SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 292
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन जिनकल्प अंगीकार करते हैं।44 दश पूर्व से अधिकज्ञानी साधु प्रवचनप्रभावना, परोपकारादि के द्वारा बहुत निर्जरा का लाभ होने के अवसर प्राप्त होने पर जिनकल्प ग्रहण नहीं करते 145 जिनकल्पी साधु सूत्रार्थ विशारद, वज्रऋषभनाराच संहनन युक्त, दृढ मनोबलवाले, धैर्यवान्, वीर्यवान्, राग- आतंक-उपसर्ग सहन करने में समर्थ होते हैं। वे ध्रुवलोच (प्रतिदिन लोच), आतापना प्रमुख तप, रुक्ष भोजनवाले होते हैं। वे जिस गाँव में मासकल्प करते हैं वहाँ गाँव के छः भाग की कल्पना करके प्रतिदिन एक-एक भाग में गोचरी जाते हैं। वे दिन के तृतीय प्रहर में अभिग्रहयुक्त अलेपकृत आहार -पानी ही ग्रहण करते हैं, लेपकृत (घी आदि से युक्त) आहारादि नहीं लेते।" जिनकल्पी साधु विशिष्ट प्रतिमा तप ग्रहण नहीं करते । जिनकल्प का पालन ही उनका विशेष अभिग्रह होता हैं। 47 जिनकल्पी साधु दीपक या प्रकाश से रहित, अपरिकर्मित वसति में रहते हैं। वे वसति के द्वार बंध नहीं करते, गाय आदि को दूर नहीं करते, वसतिस्वामी की आज्ञा के बिना उस वसति की मन से भी इच्छा नहीं करते । वसतिस्वामी की अंशमात्र भी अप्रीति होने पर वहाँ नहीं रहते। 48 - जिनकल्पी साधु तृतीय प्रहर में ही विहार करते हैं । 49 जिनकल्पी साधु आवश्यकी और नैषेधिकी दो चक्रवाल समाचा का पालन करते हैं, शेष का नहीं 150 उन्हें ओघ उपाधि में 12 उपकरण होते हैं । 51 जिनकल्पी साधु को जघन्य से नौंवे प्रत्याख्यान पूर्व की आचार नामक तृतीय वस्तु तक और उत्कृष्ट से दशपूर्व तक श्रुत का अध्ययन होता है जिससे उन्हें कालज्ञान प्राप्त होता हैं 152 जिनकल्पी के पाँच प्रतिमाएँ होती हैं । जिनकल्पी साधु पहली उपाश्रय में, दूसरी उपाश्रय के बाहर तीसरी चौराहे पर, चौथी शून्यगृह में और पाँचवी प्रतिमा श्मशान में धारण करते हैं । 53 जिनकल्प धारण करनेवाले साधु को उपशम श्रेणी होती हैं; क्षपक श्रेणी नहीं 154 वर्तमान में पूर्वश्रुत के अभाव में जिनकल्प नहीं है 155 नगर के सत्ताईस गुण" : अनगार अर्थात् जिनशासन में दीक्षित आचार्य अथवा उपाध्याय पद से रहित श्रमण साधु निम्नाङ्कित सत्ताईस मूलगुणों के धारक होते हैं पाँच महाव्रत (5), पंचेन्द्रिय निग्रह (5), चतुः कषाय विवेक (अनंतानुबंधी आदि तीन का त्याग, संज्वलन कषाय की जयणा) (4), भावसत्य (1), करणसत्य (1), योगसत्य (1), क्षमा (1), विरागता ( 1 ), अकुशलमन-वचन-काय का निरोध (3), ज्ञान-दर्शन- चारित्रसंपन्नता (3), अतिवेदन-सहिष्णुता (1), और मारणांतिक उपसर्गसहिष्णुता (1) । प्रवज्या अभिधान राजेन्द्र कोश में 'प्रवज्या' की व्याख्या करते आचार्यश्रीने कहा है कि गृहस्थी संबन्धी पापव्यापार का त्याग करके मोक्ष के प्रति शुद्ध संयम योग / चारित्र मार्ग में व्रजन/ गमन करना 'प्रवज्या' 157 जिनेन्द्र वर्णीने भी कहा है कि वैराग्य की उत्तम भूमिका को प्राप्त होकर मुमुक्षु व्यक्ति अपने सब सगे-संबन्धियों से क्षमा माँगकर, गुरु की शरण में जाकर, संपूर्ण परिग्रह का त्याग कर देता है और ज्ञाता-द्रष्टा मात्र रहता हुआ सौम्य जीवन बिताने की प्रतिज्ञा करता है। इसे ही प्रव्रज्या या जिनदीक्षा कहते हैं 158 प्रवज्या के पर्याय अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने प्रवज्या के निम्नङ्कित पर्याय दर्शाये हैं Jain Education International 1. प्रवज्या : 2. निष्क्रमण : 3. समता 4. त्याग 5. वैराग्य 6. धर्माचरण : 7. अहिंसा : : 8. दीक्षा प्रवज्या के भेद : : M 44. 45. 46. 47. अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने अन्य भी अनेक प्रकार से प्रवज्या का वर्णन किया है, जो निम्नानुसार है 60 :1. इसलोक प्रतिबद्धा प्रवज्या इस लोक में भोजन की प्राप्ति हेतु 2. परलोक प्रतिबद्धा प्रवज्या- परलोक में सुख-समृद्धि, काम-भोग की प्राप्ति हेतु 3. उभय लोक प्रतिबद्धा प्रवज्या इस लोक और परलोक में लाभ की प्राप्ति हेतु 48. 49. 50. 51. 52. 53. 54. 4. पुरतः प्रतिबद्धा प्रवज्या 55. 56. चतुर्थ परिच्छेद... [243] शुद्ध संयम योगों में व्रजन (गमन) । द्रव्य-भाव संग से बाहर निकलना (उसका त्याग करना) । सुख और दुःख के निमित्तों के उपस्थित होने पर समभाव रखना। प्राणियों के इष्ट-अनिष्ट के विषयों का त्याग पाँचों इन्द्रियों के विषयों से वैराग्य (हृदय 5. मार्ग प्रतिबद्धा प्रवज्या 59. 60. : से इन्द्रियविषयभोग सम्बन्धी राग का नाश) । क्षान्ति आदि दशविध यति धर्मो का आचरण । प्राणघातवर्जन । सब प्राणियों को अभय प्रदान करना । 6. द्विधा प्रतिबद्धा प्रवज्याउक्त दोनों कारणों से 7. अप्रतिबद्धा प्रवज्या प्रवज्या पर्याय ज्यादा होने से अनेक शिष्यादि की प्राप्ति हेतु 8. तुयावइत्ता प्रवज्या दीक्षार्थी को पीडा उत्पन्न कर दी जानेवाली प्रवज्या, जिसमें दीक्षा लिये बिना पीडा मुक्ति न हो सके स्वजनादि के स्नेह का छेद होने पर विशिष्ट सामायिक युक्त भाव प्रवज्या 57. अ.रा. पृ. 5/730 58. अ.रा. पृ. 4/1477 अ.रा. पृ. 4/1469, 1472, 1473 अ.रा. पृ. 4 / 1473 अ.रा. पृ. 4/1475 For Private & Personal Use Only अ.रा. पृ. 4/1474 अ.रा. पृ. 4/1473, 1477 अ.रा. पृ. 4/1473 अ. रा. पृ. 2/ अ. रा. पृ. 4/1473 अ. रा. पृ. 4/1479 वही अ.रा. पृ. 4/1473 अ. रा. पृ. 4/278; समवयांग, 27 समवाय जैनेन्द्र सिद्धांत कोश 3/149 अ. रा. पृ. 5/730 अ.रा. पृ. 5/730-731-732 www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy