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[388]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन श्रावक व्रत ग्रहण विधि :
(5) आकार शुद्धि - प्रत्याख्यान करते समय राजाभियोगादि को अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने
ग्रहण करना जिससे व्रत भङ्ग का प्रसङ्ग उपस्थित न हो। श्रावक को उपरोक्त सम्यक्त्वादि द्वादशव्रत उच्चारण/ग्रहण करने-करवाने उपचर्या :की विधि का वर्णन करते हुए कहा है -
सुदेव-गुरु साधुर्मिक और स्वजन का यथायोग्य धूप-पुष्प, गृहस्थ श्रावक योग, वंदन, निमित्त, दिशा और आकार की वस्त्र, विलेपन, आसनदान, पूजा, सत्कार एवं दीन-हीन-अनाथ को विशुद्धिपूर्वक और योग्य उपचर्यापूर्वक गुरुमुख से अणुव्रतादि द्वादश अनुपादान देना। श्रावक व्रत रुप सद्धर्म को ग्रहण करें।
इस प्रकार योगादि शुद्धि और देव, गुरु, सार्मिक और (1) योगशुद्धि - मन से शुभ चिन्तन, शुभ भावना, वचन से स्वजन तथा संघ की यथायोग्य उपचर्या एवं दीन-अनाथ को दान
निरवद्यभाषण, काया से उपयोग/जयणापूर्वक गमनागमनादि देने पूर्वक जिनभवनादि प्रशस्त स्थान में प्रशस्त तिथि-करण-नक्षत्रप्रवृत्ति
मुहूर्त-चंद्रबल होने पर सुपरिक्षित शिष्य/गृहस्थ को आचार्य व्रतोच्चारण (2) वंदनशुद्धि - अस्खलितरुप से भावपूर्वक खमासमण, करावें । सम्यक्त्व सामायिक, श्रुत सामायिक, देशविरति सामायिक कायोत्सर्गादि क्रिया
की आरोपण विधि में आचार्य भगवंत नन्दीकरावण (एक प्रकार की (3) निमित्तशुद्धि- शंख ध्वनि, मंगल बाजे बजाना, पूर्ण कलश, विधि), देववंदन, गुरुवंदन, कायोत्सर्ग आदि क्रिया शास्त्रोक्त विधिपूर्वक
भंगारकलश (जलधारायुक्त कलश), छत्र, ध्वज, चामर, सुगंधी, करवाकर तीन बार संबंधित व्रत प्रत्याख्यान के सूत्रपाठ पूर्वक व्रतोच्चारण पुष्पादि पदार्थ या सुगंध आदि शुभ शकुन
करावें, वासक्षेप करें। इसकी विस्तृत विधि प्रवज्याविधि, उपधान (4) दिक्शुद्धि- पूर्व दिशा, उत्तर दिशा, जिन चैत्य का सामीप्य, विधि संबंधी ग्रंथों से एवं अभिधान राजेन्द्र कोश से जानना चाहिए।166
जिन चैत्यवाली दिशा का आश्रय करना अर्थात् पूर्वमुखउत्तरमुख या जिनचैत्य, जिन प्रतिमा की ओर मुख करके 166. अ.रा.पृ. 1/417, 418
(जिणवयण
जिणवयणमोदगस्स उ, रत्तिं च दिवा य खज्जमाणस्स । __ तित्तिं बुहो न गच्छइ, हेउसहस्सोवगूढस्स ॥
नरनारयतिरियसुरगण - संसारियसव्वदुक्खरोगाणं । जिणवयणमेगमोसह - मपवग्गसुद्धक्खयं फलयं ॥2॥
- अ.रा.पृ. 2/131
सव्वनदीणं जो होज्ज वालुया, सव्वउदहीण जं उदयं । एत्तोवि अणंतगुणो, अत्थो एगस्स सुत्तस्स ॥1॥
- अ.रा.पृ. 2/131 [ 'सो उ पमाणं सुयहराणं'
तित्थयरे भगवंते, जगजीववियाणए तिलोयगुरु। जो ण करेइ पमाणं, न सो पमाणं सुयहराणं ॥१॥
तित्थयरे भगवंते जगववियाणए तिलोयगुरु। जो उ करेइ पमाणं, सो उ पमाणं सुयहराणं ॥२॥
- अ.रा.पृ. 6/921
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