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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [387] व्रत के निम्ननिखित पाँच अतिचार बताये है।63
असमर्थ होने से परिग्रह को मर्यादित करने पूर्वक स्थूल परिग्रह परिमाण/ (1) सचित्त निक्षेप - नहीं देने की बुद्धि से दान योग्य उचित इच्छा परिमाण व्रत को धारण करता है। दिक्परिमाण व्रत भी इसी
पदार्थ को गेहूँ हरी वनस्पति आदि सचित पदार्थ में रखना। व्रत का पूरक है जिसमें श्रावक गमनागमन की तथा वहाँ से वस्तु (2) सचित विधान - दान नहीं देने की बुद्धि से देय वस्तु मंगवाने की मर्यादा करता हैं। इससे जैसे यूरोपवासियोंने गरीब और को सचित्त पदार्थ से ढंकना।
अविकसित देशों में जाकर व्यापार के बहाने वहाँ के लोगों को लूटा; (3) परव्यपदेश - नहीं देने की बुद्धि से देय वस्तु स्वयं की उपनिवेश बसाये, साम्राज्य किया और दो-दो विश्व युद्ध किये तथा
होने पर भी उसे अन्य की बताना या देने की बुद्धि से तृतीय विश्वयुद्ध की स्थिति खडी की वैसी स्थितियों से और तज्जनित अन्य की देय वस्तु को स्वयं की बताना।
शोषण, पीडा और जीवहिंसा रुप कार्यो और उससे होनेवाले अशुभ (4) मात्सर्य - ईर्ष्या, द्वेष, मत्सर, क्रोध, या असम्मान से दान कर्मबंध से श्रावक बच जाय। देना।
इसी प्रकार सातवाँ भोगोपभोग/उपभोग-परिभोगपरिमाण (5) कालातिक्रम - गोचरी काल बीत जाने के बाद में या व्रत भी इसी का पूरक व्रत हैं। इस व्रत के पालन में श्रावक
भिक्षा काल होने से पूर्व ही साधु को भिक्षा हेतु निमंत्रण भोगोपभोग में आनेवाले पदार्थों को भी मर्यादित करता है तथा करना।
पंद्रह प्रकार के कर्मादान/कुव्यापार का त्याग करता है, जिससे जीवहिंसा अणुव्रत : एक समग्र दृष्टि :
और जीवहिंसामय व्यापार से श्रावक बच जाता है। पर्यावरण सुरक्षित व्रतधारी श्रावक को व्रत ग्रहण करने के बाद उसमें दोष रहता है। प्रकृति का अनाप सनाप विनाश रुकता हैं। प्राकृतिक न लगे, इसके लिए सावधानीपूर्वक ध्यान रखना चाहिए । अतः व्रत संतुलन से चक्रवात, भूकंप, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अतिशय गरमी, ग्रहण करते समय व्रती को व्रत में कहाँ, कब, कौन सा दोष लगने जल भंडारों की कमी, खाद्य पदार्थ एवं ईधन की कमी, रोगोत्पत्ति, की संभावना हो सकती हैं। इस बात का ध्यान अवश्य होना चाहिए। जनहानि, पशु आदि जीव हानि आदि से बचा जा सकता हैं।
इस प्रकार अभिधान राजेन्द्र कोश में श्रावक के बारह व्रतों आठवें अनर्थदण्ड व्रत का पालक श्रावक अहिंसा व्रत के पालन का वर्णन किया गया हैं जिसका यहाँ पर संक्षिप्त वर्णन किया गया
के लिए ही बिना कारण मिट्टी खोदना, नल को खुला छोडकर
अनावश्यक पानी ढोलना, बिना कारण पेड-पौधे काटना, फूलसंसार के समस्त जीवों की रक्षा का उपदेश भगवान महावीर
पत्ते तोडना, आग जलाना, पापोपदेश देना, हिंसक कार्य करनेवालों के प्रवचन की विशेषता हैं। परमात्माने समस्त जीवों की रक्षा के
को सहयोग करना, हिंसा के साधन/हिंसक उपकरण का आदानलिए अपना प्रवचन/उपदेश कहा हैं।
प्रदान करना आदि कार्यो का त्याग करता हैं। सर्वथा अहिंसा का पालन करने में असमर्थ श्रावक अहिंसाणुव्रत
सामायिक में तो श्रावक सर्वसावध व्यापारों का त्याग करने के रुप में उस जीवों की आंशिक हिंसा का त्याग तो करता ही
में साधु जैसा है। देशावकाशिक व्रत में श्रावक न केवल दिग्व्रतादि है, साथ ही स्थावर जीवों की भी निरर्थक हिंसा नहीं करता। इसी
में रखी मर्यादा का भी संक्षेप करता है, अपितु व्यवहार में तो सामायिक प्रकार सत्याणुव्रत का पालक श्रावक आत्महत्यादि कारण से कन्या
पूर्वक ही देशाकाशिक व्रत किया जाता है जिसमें व्रती श्रावक तीन के विषय में तथा गायादि को कत्लखाने में भेजने रुप हिंसा के
सामायिक, छ: सामायिक या दश सामायिक तक धर्मध्यान करता कारण गौ आदि के विषय में और इसी प्रकार जीव हिंसा या अन्य
हैं। पौषध भी सर्वसावध के त्यागपूर्वक सामायिक सहित किया जाता प्राणी को पीडाजनक तथा हानि रुप होने से अन्य विषयों में असत्य,
हैं। प्रकारान्तर से पौषध साधुजीवन का लघुरुप है। अतिथिसंविभाग निंदनीय, कठोर या हास्य वचन नहीं बोलता। परधनहरण से जिसका
व्रत भी पौषधपूर्वक किया जाता है, अतः इन चारों व्रतों में सामायिकपूर्वक धन हरण किया जायेगा उसे पीडा होगी यावत् जानहानि आदि का
आराधना की जाने के कारण जीवदया का सविशेष पालन होता हैं। भय होने से श्रावक स्थूल चोरी का त्याग करता हैं। जैनागमों में
इस प्रकार जैनधर्म में श्रावकों के ये 12 व्रत अहिंसा पालन कहा है - स्त्री की योनि में 2 से 9 लाख संमूर्छिम द्वीन्द्रियादि
के लिये ही हैं। आचारांग सूत्र में कहा है - "जे अईया, जे पडुपन्ना, जीव एवं 9 लाख संमूच्छिम पञ्चेन्द्रिय एवं असंख्य संमूच्छिम मनुष्य
जे य आगमिस्सा अरहंता भगवंता ते सव्वे हवमाइक्खंति, एवं होते हैं जिनका पुरुष के संयोग से नाश होता हैं। जैसे रुई से भरी
भासंति, एवं पन्नेवंति, एवं पस्वयंति - सव्वेपाणा सव्वे भूया, हुई नली में लोहे की तप्त शलाका डालने पर रुई का नाश होता
सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा, न वज्झावेयव्वा,न परितावेयव्वा, है वैसे ही इन जीवों का भी नाश हो जाता हैं।164 अतः श्रावक स्वस्त्री में भी मर्यादापूर्वक सांसारिक जीवन व्यतीत करता हुआ संतुष्ट
न उवद्दवेयव्वा, एस धम्मे सुद्धे निइए सासए समिच्च लोयं खेयन्नेहि रहता है और परस्त्रीगमन तथा कन्या, विधवा, वेश्या के साथ गमन
पवेइए।" इत्यादि अतो अस्या एव रक्षार्थे शेषव्रतानि । तथा चाहका त्याग करता हैं। यही श्रावक का स्थूल मैथुनविरमण व्रत हैं।
"अहिंसैव मता मुख्या, स्वर्गमोक्ष प्रसाधनी ।
अस्या संरक्षणार्थ च, न्याय्यं सत्यादि पालनम् ॥"165 परिग्रह की मूर्छा ही पाप का कारण है क्योंकि परिग्रह की प्राप्ति, उपभोग और रक्षा बिना मूर्छा या बिना आरंभ-समारंभ के कतई नहीं हो सकती और आरंभ-समारंभ में जीव हिंसा अवश्यंभावी 163. तत्त्वार्थ भाष्य-7/16 पर तत्त्वार्थभाष्य है अतः श्रावक गृहस्यावस्था में समग्र परिग्रह का त्याग करने में
164. संबोधसत्तरी प्रकरण-82 से 87 165. अ.रा.पृ. 4/2457 'दयालु' शब्द
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