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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [389] उपासक प्रतिमा 'प्रतिमा' शब्द का वाच्यार्थ : अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने 'पडिमा' शब्द के अन्तर्गत 'प्रतिमा' शब्द के सद्भभाव-स्थापना, बिंब, प्रतिबिंब, जिनप्रतिमा और प्रतिज्ञा - इतने अर्थ बताये हैं।। प्रतिमा के प्रकार : राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने प्रतिज्ञा अर्थवाली प्रतिमा का वर्णन करते हुए प्रतिमा के (1) श्रुतसमाधि प्रतिमा (2) उपधान प्रतिमा (3) विवेक प्रतिमा (4) व्युत्सर्ग/कार्योत्सर्ग प्रतिमा (5) भद्र प्रतिमा (6) सुभद्र प्रतिमा (7) महाभद्र प्रतिमा (8) सर्वतोभद्र प्रतिमा (9) क्षुद्रिका प्रतिमा (10) मोक प्रतिमा (11) यवमध्य चंद्र प्रतिमा (12) वज्रमध्यचंद्र प्रतिमा (13) शय्या प्रतिमा (14) वस्त्र प्रतिमा (15) पाद प्रतिमा (16) स्थान प्रतिमा (17) तप प्रतिमा (18) धर्म प्रतिमा और (19) अधर्म प्रतिमा आदि अनेक भेद बताये हैं। उपासक प्रतिमा : राजन्द्र कोश में उपासक प्रतिमा का वर्णन करते हुए आचार्यश्री ने लिखा है -"उपासते सेवन्ते साधून इत्युपासकाः अर्थात् जो साधुओं की सेवा करते हैं उन्हें उपासक कहते हैं। इसी विषय में आगे कहा है -"उपासकाः श्रावकास्तेषां प्रतिमाः प्रतिज्ञा अभिग्रहविशेषाः उपासक प्रतिमाः।" अर्थात् 'उपासक' श्रावक को कहते हैं और उनके द्वारा की गई अभिग्रह विशेष की प्रतिज्ञा को प्रतिमां कहते हैं। उपासक प्रतिमा और उसके भेद : राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने उपासक प्रतिमा को उपरोक्त प्रतिमा भेदों में से उपधान प्रतिमा के अन्तर्गत सम्मिलित करते हुए लिखा है-".....उपधानं तपस्तत्प्रतिमा उपधान प्रतिमा.....एकादशोपासक प्रतिमाश्चेत्येवंरुपेति।" राजेन्द्र कोश में आगे श्वेताम्बर जैनागमों के अनुसार उपासक प्रतिमा के ग्यारह भेद बताये हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं 1. दर्शन प्रतिमा 2. व्रत प्रतिमा 3. सामायिक प्रतिमा 4. पौषध प्रतिमा 5. प्रतिमा प्रतिमा/दिवा ब्रह्मचर्य रात्रिभोजन त्याग प्रतिमा 6. पूर्ण ब्रह्मचर्य प्रतिमा 7. सचित्त त्याग प्रतिमा 8. आरम्भ त्याग प्रतिमा 9. प्रेषण (प्रेरणा, अनुमति) त्याग प्रतिमा (परिग्रह त्याग) 10. उद्दिष्टवर्जन और 11. श्रमणभूत प्रतिमा। आवश्यक चूणि में रात्रिभोजन परिज्ञा (त्याग) को पाँचवीं, सचित्ताहारपरिज्ञा को छठ्ठी, दिवाब्रह्मचारी-रात्रिपरिमाणकृत-सातवीं, ब्रह्मचर्य आठवीं, सारंभपरिज्ञा नौवी, प्रेष्यारम्भपरिज्ञा दसवीं, उद्दिष्टवर्जन-श्रमणूत को ग्यारहवीं प्रतिमा कहा गया हैं।' दिगम्बर परंपरा में भी उपासक की प्रतिमाएँ तो 11 ही मानी गयी हैं लेकिन उनके क्रम में कुछ भिन्नता है, यथा - (1) दर्शन (2) व्रत (3) सामायिक (4) पौषध (5) सचित्त त्याग (6) रात्रिभुक्ति त्याग (7) ब्रह्मचर्य (8) आरंभ त्याग (9) परिग्रह त्याग (10) अनुमति त्याग (11) उद्दिष्ट त्याग। इस प्रकार प्रथम चार प्रतिमाएँ दोनों परम्पराओं में समान हैं। प्रतिमा प्रतिमा का क्रम श्वेताम्बर परंपरा में पाँचवाँ और दिगम्बर परंपरा में छटुवाँ, ब्रह्मचर्य प्रतिमा का श्वेताम्बर परंपरा में छठा और दिगम्बर परंपरा में सातवाँ तथा सचित्त त्याग प्रतिमा का क्रम श्वेताम्बर और दिगम्बर परंपरा में पाँचवाँ हैं । दिगम्बर परंपरा में रात्रिभुक्ति त्याग को स्वतंत्र प्रतिमा गिना है जबकि श्वेताम्बर परंपरा में पाँचवीं प्रतिमा में उसका समावेश होता हैं। दिगम्बर परंपरा में अनुमति त्याग को अलग प्रतिमा माना है जबकि श्वेताम्बर परंपरा में उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा के अन्तर्गत इसका समावेश किया हैं। दिगम्बर परंपरा में उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा के क्षुल्लक, एलक, एक गृहभोजी, अनेकगृहभोजी आदि अनेक भेद बताये हैं। जबकि, श्वेताम्बर परंपरा में एसे कोई भेद नहीं हैं। (1) दर्शन प्रतिमा : राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने सत्यधर्मरुचिवान्, कदाग्रहकलंक रहित, शुक्लपाक्षिक, कुलाचारपूर्वक अणुव्रत-गुणव्रत-शिक्षाव्रत आदि का पालक, रागादि से निवृत्त होकर पोरिसी आदि का प्रत्याख्यान एवं पर्वतिथि पौषधादि करने पूर्वक भय, लोभ आदि के त्यागपूर्वक शंकादि दोष रहित, प्रशमादि लिङ्गपूर्वक स्थैर्यादि भूषण सह सम्यग्दर्शन का निरतिचार रुप से एक माह तक पालन करनेवाले श्रावक को दर्शन श्रावक कहा है और उसकी इस प्रतिज्ञा विशेष को दर्शन प्रतिमा कहा हैं।10 राजेन्द्र कोश के अनुसार दर्शन श्रावक में आस्तिक्य, देवगुरु की भक्ति, वैयावृत्त्य आदि गुण विशेष रुप से होते हैं ।। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार दर्शन श्रावक मद्य, मांस, मधु, रात्रि भोजन और पाँच उदुम्बर फलों का त्यागी; अरिहंतादि पंच परमेष्ठी की स्तुति, जीवदया, जल गालन (पानी छानकर पीना) - इन आठ गुणों से युक्त होता हैं। भोगों के प्रति उदासीन एवं चलित रस (अचार) आदि का त्यागी होता हैं। साथ ही निन्द्य व्यवसाय का त्यागकर न्यायनीतिपूर्वक व्यापार/व्यवसाय से ही अपने परिवार का भरण-पोषण करता हैं। (2) व्रत प्रतिमा : इस प्रतिमा वाले श्रावक सम्यक्त्वसहित पूर्वोक्त नियमों का पालन करते हुए पाँच अणुव्रतों का निरतिचार पालन करते हैं। तथा तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत का भी पालन करते हैं। श्रावक 1. अ.रा.पृ. 5/332 2. अ.रा.पृ. 5/332 3. अ.रा.पृ. 2/1122 4. अ.रा.पृ. 2/1123 5. अ.रा.पृ. 5/332 वही, अ.रा.पृ. 2/1123, , प्रवचनसारोद्धार 980 7. आवश्यक चूणि 153, प्रवचन सारोद्धार-पृ. 197 से उद्धृत चरित्तपाहुड-गाथा-21 जैनेन्द्र सिद्धांत कोश-2/189 10. अ.रा.पृ. 2/1123, 1130, अ.रा.पृ. 5/333; प्रवचनसारोद्धार-982 II. अ.रा.पृ. 2/1130 12. रत्रकरंडक श्रावकाचार, श्लोक 137, 138; कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा-328 8. 9. Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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