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________________ [84]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन श्लोक: शिश्राय तत्पट्टमशेषकाल-विन्मारजित्स्वाऽन्यशुभं करिष्णुं । नैमित्तिकानां प्रथमश्च लोके, कल्याणसूरिगणितप्रवीणः ॥6॥ अर्थ : स्व-पर का शुभ करनेवाले, ज्योतिषियों की दुनिया में प्रथम, (सर्वश्रेष्ठ) गणितकला में प्रवीण ऐसे श्री कल्याणसूरिने इनकी पाट का (पाट पर) बहुत लम्बे समय तक आश्रय किया । श्लोक : अन्वर्थनामा समभूत् प्रमोद सूरिर्जगज्जीवसुमोदहेतुः।। समाधिलीनो निजकर्मदक्ष- स्तदासनेऽखण्डितशीलशाली 7॥ अर्थ : उनके पाट पर बालब्रह्मचारी, निजकार्य में चतुर, समाधि में लीन रहनेवाले जगत के जीवों के आनन्द का कारण 'यथानाम तथागुण' युक्त श्री प्रमोदसूरि हुए। श्लोक: तत्पट्टमेरावुदियाय भानु-जैनागमाब्धि परिमथ्य कोशम् । राजेन्द्रसूरिर्जगदर्चनीयो-ऽभिधानराजेन्द्रमसावकार्षीत् ॥8॥ अर्थ : उनके पाट रुपी मेरु पर उदय के लिये जैनागमोंरुपी समुद्र का समस्त प्रकार से मंथन करके सूर्य समान जगत पूज्य यह अभिधान राजेन्द्र कोश राजेन्द्रसूरिने बनाया (निर्माण किया)। श्लोक : अस्मत्पट्टप्रभावी धनविजयमुनिर्वादिवन्दप्रजेता, श्रीलोपाध्यायवर्यः प्रतिसमयमदाद् भूरिसाहाय्यमेषः । कोशाब्धेरस्य सृष्टौ सकलजनपद श्लाधनीयत्वलिप्सोः, सद्विद्वन्मानसाब्जे दिनकरसमतां यास्यमानस्य लोके ॥७॥ अर्थ : मेरे पाटप्रभावक, वादिवृन्द विजेता, उपाध्यायवर्य मुनि श्री धनविजयने इस (कोश निर्माण) में प्रतिसमय प्रशंसनीय सहयोग दिया। इस कोशरुपी समुद्र की रचना इस संसार में सभी देशों में प्रशंसनीय हो और सज्जनों और विद्वानों की सभा में सूर्य समान प्रकाशमान हो, ऐसी इच्छा रखता हूँ॥9॥ श्लोक: धन्वन्य भूत्तर्कयुगाङ्कपृथ्वी-वर्षे सियाणानगरेऽस्य सृष्टिं । पूर्णोऽभवत् सूर्यपुरे ह्यविनं, शून्याङ्गनिध्येकमिते सुवर्षे ॥10॥ कोश की शरुआत एवं पूर्णाहुति के बारे में प्रकाश डालते हुए आचार्यश्रीने कहा है, धन्य सियाणा नगर में विक्रम संवत् 1946 में इसका शुभारंभ हुआ था (जो) विसं. 1960 के सुवर्ष में निर्विन रुप से सूर्यपुर (सुरत-गुजरात) में पूर्ण हुआ। श्लोक: तावन्महान् प्राकृतकोश, एष,यावत् क्षितौ मेस्वीन्दवः स्युः । सज्जैनजैनेतरविज्ञवर्गमानन्दयेत् कोकमिवोष्णरश्मिः ॥1॥ अर्थ : अंत में कोश के दीर्घायुष्य एवं उसकी चिरंजीविता हेतु प्रसन्न मन से शुभेच्छा प्रकट करते हुए आचार्यश्रीने कहा है जहाँ तक मेरुपर्वत और सूर्य-चन्द्र रहो वहाँ तक यह प्राकृत महाकोश चिरंजीव हो अर्थात् यह कोश यावच्चन्द्रदिवाकरौ (शाश्वत) रहो और जैन-जैनेतर सज्जन विद्ववर्ग इससे उसी प्रकार आनंदित हों जैसे सूर्य की किरणों से चकवा-चकवी प्रसन्न हो जाते हैं। अर्धमागधी क्या है ? समवयांग सत्र. व्याख्याप्रजप्ति सत्र. औपपातिक सत्र और प्रज्ञापना सत्र में तथा अन्यान्य प्राचीन जैन ग्रन्थों में जिस भाषा को अर्धमागधी (आधे मागध देशमें बोलीजानेवाली) नाम दिया गया है; स्थानांग और अनुयोग द्वार सूत्रमें जिस भाषा को 'ऋषिभाषिता' कही गई है और सम्भवतः इसी 'ऋषिभाषिता' पद से आचार्य हेमचन्द्रादिने जिस भाषा की (आर्ष = ऋषियों की भाषा) संज्ञा रखी है वह वस्तुतः एक ही भाषा है अर्थात् अर्धमागधी, ऋषिभाषिता और आर्ष ये तीनों एक ही भाषा के भिन्न-भिन्न नाम हैं, जिनमें पहला उसके उत्पत्ति स्थान से और बाकी के दो उस भाषा को सर्वप्रथम साहित्य में स्थान देनेवालों से सम्बन्ध रखते हैं। आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत-व्याकरण में आर्ष प्राकृत के लक्षण एवं उदाहरण से यह बात निर्विवाद सिद्ध होती है कि, जैन सूत्रों की भाषा यही अर्ध-मागधी, ऋषिभाषिता या आर्ष है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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