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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन होता है इसलिए निर्ग्रन्थ श्रमण प्राणिवध को दारुण जानकर उसका त्याग करते हैं। इतना ही नहीं, श्रमण लोक के समस्त त्रस या स्थावर जीवों की कृत-कारित और अनुमोदन हिंसा भी न करें - यह अहिंसा आचार हैं। 11 2. सत्य आचार : जिस वचन, विचार और व्यवहार से दूसरों को पीडा पहुँचती हों, जो वचनादि समग्र लोक में गर्हित हों, वह असत्य हैं; चूंकि हिंसक वचन सत्य होते हुए भी असत्य माना गया है। 12 इसके अलावा 'अप्पणो थवणा परेसु निंदा। 13 - अपनी प्रशंसा और दूसरों की निंदा असत्य के ही समान है। इसलिए इसका भी श्रमण वर्ग के लिए निषेध किया गया है। 3. अचौर्य आचार : अचौर्य आचार का वर्णन करते हुए आचार्यश्रीने राजेन्द्र कोश में कहा है- सचेतन या अचेतन, अल्प या बहुत, यहाँ तक कि दंतशोधन (दांत कुदेरने का तिनका) मात्र भी उसके स्वामी की बिना अनुमति लिए या बिना याचना किये श्रमण मन, वचन, काया से उसे ग्रहण न करें, न करायें और न ग्रहण करने वालों की अनुमोदना करें। 14 4. ब्रह्मचर्य आचार : अब्रह्म को घोर, प्रमाद, दुरधिष्ठित, अधर्म का मूल और महादोषों का पुंज जानकर श्रमण उसका मन, वचन, काया से त्याग करें एवं नौ वाड के पालन पूर्वक निर्मल ब्रह्मचर्य को धारण करें। 15 5. अपरिग्रह आचार : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने संग्रह, परिग्रह और अपरिग्रह का स्पष्टीकरण करते हुए साधु के लिए संग्रह का निषेध, उपकरणादि वस्तु का अपरिग्रहत्व एवं अपरिग्रह वृत्ति के विषय में विस्तृत विवेचन किया है। 16 6. रात्रिभोजन विरमण व्रत : प्रस्तुत कोश में आचार्यश्रीने इस विषय का दिग्दर्शन कराते हुए कहा है कि, रात्रि में भिक्षाचरी - एषणा शुद्धि की दुष्करता होती है। अतः अहिंसा की दृष्टि से परमात्मा महावीरने रात्रि में चतुर्विध आहारपरिभोग का सर्वथा निषेध किया है। 17 7- 12. षट्जीवनिकाय संजम : आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने अभिधान राजेन्द्र कोश में षट्कायिक जीवों की हिंसा के त्याग का निर्देश करते हुए श्रमणों को क्रमशः पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय एवं त्रस, इस प्रकार षट्कायिक जीवो कीहिंसा के त्याग का कारण एवं आस्रव का सुन्दर दिग्दर्शन करवाया है। 18 13. प्रथम उत्तरगुण- अक्ल्प्य वर्जन : अभिधान राजेन्द्र कोश में आगमों के आधार पर श्रमण वर्ग की चार मुख्य आवश्यकताओं- पिण्ड (आहार), शय्या, वस्त्र और पात्र का निरुपण करके उनमें अकल्पनीय का वर्जन तथा कल्पनीय का ग्रहण करने का निर्देश किया गया हैं। 19 14. गृहस्थ के भाजन में परिभोग निषेध : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने श्रमणों के लिए कल्प्य और अकल्प्य का विवेचन करते हुए कहा है कि, "षड्जीवनिकाय के रक्षक निर्ग्रन्थ श्रमण को गृहस्थ के बर्तनों में आहार नहीं करना चाहिए। गृहस्थी के बर्तनों का उपयोग करने से श्रमण को पूर्वकर्म एवं पश्चात्कर्म आदि कई दोष लगते हैं। 20 Jain Education International 15. पर्यक आदि पर सोने बैठने का निषेध : अभिधान राजेन्द्र कोश में श्रमण को पलंग, खाट आदि पर सोने-बैठने के निषेध के कारणों की चर्चा के साथ-साथ अपवादिक रुप से प्रतिलेखनपूर्वक बैठने या शयन करने का विधान बताया गया है | 21 16. गृहनिषद्यावर्जन : अभिधान राजेन्द्र कोश में जैनागमों के आधार पर गृहस्थ के घर निर्ग्रन्थ के बैठने से होनेवाले दोषों पर भी विचार किया गया हैं। I निर्ग्रन्थ श्रमण को गृहस्थ के घर में जाकर बैठना नहीं चाहिए। गृहस्थों के घर में बैठने से ब्रह्मचर्य का नाश होनी की संभावना रहती है। इसके अतिरिक्त अन्य दोष भी उत्पन्न होते हैं। इसलिए अत्यन्त वृद्ध, रोगी या अतिकृश तपस्वी - इन तीन के सिवाय अन्य किसी भी साधु को गृहस्थ के घर पर नहीं बैठना चाहिये | 22 17. स्नानवर्जन : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने ब्रह्मचारी एवं संयमी श्रमण के स्नान करने से होने वाले दोषों की संभावना का उल्लेख किया है। 23 18. विभूषा त्याग : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने विभूषा दुष्फल की चर्चा करते हुए श्रमण वर्ग के लिए विभूषा-त्याग के कारण एवं श्रृंगार आदि में रत चित्तवाले साधक को होते कठोर दुष्कर्मों के बंध की चर्चा की है। 24 चतुर्थ परिच्छेद... [247] इन अठारह प्रकार के आचार- पालन से मुनि के पूर्वकृत पापकर्मों का क्षय हो और नये कर्मों का बंध नहीं हो अतः आत्मकल्याणकांक्षी मुनि को अत्रोक्त 18 आचार स्थान / आचार-गोचर के पालन में उद्यमवन्त रहना चाहिए। 13. 14. 10. वही; दशवैकालिक सूत्र 6/11 11. वही; दशवैकालिक सूत्र 6/11 12. अ. रा.पृ. 6/887; दशवैकालिक सूत्र 6-12, 13 अ. रा.पू. 6/327; प्रश्न व्याकरण - 2/2 अ. रा.पू. 6/887; एवं भाग 1 /538; दशवैकालिक सूत्र 6/14-15 अ. रा.पू. 6/426, 427; दशवैकालिक सूत्र 6/16-17 अ.रा. पृ. 6/887; दशवैकालिक सूत्र 6 / 18-22 अ. रा.पू. 6/510; दशवैकालिक सूत्र 6/24-26 अ. रा.पृ. 3/1345-1346; दशवैकालिक सूत्र 4 / 3, 9, 10 अ.रा. पृ. 1/115-116; दशवैकालिक सूत्र 6/47-49 अ. रा.पृ. 3/900, दशवैकालिक सूत्र 6/51-53 अ.रा. पृ. /725; दशवैकालिक सूत्र 6/54-56 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. अ. रा.पृ. 3/898; दशवैकालिक सूत्र 6/57-58-59-60; अ.रा. पृ. 7/818; दशवैकालिक सूत्र 6/61-62 अ.रा. पृ. 6/1204; दशवैकालिक सूत्र 6/66, 67 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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