SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 435
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [386]... चतुर्थ परिच्छेद (13) देश कथा करना । (14) बिना प्रमार्जन किये या जीवयुक्त भूमि पर लघु नीति, बडी नीति विसर्जित करना । (15) निन्दा करना । (16) संसारी संबंधीजनों से वार्तालाप करना । (17) चोर संबंधी बातचीत करना । (18) स्त्री के अंगोपाङ्ग आदि देखना । पौषधोपवास व्रत के पाँच अतिचार153 अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन न्यायोपार्जित प्रासुक, कल्प्य अन्न, जल, वस्त्रादिक का देश, काल, श्रद्धा, सत्कार तथा क्रमपूर्वक उत्कृष्ट भक्ति द्वारा अपनी आत्मा के अनुग्रह की बुद्धि से साधु को दान देने का नियम ग्रहण करना अतिथि संविभाग व्रत कहलाता है। यह श्रावक का बारहवाँ व्रत है। शिक्षा ग्रहण करने योग्य एवं शिक्षाव्रतों में चतुर्थ स्थान पर होने से उसका अपरनाम चतुर्थ शिक्षाव्रत हैं 1159 विधि : : (1) अप्रतिलेखित / दुष्प्रतिलेखित शय्या संस्तार - बिना देखे-भाले शय्या आदि का उपयोग करना । (2) अप्रमार्जित / दुष्प्रमाजित शय्या संस्तार - अप्रमार्जित शय्या का उपयोग करना । (3) अप्रतिलेखित / दुष्प्रतिलेखित उच्चार- प्रसवण (परने के लिए निर्जीव भूमि) भूमि को अच्छी तरह से देखे बिना शौच या लघुशंका के स्थानों का उपयोग करना । (4) अप्रमार्जित / दुष्प्रमार्जित उच्चार प्रसवण भूमि अप्रमार्जित शौच या लघुशंका के स्थानों का उपयोग करना । (5) पौषधोपवास का सम्यग् रूप से पालन नहीं करना अर्थात् पौषध में निंदा, विकथा, प्रमादादि का सेवन करना, पारणादि की चिन्ता करना आदि । अतिथिसंविभाग (अइ (ति) हि संविभाग) : 'अइहि संविभाग' शब्द अभिधान राजेन्द्र कोश के प्रथम भाग में पृष्ठ 33 पर प्रयुक्त हैं। यह अतिथि संविभाग शब्द दो खण्ड से बना है अतिथि + संविभाग । 'अतिथि' शब्द का सामासिक अर्थ है: नास्ति तिथि यस्य ( आगमनस्य) सः । अर्थात् जिसके आगमन की कोई समय निश्चित न हो, उसे अतिथि कहते हैं। सम् = उचित, वि= विशेष प्रकार का, भाग = अन्न रुप भाग होता है । 154 - लोक में तो गृहस्थ के घर जो भी साधु, संन्यासी, तापस, भिक्षुक और परिचित या अपरिचित व्यक्ति का सूचनापूर्वक या बिना सूचना के आगमन हो जाय उसे अतिथि कहते हैं। लेकिन 'अतिथि' शब्द जैन सिद्धांतानुसार श्रावकधर्म के व्रत से सम्बन्धित हो आचार्य विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजीने अभिधान राजेन्द्र कोश में 'अतिथि' शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है तिथिपर्व आदि समस्त लौकिक पर्व के त्यागी वीतराग प्रणीत चारित्र के आराधक जैन साधु श्रावक के घर भोजन के समय उपस्थित हो जाये, उसे 'अतिथि' कहते हैं। 155 आचार्यश्री के अनुसार एसे अतिथि साधु को जिसमें प्राणीवधादि हिंसा न हुई हो - एसे निर्दोष और न्यायोपार्जित द्रव्य से प्राप्त आहार उद्गमादि के आधाकर्मादि दोष से रहित, पश्चात्कर्मादिक दोष उत्पन्न न हो, इस तरह सविशेष अन्न, जल, स्वादिम, खादिम आदि चारों प्रकार के आहार का दान करना, अतिथिसंविभाग हैं 1156 Jain Education International - 'श्राद्धगुणविवरण' में भी कहा है- "न्यायथी प्राप्त थयेलां अने कल्पनीय एवा अन्नपानादिक द्रव्योनुं परमभक्तिए अने आत्मानो उपकार थशे एवी बुद्धिए साधुओंने जे दान आपवुं तेने मोक्षफल आपनारो ‘अतिथि संविभाग' कहे छे।' 157 हेमचन्द्राचार्यने भी गृहस्थ द्वारा साधु को चारों प्रकार के आहार का दान देना- अतिथि संविभाग कहा है | 158 व्रतधारी श्रावक यह व्रत पौषध के पारणा के दिन अवश्य करते हैं। उपवास सहित एक अहोरात्र पौषध ग्रहण करके दूसरे दिन एकाशन के तपपूर्वक यह व्रत करते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार श्रावक पौषध की जयणा कर सुबह की प्रथम पोरिसी पूर्ण होने पर उपाश्रय या जहाँ साधु भगवन्त विराजमान हो, वहाँ जाकर साधु को वंदन कर गोचरी हेतु निमंत्रण करे। साधु के घर पधारने पर सम्मुख जाकर 'पधारो - पधारो' - एसा कहकर घर में ले जाये। लकड़ी के पाट-पटिये आदि पर उन्हें बैठने हेतु विनंती कर वंदन करे। इसके बाद प्रदान करने योग्य शुद्ध, निर्दोष, कल्प्य आहार, देश, काल, श्रद्धा, सत्कार और क्रमपूर्वक आत्मानुग्रह की बुद्धिपूर्वक प्रदान करे। दान देने के बाद वन्दन करके वापिस द्वार तक या गली के नुक्कड तक कुछ कदम पहुँचाकर फिर घरमें आकर एक जगह स्थिर आसनपूर्वक बैठकर जो वस्तु साधु ने ग्रहण की है, उसी वस्तु से एकाशन करें। जो चीज साधु को दान नहीं दी, उसे भोजन में नहीं लेवें 1160 आचार्यश्री ने आगे कहा है, यदि साधु का योग न हो तो भोजन के समय दिशावलोकन करते हुए मन में भावना भावे कि यदि साधु भगवन्त का योग होता तो भवसागर से हमारा निस्तार होता । वर्तमान में यदि साधु का योग न हो तो व्रतधारी श्रावक की अन्नादि से भक्ति करके भी अतिथि संविभाग व्रत किया जाता है । 161 शिक्षाव्रत का फल : इस प्रकार विधिपूर्वक ज्ञानी, ब्रह्मज्ञानी अतिथि साधु की भक्ति करने से दान धर्म की आराधना होती है। साधुओं के प्रति प्रेम, बहुमान और भक्तिभाव बढते हैं। संयम की अनुमोदना से संयम धर्म का फल प्राप्त होता हैं। अर्थात इस लोक में श्रेष्ठ सुख-सौभाग्य, संपत्ति और परलोक में देव, देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि की पदवी तथा परंपरा से मोक्ष की प्राप्ति होती हैं। 162 अतिथि संविभाग व्रत के अतिचार : 153. 154. 155. 156. 157. 158. 159. 160. 161. 162. - इस व्रत के दोषों का विवरण करते हुए आचार्यश्रीने इस अ.रा. 5/1137 पञ्चप्रतिक्रमण सूत्र सार्थ. पृ. 79 अ.रा.भा. 1/33, 'अइहि' शब्द अ. रा. भा. 1/33, 'अइहि संविभाग' शब्द श्राद्दगुणविवरण पृ. 15 योगशास्त्र 3/87 अ. रा. भा. 7/785 अ. रा. भा. 1/33; तत्त्वार्थ भाष्य - 7/16; श्रावकजीवन दर्शन श्रावकव्रत अधिकार पञ्चप्रतिक्रमण सूत्र; पृ. 79 अ. रा. भा. 1/33-34 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy