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[322]... चतुर्थ परिच्छेद
प्रायश्चित देंगे, लेकिन यह एक तरह से उत्कोच (रिश्वत) देने जैसी मनोवृत्ति हैं।
अणुमाणइत्ता :
अनुमान लगाना यह आलोचना का दूसरा दोष हैं। पहले लघु अपराध की आलोचना लेकर यह अंदाज लगा लेना कि गुरु कठोर प्रायश्चित देते हैं या मृदु, उसके बाद अन्य आलोचना करना । दिट्ठे (दुष्ट) :
जिस दोष या अपराध को आचार्य अथवा अन्य किसी ने देख लिया हो, उसी दोष की आलोचना करना, शेष अपराधों को उनके समक्ष प्रकट न करना ।
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन भी पूर्ण विचार किया गया हैं। इन विषयों पर विचार करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि आलोचनाग्राही (प्रायश्चिती) नीरोगी हैं या रोगी ? हृदय-पुष्ट है या दुबला-पतला ? गीतार्थ है या अगीतार्थ ? समर्थ है असमर्थ ? सरल है या मायावी ? परिणामी (परिपक्व है, अपरिणामी है या अतिपरिणामी) ? धैर्य - संहननादि युक्त है या उससे हीन ? आत्मतर (आत्मतप स्वयं तप करनेवाला) है या परतर (पर तप- वैयावृत्त्यादि करनेवाला) है या उभयतर (दोनों प्रकार के तप करने वाला) है ? कल्पस्थित है या कल्परहित है ? आचार्य है ? उपाध्याय है ? कृतकरण (आवश्यकादि करनेवाला) है ? गीतार्थ है ? स्थिर बुद्धि है ?
इसी प्रकार दोषी व्यक्ति के द्वारा आलोचित दोष का सेवन सावद्य क्रिया में उत्साहपूर्वक किया गया है या बिना उत्साह से ? प्रमाद से किया गया है या अप्रमाद से? दर्प (अभिमान, हास्यादि) से किया गया है या परिस्थितिवश ? सुकाल में किया गया है या दुष्काल में ? ग्राम-नगरादि में किया गया हैं या अरण्य में ?
इत्यादि प्रकार से प्रायश्चित ग्रहण करने वाले व्यक्ति के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावादि का पूर्ण विचार करके पात्रानुसार जीतकल्प में कहे हुए प्रायश्चित के अनुसार या उससे हीन या अधिक भी प्रायश्चित दिया जाता है। ये सभी प्रायश्चित प्रायः प्रमादाचरण के लिए दिये जाते हैं। प्रमादी मुनि यदि अभिमानी है, मायावी है, अकृतकरण है - तो उसे अधिक दण्ड मिलता है, यदि उससे विपरीत अप्रमादी, सरल, नम्र अकृतकरण है तो उसे न्यून प्रायश्चित तप प्रदान किया जाता हैं। 158
आलोचना का योग्य साक्षी :
बायर (स्थूल) :
केवल बडे-बडे अपराधों की आलोचना करना, लघु दोषों की नहीं। यह आलोचना का चौथा दोष हैं 1
सुमं (सूक्ष्म) :
मात्र छोटे दोषों की आलोचना करना जो अपने छोटे अपराधों की भी आलोचना करता है, वह बड़े दोषों को कैसे छिपा सकता हैं ? संघ एवं गुरुजनों के मन-मस्तिष्क में एसा विश्वास उत्पन्न करने के लिए मात्र सूक्ष्म दोषों की आलोचना करना ।
छन्न (प्रच्छन्न) -
लज्जालुता का प्रदर्शन करते हुए प्रच्छन्न स्थान में जाकर आलोचना करना और इस रीति से कि जिसे आलोचनादाता भी न सुन सके अथवा अस्पष्ट आवाज में आलोचना करना ।
सद्दाउयं ( शब्दाकुल) :
दूसरों को सुनाने के लिए ऊँचे स्वर में आलोचना करना । बहुजण (बहुजन)
:
प्रशंसार्थी बनकर लोगों में अपनी पापभीरुता प्रकट करने के लिए एक ही दोष को अनेक गुरुजनों के पास जाकर आलोचना करना । अव्वत्त (अव्यक्त)
किसी दोष या अतिचार का किसे क्या प्रायश्चित दिया जाता है, इस बात का जिसे बोध ही नहीं है, एसे अगीतार्थ श्रमण के पास जाकर स्वदोषों की आलोचना करना तस्सेवी (तत्सेवी)
जिस दोष की आलोचना करना है, उसी दोष का सेवन करने वाले गुरु के पास जाकर उसकी आलोचना करना । यह सोचना कि ये स्वयं इस दोष के सेवी है, अतः मुजे उपालम्भ (उलाहना) भी नहीं देंगे; अधिक कुछ नहीं कहेंगे और प्रायश्चित भी अल्प देंगे । आलोचनाविधि में भाषा के व्यवहार में गृहस्थोचित शब्दों
-
का प्रयोग न करके संयमित भाषा का प्रयोग करना चाहिये। भाषा में मूकता और मुखरता इन दोनों को हटाकर आलोचक संयमित भाषा का व्यवहार करें। 157 प्रायश्चित देते समय व्यक्ति की परिस्थिति का विचार :
जैनागमों में दोषी व्यक्ति के द्वारा गुरु के समक्ष अपना दोष प्रगट करने पर उसे तपादि सभी प्रकार के प्रायश्चित रूप दण्ड देते समय प्रायश्चित ग्रहण करनेवाले व्यक्ति के बारे में एवं उसकी तत्कालीन परिस्थिति तथा दोषसेवन करते समय की परिस्थिति पर
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आलोचना करने वाला श्रमण गीतार्थ के पास आलोचना करे, अगीतार्थ के पास नहीं । किन्हीं आचार्यों के मतानुसार आलोच स्वकृत दोषों की आलोचना औत्सर्गिक रुप से आचार्य भगवंत के पास ही करें 159। जीतकल्प में यह भी उल्लेख है कि आलोचना सर्वप्रथम अपने आचार्य उपाध्याय के पास करे। अपने सांभोगिक बहुश्रुत- बह्वागमधारी श्रमण के पास और उनके अभाव में समान रुप वाले बहुश्रुत श्रमण के पास, उनके अभाव में पच्छाकडा अर्थात् जो संयमी जीवन से पतित होकर श्रावक व्रत पाल रहा है, लेकिन पहले संयम पाला होने के कारण उसे प्रायश्चित्त विधि का ज्ञान है, एसे श्रावक के पास, उनके अभाव में जिनभक्त बहुश्रुत यक्षादि देवों के पास, संयोग से कदाचित् ये भी न हो तो गाँव या नगर के बाहर जाकर पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुँह करके विनम्र भाव से अञ्जलिबद्ध नतमस्तक होकर अपने दोषों का स्पष्टतः उच्चारण करें।
इस प्रकार अपने अपराधों को स्पष्ट रुप से बोलते हुए अरिहन्तसिद्ध परमात्मा की साक्षी से स्वदोषों की आलोचना करें 160 ।
157. अ.रा. पृ. 2/460; पंचवस्तुक सटीक, गाथा - 86-88; 158. अ.रा. पृ. 4/2185 से 2188; जीतकल्प-68-76; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश3 / 159; भगवती आराधना 626; 159. अ.रा. पृ. 2/450; पंचाशक सटीक वृत्ति 15 160. अ.रा.पृ. 2/450-451; व्यवहारसूत्रवृत्ति उद्देश ।
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