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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन ज्ञान से उत्पन्न वैराग्य से या 'यह यतिधर्म सांसारिक समस्त दुःखों का नाशक है, क्षान्त्यादि गुणयुक्त है, दुष्कर्मरहित है, कुस्त्री-वस्त्रधन-स्थान इत्यादि की चिन्ता नहीं रहती और इससे ज्ञान प्राप्ति, लोक पूजा, प्रशम सुखरस, स्वर्ग सुख और मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है' -इत्यादि प्रवज्या की महिमा श्रवण करने से प्राप्त उच्च वैराग्य से प्रवज्या की प्राप्ति होती है। 4 जैनदीक्षा न तो बच्चों का खेल है, न कोई सामान्य बात है; यह तो आत्म कल्याण एवं कर्मनिर्जरा हेतु मोक्ष साधना का कठोरतम मार्ग है अतः अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने दीक्षार्थी की पात्रताअपात्रता का भी वर्णन किया हैं। दीक्षार्थी की पात्रता - आर्यदेशोत्पन्न, विशिष्ट जातिकुलान्वित, क्षीणप्रायः कर्ममल, विमलबुद्धि, अवगत संसारनैर्गुण्य, विरक्त, अल्पकषाय (प्रतनुकषाय), कृतज्ञ, विनीत, राजादि बहुजनमान्य, अद्रोहकारी, कल्याणाङ्ग, श्राद्ध (श्रावक), स्थिर, समुपसंपन्न, सेवितगुरुकुलवास, अस्खलितशील, अखण्डशील, यथोक्त योग-विधानपूर्वक गृहीतसूत्र, तत्त्वज्ञ, उपशान्त, प्रवचनवात्सल्ययुक्त, सत्त्वहितरत, आदेय (ग्राह्यवाक्य), अनुवर्तक, गंभीर, अविषादी, उपशमलब्धि, उपकरणलब्धि आदि गुणों से युक्त मनुष्य प्रवज्या ग्रहण करने योग्य है। 65 दीक्षा के लिए अपात्र - अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने दीक्षादाता गुरु भगवंतो को रेड सिग्नल बताते हुए कहा है कि "पाप स्थानों की आलोचना नहीं करनेवाला, वेश्यागृहीत, दीक्षा के समय अशुभ दुर्निमित्त होने पर, मिथ्यादेशोत्पन्न अनार्य, वेश्यासुत, गणिक, चक्षुविकल, विगलित कर-चरण, छिन्न नाक-कान- ओष्ठ, कुष्ठी, गलित अङ्गोपाङ्ग, पंगु, मूक, बधिर, अत्युत्कटकषायी, बहुपाखंड संसक्त, अतिरागद्वेषमिथ्यात्वमललिप्त, देशनिष्कासन दण्डयुक्त, देवबलीकरण, भोइ, नट, छत्रवारण, जड, जडबुद्धि, नामहीन, बलहीन, कुलहीन, जातिहीन, बुद्धिहीन, प्रज्ञाहीन, निंदित जाति और अज्ञातकुल-स्वभाव वालों को दीक्षा (प्रवज्या) नहीं देना चाहिए ।" तथा बाल (आठ वर्ष से कम उम्र वाला), वृद्ध, नपुंसक, जड, क्लीब दृष्टि असमर्थ), वातिक, चोर, राजापकारी (राजद्रोही), उन्मत्त, अदशीन (प्रज्ञाचक्षु), दोषदुष्ट, मूढ, जुंगिक (जाति-कर्म-शरीरादि से दूषित), उद्धत, गर्भिणी, और बालवत्सा को प्रवज्या नहीं देना 167 मुमुक्ष की परीक्षा विधि :- दीक्षा दाता गुरु प्रवज्या से पूर्व दीक्षार्थी की आँखों पर पट्टी बांधकर समवसरण में तीन बार पुष्पपात करावें । यदि वे पुष्प परमात्मा की गोद में, सिंहासन में या समवसरण में गिरे तो दीक्षा देवें; और यदि तीनों बार पुष्प समवसरण से बाहर गिरें तो उस व्यक्ति को दीक्षा नहीं दे और कहे कि "आप अभी ओर अध्ययन करें, आगे यथावसर देखा जायेगा।' दीक्षादाता के गुण ̈ दीक्षादाता गुरु प्रवचनार्थवक्ता, स्वगुर्वनुज्ञातगुरुपदप्राप्त, बहुतरगुणयुक्त, वीतराग प्रतिपादित होना चाहिए । गुरु स्वभाव - अनुकूलता के द्वारा शिष्यों को हितमार्ग में जोड़ते हैं, आगमोक्त विधिपूर्वक ज्ञात-क्रिया का निष्पादन करते हैं, वे गुरु शिष्यों को एवं स्वयं को मोक्ष में ले जाते हैं। शिष्यों में भी एसे गुरु के प्रति गुरुभक्ति, बहुमान और श्रद्धा होती है। गुर्वाज्ञापालक शिष्य ज्ञानादि लाभ प्राप्त कर चारित्र में स्थिर होता है, उससे रागादि दोष कम / नष्ट होते हैं, चारित्र की वृद्धि एवं शुद्धि होती है एवं अभ्यास के अतिशय से इस भव और अन्य भव के समस्त कर्मक्षय होने पर शिष्यों को परमपद/मोक्ष की प्राप्ति होती हैं। चतुर्थ परिच्छेद... [245] प्रवज्याविधि :- गीतार्थ गुरु आगमोक्त विधि के अनुसार शुभ तिथि-वार-नक्षत्र-करम-चन्द्रमा-योग आदि तथा शुभ शकुन - निमित्तस्वर आदि देखकर समवसरण, जिनभवन, अर्हदायतन, इक्षुवन, क्षीरवृक्षवन या अश्वत्थादि (वड, आम्र, पीपल आदि) वृक्ष समूह में गंभीर सुंदर नाद, महाभोगी (मनोज्ञ प्रतिशब्दयुक्त प्रशस्तक्षेत्र में योग्य मुमुक्षु को दीक्षा देवें । (भग्न स्थान, श्मशान, शून्य स्थान, अमनोज्ञ, गृह, क्षार - अङ्गारादि से दूषित भूमि में दीक्षा देना वर्जित हैं ।) प्रवज्या के लाभ :- - सुयोग्य पात्र को विधिपूर्वक दी गई व्रतरुप दीक्षा मोक्ष का हेतु होने से निर्वाण का बीज है ।" प्रवज्या ग्रहण कर्मनिर्जरा, विनेयानुग्रहण एवं कर्मक्षय के लिए होता है। 72 प्रशान्तचित्त व्रत धर्म में अधिकारी बनता है, उन्हें विषयतृष्णा या उच्चदृष्टि संमोह उत्पन्न नहीं होता, धर्ममार्ग में अरुचि नहीं होती, क्रोधादि पाप नहीं होते और वह उत्तरोत्तर प्रवर्धमान भावविशुद्धि प्राप्त करता है। प्रवज्यारुप यह जैन धर्म जन्म- जरा - मरणादि दुःखों का विनाशक, विनयादि विमलगुणयुक्त, ज्ञानादि लक्ष्मी के निवास योग्य मिथ्यात्वादि दोषविनाशक, एवं सम्यग्दर्शनादि का विकासक है। 73 जैसे सूर्य के प्रभा पटल प्रकाश को देखकर सरोवरस्थित श्रेष्ठ पुंडरीक कमल प्रभात में प्रफुल्लित होते हैं वैसे ही श्री जिनवररुपी सूर्य की स्तुति और आगमरुपी प्रभा पटल (ज्ञान प्रकाश) के प्रभाव से भव्य जीव रुपी कमल प्रबोध प्राप्त करते हैं, सम्यक्त्वादि का विकास करते हैं। 74 अनगार धर्म : * Jain Education International अभिधान राजेन्द्र कोश में अणगार साधु द्वारा पालन किये जाने योग्य धर्मो का वर्णन करते हुए अनगारो के क्षान्ति आदि 10 धर्म बताये हैं जिनका आगे वर्णन किया जायेगा। 75 आगे अभिधान राजेन्द्र कोश में मुनि संबन्धी अनुष्ठान विशेष को अनगार धर्म या यतिधर्म कहा है। यह दो प्रकार का है- 76 1. सापेक्ष यतिधर्म गुरु, गच्छ आदि की सहायता से जो प्रवज्या का पालन किया जाय वह ग्रहण - शिक्षा ( प्रतिदिन सूत्रादि का अभ्यास), आसेवन - शिक्षा (प्रतिदिन साध्वाचार योग्य क्रिया का अभ्यास) आदि रुप गच्छवासी स्थविरकल्पी साधु का धर्म सापेक्ष यतिधर्म कहलाता है। 2. निरपेक्ष यतिधर्म - जिनकल्पिकादि मुनिधर्म । 64. अ. रा. पृ. 5/734 65. अ. रा.पू. 5/734, 5/736; जैनेन्द्र सिद्धांत कोश 3/149 66. अ.रा. पृ. 5/767 67. 68. 69. 70. 71. 72. 73. 74. 75. 76. - अ. रा.पृ. 5/769, 5/733; जैनेन्द्र सिद्धांत कोश 3/150 अ.रा. पृ. 5/744 अ.रा. पृ. 5/734-735 अ.रा. पृ. 5/742 अ. रा. पृ. 4/2507 अ. रा. पृ. 5/734 अ.रा. पृ. 5/732 अ.रा. पृ. 5/733 अ. रा. पृ. 1/279, 4/1364 अ. रा. पृ. 1/279 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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