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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन चतुर्थ परिच्छेद... [391] श्रमणभूत प्रतिमा धारण करने वाले श्रावक को यदि कोई पूछे कि, "आप कौन हैं?" तब "मैं प्रतिमाचारी श्रमणोपासक (श्रावक) हूँ" एसा कहे। आहार-पानी हेतु यह श्रावक काष्ठ के पात्र एवं मिट्टी का घडा उपयोग में लाता हैं। यह श्रावक जब गृहस्थ के घर में गोचरी वहोरने हेतु (आहार-पानी ग्रहण करने के लिए) प्रवेश करे तब वहाँ साथ में यदि कोई साधु न हो तो 'इस प्रतिमाधारी श्रमणोपासक को भिक्षा दो' -एसा कहे। उसी समय यदि कोई साधु यदि धर्मलाभ कहें तो प्रतिमाधारी श्रावक कुछ भी न कहैं ।33 इस प्रकार श्रमणभूत प्रतिमाधारी श्रावक गाँव-गाँव एक- द्वि-त्रिरात्रि यावत् मासकल्पानुसार विहार करता हैं। इस प्रतिमा का जधन्य कालमान प्राय: एक अहोरात्र कहा है जो कि, प्रतिमाधारी श्रावक का उसी अवस्था में देहत्याग या प्रवज्या/दीक्षा ग्रहण करने की स्थिति में संभव हैं। प्रायः कहने से अन्तमुहूर्तादि काल भी संभव हैं। दिगम्बर परंपरा में श्रमणभूत प्रतिमा की जगह 'उद्दिष्ट-त्याग' प्रतिमा श्रावक की ग्यारहवीं प्रतिमां हैं। इस भूमिकावाला साधक गृह त्यागकर मुनियों के पास रहने लगता हैं तथा भिक्षावृत्ति से अपना जीवन बीताता हैं। इस प्रतिमा के क्षुल्लक एवं एलक दो भेद हैंक्षुल्लक : क्षुल्लक का अर्थ होता है छोटा । मुनियों से छोटा साधक को क्षुल्लक कहते हैं। यह घर छोडकर मुनियों के पास संघ में रहता हैं तथा मुनियों की सेवा सुश्रुषा एवं स्वाध्याय में लगा रहता हैं।15 क्षुल्लक पात्र में और कभी पाणिपात्र में भोजन करता है। प्रायः केशलोंच और कभी कैंची से भी बाल कटवाता है। वस्त्र में लंगोटी और ऊपर एक खंडवस्त्र धारण करता हैं। इस क्षुल्लक के भी दो भेद होते हैं - (1) एक गृहभोजी (2) अनेक गृहभोजी । अनेक गृहभोजी क्षुल्लक भिक्षावृत्ति करके भोजन करता हैं। श्रावकों के घर जाकर 'धर्मलाभ' कहने पर यदि वह श्रावक यदि कुछ प्रासुक आहार दे दे तो वह ग्रहण करता है, अन्यथा बिना किसी विषाद के आगे बढ़ जाता हैं। इस प्रकार पाँच-सात घरों में अपने योग्य पर्याप्त भोजन प्राप्त होने पर गृहपति से पानी मांगकर वहीं बैठकर अपने पात्र में भोजन करता हैं; अपने बर्तन अपने हाथ से साफ करता हैं। और भोजन के पश्चात् गुरु के पास जाकर अगले दिन तक के लिए चारों आहार का त्याग (प्रत्याख्यान) कर देता है। एक गृहभोजी क्षुल्लक मुनियों के आहार के लिए निकलने के बाद चर्या के लिए निकलते हैं। आजकल एक गृहभोजी क्षुल्लक ही मिलते हैं। एलक: एलक उद्दिष्ट त्यागी श्रावक का दूसरा भेद है। यह वस्त्र के रुप में मात्र लँगोटी धारण करता हैं। अपने हाथ में अंजलि बनाकर दिन में एक बार भोजन करता हैं, तथा दो से चार माह के भीतर अपने सिर और दाढी-मूंछों के बालों को उखेडकर केशलोंच करता हैं।38 एलक अपने हाथों में मयूर पंखों की बनी पिच्छिका रखता हैं। प्रतिमाधारी श्रावक के गुण : प्रतिमाधारी श्रावक आस्तिक्य गुणयुक्त, गुरुदेव वैयावृत्यकारी, व्रती, गुणवान, लोकयात्रा, निवृत्त, लोक व्यवहार विरत, अनेक प्रकार से भावित संवेगमति, मोक्षाभिलाषवासित बुद्धिमान् होना चाहिए।" दर्शनप्रतिमाधारक को अन्यमतावलम्बी ब्राह्मण, भिक्षुकादि को अनुकंपादि से तो दान देना योग्य है, परंतु गुरुबुद्धि से नहीं। इसी प्रकार कुलगुरु आदि अन्यलिङ्गी के विषय में भी समझना चाहिए। प्रतिमाधारी श्रावक को सातवीं सचित्त त्याग प्रतिमा तक चन्दन-पुष्पादि से जिन-पूजा करनी उचित हैं। आठवीं प्रतिमा तक तो निरवद्य होने से कर्पूरादि पूजा भी अनुचित नहीं हैं।" प्रतिमा का कालमान : राजेन्द्र कोश के अनुसार एक-एक प्रतिमां में एक-एक महिना बढाने पर इन ग्यारह प्रतिमाओं को बिना व्यधान के अनुक्रम से एक साथ वहन करने का कुल कालमान साढे पाँच वर्ष अर्थात् 66 महीना हैं । प्रतिमा पालन से लाभ : राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने लिखा है कि, जो श्रावक दशाश्रुतस्कंध में वर्णित उपरोक्त विधि के अनुसार ग्यारह उपासक प्रतिमाओं का पालन करता है वह गृहस्थ भी साधु जैसा होता हैं। प्रतिमाधारी गृहस्थ गुणश्रेणी द्वारा असंख्यातगुण विशुद्ध होकर पाप को नष्ट करता हैं। और विशेष शुद्धि को प्राप्त करता हैं।43 32. साधुप्रतिक्रमण सूत्र, पृ. 21 33. अ.रा.पृ. 2/1124 34. अ.रा.पृ. 2/1136 35. रत्नकरंडक श्रावकाचार, श्लोक 147 36. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, 2/189 37. वसुनन्दी श्रावकाचार, श्लोक 301 38. वसुनन्दी श्रावकाचार, श्लोक 311 39. (.....) आस्तिक्य गुरुदेववैयावृत्त्यनियमादिभिगुणैः । अ.रा.पृ. 2/1130 (1....) लोकव्यवहारविरतो लोकयात्रानिवृत्तस्तथा बहुशो अनेकशः संवेगभावितमतिश्च मोक्षाभिलाषवासितबुद्धिस्तथा पूर्वोदितगुणयुक्तो दर्शनादिगुणान्वितो..... -अ.रा.पृ. 2/1134 40. (....) प्रथमश्राद्धप्रतिमायां दर्शनिद्विजादिभ्योऽनुकम्पादिना अन्नादि दातुं कल्पते न तु गुरुबुद्धयेति तत्त्वम् ।।१।। एवं कुलगुर्वादिसम्बन्धेनागतानां लिङ्गिनां दातुं कल्पते । -वही, पृ. 2/1136 41. I....प्रतिमाघर श्रावकाणां सप्तमप्रतिमा यावच्चन्दनपुष्पादिर्हदर्चनमौचित्यं अञचति....कर्पूरादिपूजा तु अष्टम्यादिष्वपि नानुचितेति ज्ञायते तेषां निरवद्यत्वादिति ।-वही पृ. 2/1136 ___42. वही, पृ. 2/1130 43. विधिना दर्शनाद् ध्यानात्, प्रतिमानां प्रपालनम्। यासु स्थितो गृहस्थोऽपि, विशुध्यति विशेषतः ॥ - अ.रा.पृ. 5/332-333, गुत्ती समिइ गुणड्डो, संजमतवनियम कणयकयमउडो । समत्तनाणदंसण, तिरयण संपावियमहग्धो ॥ - अरा.पृ. 7/78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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