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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन द्वितीय परिच्छेद... [83] | अभिधान राजेन्द्र कोश : प्रशस्ति । वासे पुण्णरसंकचन्दपडिए चित्तम्मि मासे वरे, हत्थे भे सुहतेरसी-बुहजुए पक्खे य सुब्भे गए। सम्मं संकलिओ य सूरयपुरे संपुण्णयं संगओ, राइंदायरिएण देउ भुवणे राइंदकोसो सुहं ॥3 अभिधान राजेन्द्र कोश की पूर्णाहुति पर रचित अंतिम एक श्लोक प्रमाण प्राकृत पुष्पिका में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि कहते हैं "विक्रम संवत् 1960 के वर्ष में, श्रेष्ठ चैत्र मास में, शुक्ल पक्ष में त्रयोदशी बुधवार के दिन, हस्त नक्षत्र में सूर्यपुर में (सूरत में ) सम्यक् प्रकार से संपूर्ण संकलन कर आचार्य राजेन्द्रसूरिने संसार को शुभ राजेन्द्र कोश दिया। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी विरचित संस्कृत प्रशस्ति और हिन्दी अनुवाद श्लोक : शाखाप्रशाखाभिरतिप्रवृद्धे, वीरोक्तिविस्तारविधानदक्षे । सद्धर्म्यसौधर्मबृहत्तपाऽऽख्य-गच्छे जगत्यां जनितप्रतिष्ठे॥॥ श्रुतावगाहप्रवरा महान्तः, सच्छासनाऽशेषधुरं वहन्तः । श्रीसङ्घवाटी परिफुल्लयन्तः, सूरीन्द्रमुख्या बहवो बभुवुः ।। अर्थ : अंतिम श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी के शासन में हुए अनेक गणधर-श्रुतधर-पूर्वधर आचार्य भगवंतों की महिमा के गुणगान करते हुए आचार्य विजय राजेनद्रसूरीश्वरजी ने कहा है शाखा और प्रशाखाओं से अत्यन्त प्रकृष्टतापूर्वक वृद्धिप्राप्त, वीरवाणी का विस्तार करने की विधि में चतुर, संसार में लब्धप्रतिष्ठित आर्य सुधर्मास्वामी से सौधर्मबृहत्तपागच्छ नामक गच्छ में श्रुत के सागर का पार पाने में अत्यन्त श्रेष्ठ, महान सुशासन की सकल धुरा को वहन करनेवाले और श्री संघवाटिका को प्रफुल्लित करनेवाले कई श्रेष्ठ आचार्य भगवंत हुए। श्लोक : तदन्वयेभूद वररत्नसूरिः, स्वब्रह्मतेजस्वितया करिष्णु। भानु नभोगं हरिमब्धिवासं, त्रिषट्तमं पट्टमलङ्करिष्णुः ७॥ अर्थ : आगे स्व-गुरु परम्परा दर्शाते हुए आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि कहते हैं कि उन सुधर्मास्वामी की परम्परा में श्री रत्नसूरि हुए, जिनके अपने ब्रह्मचर्य के प्रभाव से सूर्य आकाश में (भ्रमण करने) गया और विष्णुने समुद्र में वास किया। ऐसे श्री रत्नसूरिने तिरसठवीं पाट शोभायमान की। श्लोक : निरन्तरऽ चाम्लकरः सुखेन, क्षमा-श्रुत प्राज्यमतिप्रवृद्धः। वृद्धक्षमासूरिरलञ्चकार, तत्पट्टमेरुं सावितेव धीरः ॥4॥ अर्थ : हमेशा आयंबिल तप करनेवाले, क्षमा एवं श्रुतज्ञान के साम्राज्य में अत्यन्त तल्लीन, धैर्यवान् श्री वृद्धक्षमासूरिने उनके पाटरुपी मेरुपर्वत को सूर्य की तरह अलंकृत किया। श्लोक : स्वपरसमयवेदी षट्सु भाषासु दक्षो, विजितयवनवृन्दो मेघपाटीयभर्तुः । सदसि जनसमक्षं श्रीलदेवेन्द्रसूरिः, समभवदतितेजाः पट्टकेऽमुष्य जिष्णुं ॥6॥ अर्थ : इनकी पाट पर स्वपर सिद्धांत के ज्ञाता, छ: भाषाओं में चतुर, मेघपाट देश के राजा की भरी सभा में लोगों के समक्ष यवन समूह (विदेशीवादी) को जिसने जीत लिया ऐसे अतिशय तेजस्वी और जितेन्द्रिय श्री देवेन्द्रसूरि हुए। 84. 85. अ.रा.पृ. 7/1250 अ.रा.पृ. 7/1250-51 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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