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[390]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन इस प्रकार बारह व्रतों का निःशल्य होकर निरतिचार पालन करता की आठवीं प्रतिमा हैं ।27 आरंभ-विरत श्रावक व्यापार, खेती-बाडी, हैं। उसे व्रत श्रावक और उसकी प्रतिज्ञा को व्रत प्रतिमा कहते हैं। नौकरी आदि सब छोड देता हैं और पूर्व में अर्जित अपनी सीमित (3) सामायिक प्रतिमा :
संपत्ति से ही स्वयं का जीवन-निर्वाह करता हैं ।28 पूर्वोक्त नियमों के पालन सहित व्रती श्रावक तीन महिना (9) प्रेष्य-त्याग प्रतिमा :तक दोनों संध्या (प्रातः -सायं) 32 दोषों से रहित सामायिक करता
पूर्वोक्त नियम सहित नौ महीन तक नौकर-सेवक या पुत्रादि है अर्थात् कम से कम 48 मिनिट तक एक स्थान पर बैठकर सर्वसावध या अन्य कोई से भी किसी भी प्रकार के आरंभ-समारंभ कराने योगों का त्याग कर सामायिक अंगीकार कर सर्व संकल्प-विकल्प का त्याग करना प्रेष्य-परिज्ञा नामक नौंवीं प्रतिमा हैं। छोडकर आत्म-चिन्तन करता हैं, इसे सामायिक प्रतिमा कहते हैं।15 (10) उद्दिष्ट-भक्त परिज्ञा :दिगम्बर परंपरा में आचार्य समन्तभद्रने अपने चारित्रपाहुड नामक ग्रंथ
पूर्वोक्त सभी नियमों के साथ दस महीने तक अपने निमित्त में सामायिक प्रतिमा धारक श्रावक को त्रिसंध्या-सामायिक करने का से बनाये गये आहारादि का त्याग करना श्रावक की दसवीं प्रतिमां हैं। निर्देश किया हैं।
आरंभ-समारंभ और करण-करावण का त्यागी श्रावक जब (4) पौषध प्रतिमा :
उद्दिष्ट भक्त परिज्ञा (त्याग) प्रतिमा को धारण करता हैं तब वह अपने जो धर्म को पुष्ट करता है उसे पौषध कहते हैं। पूर्वोक्त निमित्त से बनाये हुए किसी भी प्रकार के आहार का त्याग कर सभी नियमयुक्त श्रावक अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमाआदि देता हैं। वह क्षुर-मुण्ड अर्थात् शिखा सहित मुण्डन करवाता हैं। पर्वतिथियों के दिन प्राणातिपातादि सर्व सावध का त्याग करके उपवास उदासीन भाव से घर में रहता है परतु उसका अधिकांश समय धर्म सहित पौषध योग्य स्थान पर रहकर आहार, शरीर-सत्कार, अब्रह्मचर्य ध्यान, सामायिकादि में बीतता हैं । गृहकार्य में पुत्रादि किसी के द्वारा
और व्यापार (गृहस्थी संबंधी व्यवहार) - इन चारों के त्याग रुप कोई बात पूछे जाने पर यदि उसे ज्ञात हो तो 'जानता हूँ' - एसा पौषध व्रत अंगीकार कर नियम पूर्वक रहते हैं, उसे पौषध व्रत कहते और ज्ञात नहीं हो तो 'नहीं जानता हूँ' - एसा कहता हैं। हैं।18 श्रावक की चार माह तक इस प्रतिज्ञा के पालन को पौषध (11) श्रमणभूत प्रतिमा :प्रतिमा कहते हैं।"
पूर्वोक्त सभी नियमों के साथ ग्यारह माह तक मुण्डित सिर (5) प्रतिमा (दिवाब्रह्मचर्य-रात्रिभोजनत्याग प्रतिमा :- होना या लोच कराना, पास में रजोहरण (खुल्ली दंडीवाला चरवला) तथा
पूर्वोक्त नियमों के साथ श्रावक स्नान एवं रात्रि भोजन का मुखवस्त्रिका (मुहपत्ती) रखकर साधु के समान जयणापूर्वक वर्तन त्याग करता हैं। दिन में भी अंधकार वाले स्थान में भोजन नहीं और उपाश्रयादि में रहना, आहार के समय अपने कुल, गोत्र या जाति करता है, कच्छ नहीं बांधता है। दिन में ब्रह्मचर्य का पालन करता में ही भिक्षावृत्ति से आहारादि ग्रहण करना और साधुओं की तरह, है और रात्रि में ब्रह्मचर्य का परिमाण (नियम) करता हैं।20 पौषध घर छोडकर समिति-गुप्ति का पालन करते हुए विभिन्न गाँवो में विहार में दिन और रात्रि में कायोत्सर्ग करता हैं। पांच मास तक नियम करना - यह श्रावक की श्रमणभूत नामक ग्यारहवीं प्रतिमां हैं। पालन वाली यह श्रावक की पाँचवीं प्रतिमां हैं। इसके प्रतिमा
13. अ.रा.पृ. 5/333; रत्रकरंडक श्रावकाचार-53, अ.रा.पृ. 2/1131%3B प्रतिमा, नियम प्रतिमा, दिवा ब्रह्मचर्य-रात्रिभुक्ति त्याग प्रतिमा आदि
14. अ.रा.पृ. 2/1131 पंचाशक सूत्र 10 विवरण नाम भी प्रख्यात हैं।
15. अ.रा.पृ. 2/1131, प्रवचन सारोद्धार-983 (6) ब्रह्मचर्य प्रतिमा :
16. चारित्र पाहुड टीका-गाथा 25
17. अ.रा.पृ. 2/1123 उपरोक्त सभी नियमयुक्त श्रावक का छ: माह तक पूर्ण
18. वसुनंदि श्रावकाचार टीका-गाथा 3783; रत्नकरंडक श्रावकाचार-106; प्रवचन ब्रह्मचर्य का पालन करना और कच्छोट लगाना, छट्ठी ब्रह्मचर्य प्रतिमा
सारोद्धार-983,84 हैं।23 रत्नकरंडक श्रावकाचार में भी लिखा है कि, इस भूमिका में 19. अ.रा.पृ. 2/1124 आने पर साधक स्त्रीमात्र के संसर्ग का त्याग कर, शरीर की अशुचिता ___20. क. अ.रा.पृ. 2 /1124 को समझकर काम से विरत होकर यौनाचार का सर्वथा परित्याग कर
ख. वसुनंदि श्रावकाचार गाथा 296; रनकरंडक श्रावकाचार गाथा -
147: प्रवचन सारोद्धार-985, 86, 89 देता है। ब्रह्मचारी बनने के बाद वह खान-पान एवं रहन-सहन
21. साधुप्रतिक्रमण सूत्र - सार्थ, पृ. 20 - ले. श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरि में अधिक सादगीपूर्वक और गृहकार्यों में उदासीन रहता हैं।
22. अ.रा.पृ. 2/1124 (7) सचिताहार त्याग प्रतिमा :
23. वही पूर्वोक्त सभी नियमों का पालन करते हुए सात महीने
24. रत्नकरंडक श्रावकाचार, श्लोक 143; प्रवचनसारोद्धार 988 तक सचित्त (अप्रासुक) आहार-पानी का त्याग करना श्रावक की
25. अ.रा.पृ. 2/1124; प्रवचनसारोद्धार, 989
26. रत्नकरंडक श्रावकाचार, श्लोक 141; कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा 381 सातवीं प्रतिमा हैं। इस प्रतिमा को धारण करनेवाला श्रावक मूल,
27. अ.रा.पृ. 2/1124; रनकरंडक श्रावकाचार, श्लोक 144; प्रवचनसारोद्धार, फल, साग-सब्जी, बीज आदि वनस्पति के किसी भी अंग/अंश
990 को अग्नि से बिना संस्कारित किये नहीं खाता । जल भी उबालकर जैन धर्म और दर्शन, पृ. 278 - ले. मुनि प्रमाणसागरजी ही पीता हैं।26
29. अ.रा.पृ. 2/1134; प्रवचनसारोद्धार 990
30. अ.रा.पृ. 2/1134, प्रवचन सारोद्धार, 991, 992 (8) आरम्भ-त्याग प्रतिमा :
31. - अ.रा.पृ. 2/1136 प्रवचन सारोद्धार-993, 994 पूर्वोक्त नियमों के साथ आठ महिने तक पृथ्वी आदि समस्त
अ.रा.पृ. 333; साधुप्रतिक्रमण सूत्र - सार्थ, पृ. 20, 21 - ले. श्रीमद्विजय जीवों से संबंधित समस्त-आरंभ-समारंभ का त्याग करना, श्रावक यतीन्द्रसूरि
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