों के समूह, समुदाय, कुलसमुदाय, गण, साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रुप चतुर्विध संघ, गुणरत्नपात्र सत्वसमूह
संतिकम्मंत - शान्तिकान्त (न.) 7/145
जहाँ शान्ति कर्म किया जाता हैं उसे 'संतिकम्मंत' कहते हैं। संबाह - सम्बाध 7/205
तत्कालीन समाज में चारों वर्णो के लोगों के निवास स्थान, कोठार, धान्यादि रखने का सुरक्षित स्थान और अनेक प्रकार के लोगों से संकीर्ण स्थान को 'संबाह' कहते हैं। सज्जण - सज्जन (पुं.) 7/278
सदाचारी मनुष्य को सज्जन कहते हैं। यहाँ आचार्यश्रीने द्वात्रिंशद् द्वात्रिशिका की बत्तीसवीं द्वात्रिंशिका के अनुसार सज्जन के भेदोपभेद दर्शाते हुए उनके गुण, लक्षणों का वर्णन किया हैं। सत्थ (त्रि.) सार्थ (त्रि.) 7/335
___व्यापारादि के विषय में सामूहिक रुप से गमनागमन करनेवाले समूह को 'सार्थ' कहते हैं। सार्थ भण्डी, वह्निका, भारवाहक, औदरिका और भिक्षाचर - रुप पाँच प्रकार से हैं। सत्थविहान - सार्थविधान (नपुं.) 7/336
यहाँ पर गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य तथा द्रव्य - क्षेत्र-काल भाव से चार-चार प्रकार के सार्थ का परिचय दिया हैं। सक्कार - सत्कार (पुं.) 7/263
सम्मान के रुप में वस्त्राभरण, आहार-पानी, धनदान, गुणकीर्तन, स्तवन-वन्दन, अभ्युत्थान-आसनदान, वन्दन, अनुगमन, अत्यादर, विनय-वंदन आदि रु प सत्कार किया जाता हैं। सत्थिग - स्वस्तिक (पुं.) 7/337
स्वस्तिक भारतीय संस्कृति में और जैन परम्परा में मंगल का प्रतीक हैं। सदायार - सदाचार 7/337
सर्वोपकार, प्रियवचन, प्रसत्राकृति, स्नेह वर्षा आदि सज्जन के व्यवहार को सदाचार कहते हैं। सदाचार भारतीय संस्कृति का प्राण हैं, श्रावक का मुख्य गुण हैं। सभा - सभा (स्त्री.) 7/396; सहा - सभा (स्त्री.) 7/603
सभ्य लोगों के या बहुत लोगों के सामूहिक रुप से बैठने के स्थान को 'सभा' कहते हैं। वाचनालय, कथा-विनोद-के लिए ठहरने का स्थान, या आगन्तुकों को ठहरने का स्थान-को भी सभा (सभा-भवन) कहते हैं। सभावइ - सभापति (पुं.) 7/396
प्रज्ञा, आज्ञा, ऐश्वर्य, क्षमा, माध्यस्थ्य गुणों से युक्त सभानायक को 'सभापति' कहते हैं। सिक्खा - शिक्षा (स्त्री.) 7/810
अभ्यास, व्यापार, ग्रहण शिक्षा, आसेवन शिक्षा (साधु जीवन की आचरण शिक्षा), उद्यमपूर्वक ग्रहण करने योग्य बात को शिक्षा कहते हैं। यहाँ शिक्षा ग्रहण के विधि-निषेध का भी वर्णन हैं। सिट्ट - शिष्ट (पं.) 7/816
व्रतधारी, ज्ञानवृद्धि की सेवा करनेवाला, सज्जन-संमत, विशिष्ट व्यक्ति, क्षीणदोष (जिसके दोष नष्ट हो गए है ऐसा) सम्यग्दृष्टि मनुष्य "शिष्ट' कहलाता है। सिट्टाचार-शिष्टाचार (पुं.) 7/818
शिष्टों के द्वारा आचरण किया गया व्यवहार 'शिष्टाचार' कहलाता हैं।
तणकटेण व अग्गी, लवणजलो वा नइसहस्सेहिं । न इमो जीवो सक्को, तिप्पेउं कामभोगेहिं ॥
-अ.रा.पृ. 3/443
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