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________________ [246]... चतुर्थ परिच्छेद जैन श्रमण का आचार - गोचर (क्रिया-कलाप) अत्यधिक कठोर होता है। भारतीय संस्कृति में आचार का सर्वाधिक महत्त्व है। राजामहाराजा, अमात्य-मंत्री, ब्राह्मण, क्षत्रिय व श्रेष्ठी आदि सभी वर्ग जब भी श्रमण वर्ग के पास पहुँचता था, तो सर्वप्रथम उनके आचार-विचार की पृच्छा करता था - कहं आयार - गोयरं (अर्थात् कथं ते भवतां आचार-गोचरः क्रिया कलापः स्थित:-) ? हे भगवान् ! आपका आचारगोचर / क्रिया-कलाप कैसा है। उक्त प्रश्न के उत्तर में आचार - गोचर की व्याख्या करते हुए अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है- आचार गोचरः क्रियाकलापः । आचार-गोचर अर्थात् (1) आचार का विषय, आचार संबंधी क्रियाकलाप, (2) मोक्ष के लिए किया जाने वाला अनुष्ठान विशेष और उसका विषय (3) साधु समाचारी और उसका विषय, साध्वाचार अङ्गभूत छ: व्रत, (4) ज्ञान, दर्शन आदि पंचविध आचार और उसका विषय अर्थात् भिक्षाचारी (5) पर्याय जयेष्ठ, पूज्य, रत्नत्रयाधिक के आगमन पर खडे होना आचार - गोचर है। 2 निर्ग्रन्थ श्रमणों के आचार का वर्णन करते हुए आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने अभिधान राजेन्द्र कोश में मुख्यतः साधुओं के आचार से संबंध रखनेवाली सभी शिक्षाओं का उल्लेख किया है। 3 वे निम्नानुसार है आचार गोचरी विनय भाषा अभाषा चरण अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन आचार- गोचर करण - यात्रा मात्रा वृत्ति ज्ञान, दर्शन, चारित्र रुप मोक्ष मार्ग की आराधना के लिए किया जानेवाला विविध आचार। भिक्षा ग्रहण करने की विधि । चार पिंड विशुद्धि, पाँच समिति, बारह भावना, द्वादश भिक्षु प्रतिमा, पाँच इन्द्रियों का निरोध, पच्चीस प्रकार की प्रतिलेखना, तीन गुप्तियाँ और चार अभिग्रह - ये 'करण अर्थात् क्रिया के 70 भेद हैं।'5 संयमरुप यात्रा का पालन । संयम की रक्षा के लिए परिमित आहार लेना । विविध अभिग्रहों की धारणा कर संयम जीवन को पुष्ट करना इस प्रकार जैन परम्परा में उपर्युक्त समग्र शिक्षाओं का पालन निर्ग्रन्थ श्रमण का आचार धर्म हैं।" निर्ग्रन्थ श्रमणाचार की विशेषता Jain Education International ज्ञान और ज्ञानी आदि की विनय-भक्ति । सत्य और असत्या मृषा रुप भाषा का प्रयोग । निरर्थक भाषा अर्थात् मृषा तथा सत्यामृषा (मिश्र) अभाषा का प्रयोग । पाँच महाव्रत, दशविध श्रमण धर्म, सत्रह प्रकार का संयम, दश प्रकार का वैयावृत्त्य, नववाड सहित ब्रह्मचर्य का पालन, ज्ञान- दर्शन - चारित्र रुप रत्नत्रयी की साधना, बारह प्रकार का तप और चार कषायों के निग्रह को चरण कहते हैं।' चरण अर्थात् चारित्र । उपर्युक्त चारित्र के ये सत्तर (70) भेद है, जो श्रमण धर्म का आचार है। : निर्ग्रन्थ श्रमणाचार की विशेषता बताते हुए राजेन्द्र कोश में कहा है कि, "निर्ग्रन्थ श्रमणों के आचार का विषय (1) भीम अर्थात् कठिन कर्मशत्रुओं को खदेडने में भयंकर हैं - आयार गोयरं भीमं सयलं दुरहिट्ठियं । 7 (2) दुरधिष्ठित-दुर्बल (कायर) आत्माओं के लिए इस आचार को धारण करना अशक्य है अतः कायर पुरुषों के लिए यह आचार दुर्धर है और यह सकल-सम्पूर्ण (अखंडित) हैं। अष्टादश आचार स्थान : जैनागमों के आधार पर अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने श्रमणाचार के अष्टादश स्थानों का वर्णन किया है जो निम्नानुसार है'वयछकं कायछक्क, अकप्पो गिहिभायणं । पलियंक निसिज्जा य, सिणाणं सोहवज्जणं व्रतषट्क, कायषट्क, अकल्य, गृहस्थ भाजन, पर्यक, निषद्या, स्नानवर्जन और शोभावर्जन ये अठारह आचार स्थान है। 1. अहिंसा आचार : सभी जीव जीना चाहते हैं; मरना कोई नही चाहता, और सभी जीव सुख चाहते हैं; दुःख नहीं । मरण अत्यन्त दुःखरुप प्रतीत रायाणो रायमच्चाय माहणा अदुव खत्तिया । पुच्छन्ति निहु अप्पाणो, कहं आयार गोयरं । - अ.रा. पृ. 2/375; दशवैकालिक सूत्र - 6/2 आचारो मोक्षार्थमनुष्ठानविशेषस्तस्य गोचरो विषयः आचार- गोचरः । आचारः साधुसमाचारस्तस्य गोचरो विषयो व्रतषट्कादिराचारगोचरः । साधुसमाचारीवषये, व्रतषट्कादिके, आचारश्च ज्ञानादिविषयः पंचधागोचरश्च भिक्षाचर्येत्याचारगोचरं ज्ञानाचारादिके भिक्षाचयां चा सेहं आयार-गोचरं ग्रहणयाए अब्भुट्ठेयव्वं भवइ । - अ.रा. पृ.2/375; स्थानांगसूत्र सटीक, 8 ठाणां 3. अ.रा. पृ. 2/337; नन्दीसूत्रवृत्ति, सूत्र 32 4. तत्राऽऽचारो ज्ञानाऽऽचाराद्यनेकभेदभिन्नो गोचरो भिक्षाग्रहण-विधिलक्षणः विनयो ज्ञानादिविनयः वैनयिकं विनयफलं कर्मक्षयादि । शिक्षाग्रहणं शिक्षा आसेवनं, शिक्षा च विनयशिक्षेति चूर्णकृत् । तत्र विनेयाः शिष्यां तथा भाषा सत्या असत्यामृषा च चरणं व्रतादिकरणं पिंडशुद्धयादि । उक्तं चवयसमणधम्मसंजम, वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ। नाणाइतियं तव कोह, निग्गहाइ चरणमेयंतु। अ. रा. पृ. 2/373; नन्दीसूत्रवृत्ति, 1. 2. 5. 6. 7. 8. 9. सूत्र 32 पिंडविसोहि समिई, भावणपडिमाई इंदियनिरोहो । पडिलेहण गुत्तीओ, अभिग्गहो चेव करणं तु ॥ अ. रा.पृ. 2/373; प्रवचनसारोद्धार, गा. 563 यात्रा संयमयात्रा तदर्थमेव परिमिताहारग्रहणम्, वृत्तिविविधैरभिग्रहविशेषैर्वर्तनम्। आचारश्च गोचरश्चेत्यादि द्वन्द्वान्ता आचारगोचरविनयवैनयिकाशिक्षाभाषाणामाचरण करणयात्रामात्रावृत्तयः आख्यायन्ते.... स आचार: समासतः संक्षेपतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः । अ.रा. पृ. 2/373; नन्दीसूत्रवृत्ति, सूत्र 32 अ. रा. पृ. 2/375; आचारांग 2/1 अ. रा.पू. 6/888; दशवैकालिक सूत्र 6/7 वही; दशवैकालिक सूत्र 6/8 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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