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________________ [248]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन | गोचरचर्या (आहारचर्या) मुनि जीवन में कर्मक्षय एवं आत्म कल्याण हेतु संयमाराधना में संलग्न मुनि प्रायः तपस्वी जीवन यापन करते हैं तथापि सभी मुनियों से सदा सर्वथा आहार त्याग संभव नहीं होता क्योंकि औदारिक शरीर अन्न पर आधारित है अतः ज्ञान-दर्शन-चारित्र में उद्यम हेतु इस शरीर को आहार देना आवश्यक है अत: मुनि को क्षुधाशमन हेतु परमात्मा तीर्थंकरदेवने जैनागमों में मुनि के लिये गवेषणा, ग्रहणैषणा और ग्रासैषणापूर्वक समस्त आहार विधि का वर्णन किया है, जो अभिधान राजेन्द्र कोश में गोयरचरिया (गोचरचर्या) शब्द पर संग्रहित की गई है जिसका यहाँ अति संक्षिप्त दिग्दर्शन कराया जा रहा है। जैनमुनि की गोचरी अन्य संतो की अपेक्षा अपने आप में विलक्षण है। 'गोचरी' शब्द का अर्थ है "जैसे गाय चरती है वैसे"। अर्थात् मुनि उच्च-माध्यमादि कुलों में गोचरी के लिए जाये वहाँ लाभअलाभ, सुख-दुःख, शोभन-अशोभन आहार-पानी में समभावी एवं संतुष्ट रहकर जैसे कपोत (कबूतर) पक्षी या कपिञ्जल (तीतर) मेघ के आह्वान हेतु धीरे-धीरे मधुर शब्द करते हैं या जैसे गाय धीरे-धीरे थोडीथोडी घास चरती है (जड से नहीं निकालती), वैसे ही मुनि भी गृहस्थों के घरों में से योग्य निर्दोष आहार-पानी थोडी-थोडी मात्रा में ग्रहण करें; एक ही घर से संपूर्ण मात्रा न ले।। गोचरी भ्रमण की विधि - गोचरी हेतु भ्रमण/गमन करते समय मुनि को निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए1. रास्ते में अनेकविध विषयसामग्री दृष्टिगोचर होने पर भी वत्सवत् (बछडे के समान) एकमेव गोचरी का लक्ष्य रखना। 2. प्रशान्त मन से असंभ्रान्त होकर अव्याक्षिप्त चित्तपूर्वक परिषहादि से भयरहित होकर मन्द (अद्रुत) गति से गोचरी जाये। शरीर प्रमाण । साढे तीन हाथ / युगमात्र सामने दृष्टि रखकर चलें। जब तक अन्य सरल मार्ग हो तब तक खाई, ऊँचा-नीचा मार्ग, पेड के तने, दलदल (कादव), पानी में पत्थर रखकर बनाये मार्ग से न जाये। 5. बलि आदि हेतु ले जाये जाते हुए विभिन्न प्राणियों के सन्मुख न जाये। गृहस्थ के घर गोचरी हेतु जाने पर धर्मकथा न करें, तद्वेतु बैठे भी नहीं । रास्ते में भी हँसते हुए या जोर से बातें करते हुए न चले। 7. उपाश्रय में गुरु या सहवर्ती मुनियों को मैं इस दिशा में या अमुक मोहल्ले आदि में गोचरी जा रहा हूँ -एसा बताकर गोचरी जाये। 8. लघुशंकादि आवश्यक शोधकर (शुद्धि करके) गोचरी जाये। 9. गोचरी ग्रहण करने योग्य यथावश्यक दण्ड, कामली, झोली पात्रादि सभी उपकरण साथ में लेकर जाये। 10. यथावसर सूर्योदय के पश्चात् पोरिसी (एक प्रहर दिन चढने पर) या अर्धपोरिसी (नवकारसी आने के बाद) गोचरी जाये, उषा होते ही या सूर्योदय होते ही न जाय। 11. जब तक जंघाबल हो तब तक गोचरी जाने रुप वीर्याचार का उल्लंघन नहीं करें। 12. तरुण-युवा साधु अन्य गाँव, मोहल्लादि में दूर गोचरी जाये, ग्लान, वृद्ध-बाल साधु समीप में जायें। 13. ग्रीष्म ऋतु में प्रथम प्रहर पूर्ण होने पर जल पीकर गोचरी हेतु जाये। 14. राजादि के घर गोचरी न जाये। गृहस्थ के घरों में भी उनके धन माल रखने के स्थान, अंत:पुर (बेडरुम) आदि में न जाये। 15. वेश्या की गली से या जहाँ प्राणिहिंसा होती हो या जहाँ महाव्रतों का घात होने की, आत्म-विराधना या संयम-विराधना की संभावना हो, एसे स्थान पर मुनि न जाये। 16. जहाँ श्वान-बैलादि आपस में लडते हों, जहाँ कलह, युद्ध आदि हो, जहाँ अन्य लोग जैन साधु का अपमान, हीलना, अप्रीति या उपद्रव करते हों वहाँ न जाये। ____17. गृहस्थ के घर के दरवाजे पर कांटादि लगे हो, कुत्तादि हिंसक पशु बैठे हों, द्वार अंदर से बंद हो वहाँ साधु गोचरी हेतु न जाय (गृहस्थ कांटादि दूर करें या दरवाजा खोले तो जा सकते हैं।) 18. गृहस्थ के घर अकेली श्राविका हो वहाँ साधु को अकेले खडे भी नहीं रहना चाहिए। गोचरी ग्रहण करने की विधि : मुनि गोचरी योग्य समय होने पर गुर्वाज्ञा प्राप्त कर सहवर्ती आचार्य-उपाध्याय-तपस्वी ग्लान-वृद्ध-शैक्ष-बाल मुनि आदि को गोचरी में उन्हें क्या आवश्यकता है? यह पूछकर पात्रादि लेकर नीच कुल (हिंसकादि के घर) को छोडकर उत्तम, मध्यम गाथापति/गृहस्थ के घरों में क्रम या अक्रम से गोचरी हेतु जाकर, वहाँ जो आहारादि सामने दिखे और उसमें से गृहस्थ अपनी इच्छा से जो आहारादि अर्पित करें, उसे 42 दोष टालकर(दोष टालने के प्रयत्नपूर्वक) उस प्रकार से ग्रहण करें जिससे आचार्यादि या बाल ग्लानादि को बाधा न हो, आत्मविराधना, संयमविराधना, प्रवचन उड्डाह या प्रवचनलघुता न हो। गृहस्थ को प्रद्वेष, क्लेश, अभावादि न हो, और क्षुधा का शमन हो। यदि एक बार में पर्याप्त आहार की प्राप्ति न हो तो मुनि एक से अधिक बार भी गृहस्थ के घर आहारादि प्राप्त करने हेतु जा सकते हैं। वर्षाकाल में पानी बरसता हो तब गोचरी जाना निषिद्ध है, परन्तु यदि बाल-वृद्धादि मुनि क्षुधा से त्रस्त होते हों तो बूंद-बूंद वर्षा में कामली ओढकर निकटवर्ती घरों में जा सकते हैं (यह अपवाद विधि स्थविरकल्पी मुनि के लिए हैं)। गोचरी हेतु गये हुए मुनि आहार ग्रहण करते समय अभक्ष्य, बासी, चलितरस, जीवयुक्त, दूषित आहार ग्रहण न करें। जिस से ज्ञानदर्शन-चारित्र की पुष्टि न होती हो, जो विकार उत्पन्न करे वैसा आहार मुनि के लिए त्याज्य हैं। गोचरी ग्रहण करने के पश्चात् मुनि अपनी वसति/उपाश्रय में आकर गुरु भगवंत के पास गोचरी में लगे दोषों की आलोचना करे; गुरुदेव को गोचरी समर्पित करे एवं गुर्वादि तथा सहवर्ती मुनिमण्डल के साथ मण्डली में बैठकर गोचरी (आहार) ग्रहण करें। प्रथम प्रहर में लाया 1. 2. 3. अ.रा.पृ. 3/967, आवश्यक चूणि-4 अध्ययन अ.रा.पृ. 3/968-1004 अ.रा.भा. 3 'गोयरचरिया' शब्द, पृ. 968-1004 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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