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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
अपितु साधु-साध्वियों के लिए उपयोगी जानकर आपने गच्छाचार पन्ना वृत्ति का भी लोकभाषा में भाषान्तर किया जो कि अब प्रकाशित भी हो चुका हैं। इस तरह आप एक सफल भाष्यकार के रुप में पूर्वाचार्यो से कम नहीं थे । सफल निबन्धकार :
आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी एक सफल निबन्धलेखक थे, जिन्होंने काव्य, गीत, कथा, कोश, व्याख्यान, प्रवचन, संशोधन, सम्पादन आदि साहित्य की प्रत्येक विधा पर सफलता पूर्वक लेखनी चलायी। इसके साथ ही आप गद्यसाहित्य की निबन्धविधा में भी सिद्धहस्त थे । आपके लेख समय समय पर तत्कालीन साहित्य में प्रकाशित हुए हैं।
यद्यपि हमें अभिधान राजेन्द्र कोश के अन्तर्गत विभिन्न विषयों पर व्याख्यापरक निबन्धों के अतिरिक्त आपके लेखों में से बहुत कम देखने को मिले तथापि जो प्राप्त हुए उनसे यह अनुभव होता है। कि आपके लेख जैनागमों एवं अन्यान्य शास्त्रों के सारगर्भित प्रमाणों से युक्त थे। जैन पंचांग के निर्माण में आपके द्वारा लिखित लेख तिथि की क्षय वृद्धि सम्बन्धी अनेक समस्याओं का स्वाभाविक समाधान प्रस्तुत करता हैं। इसी प्रकार त्रिस्तुतिक सिद्धान्त पर लिखित शास्त्रार्थों में आपके द्वारा लिखित लेख सर्वमान्य, जैनागमों से प्रमाणित एवं विद्वज्जनों में स्वीकार्य थे जो कि आज भी प्रसिद्ध हैं । इतिहासकार:
धर्म-दर्शन और अध्यात्म से रचे-पचे व्यक्तित्व के स्वामी आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर जी म.सा. एक सफल इतिहासकार थे । आपके द्वारा रचित अभिधान राजेन्द्र कोश में आपने अनेक ऐतिहासिक घटनाओं का सरल संस्कृत भाषा में वर्णन किया है, वहीं श्री कल्पसूत्र बालावबोध, श्री अष्टाह्निका व्याख्यान में वर्णित अनेक जैन- जैनेतर कथाओं का वर्णन भी किया है जिसके माध्यम से अनेक राजामहाराजा-जैनाचार्य-जैन तीर्थ- जैनेतर तीर्थ ( महाकाल - उज्जैन, प्रयागादि) - अनेक प्राचीन जिन प्रतिमा एवं ऐतिहासिक घटनाओं के प्रामाणिक इतिहास का ज्ञान मिलता है।
बृहद् एतिहासिक लेखन के साथ ही पञ्चसप्ततिशतस्थान चतुष्पदी एवं विशंति विहरमान जिन चतुष्पदी में तो अपने गागर में सागर ही भर दिया हैं। इन लघुकाय ग्रंथों में वर्तमान, अतीत, अनागत एवं विहरमान जिनेश्वरों संबंधित एतिहासिक विवरणों का अनुपम संग्रह किया है। इतना ही नहीं अपितु आपने खर्परतस्कर प्रबंध, अक्षयतृतीया कथा, होलिका प्रबंध आदि अनेक एतिहासिक कथा लेखन भी किया हैं ।
नीतिकार :
आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी का नीतिशास्त्र पोथियों का नीतिशास्त्र नहीं था बल्कि जीवन का जीवन्त धर्मशास्त्र था । यद्यपि आपने नीति विषयक कोई बृहद् ग्रंथ नहीं लिखा तथापि नीति विषयक आपकी जो भी रचनाएँ प्राप्त होती है उसमें आपका दूरदर्शी दिव्य ज्ञानालोक से निष्पन्न युग सापेक्ष अमूल्य चिंतन प्राप्त होता है, जो भव्य और दिव्य आध्यात्मिक अनुभवों का सृजन, आत्म विकास का मंडन, झूठे आडम्बरों और पाखण्डों का खण्डन तथा जीवननिर्माण एवं लोककल्याण का अद्भूत संगम हैं।
आपके द्वारा रचित "नीति शिक्षा द्वय पच्चीसी' नामक दो पच्चीसियों में सामान्य गृहस्थ से लगाकर उच्च पदासीन आत्माओं को
प्रथम परिच्छेद ... [31]
भी पालन करने योग्य महत्त्वपूर्ण शताधिक बातों का संग्रह किया गया है । क्रियोद्धार के पूर्व आपके द्वारा घोषित 'कलमनामा' ही यति संस्था
कायाकल्प करने वाला संजीवनी चूर्ण साबित हुआ। साथ ही आपके द्वारा स्वगच्छीय साधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविका हेतु 'स्वगच्छीय 'मर्यादा - पट्टक', ज्येष्ठ स्थित्यादेशपट्टक, पच्चीस कलम, 35 कलम आदि की रचना नीति - मर्यादा के पालन के प्रति आपकी जागृति एवं आचार-पालन की आसक्ति का अनुभव करवाती हैं । आशु कवि:
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आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी वि.सं. 1906 से 1910 तक पाँच वर्ष खरतरगच्छीय यति / मुनि श्री सागरचन्द्रजी के पास के अध्ययन काल में ही काव्य- छंद - अलंकार आदि में निपुण हो चुके थे।
संगीत शास्त्र एवं अन्य शास्त्रों के प्रखर विद्वान् आचार्य श्री स्वभाव से ही रस-सिद्ध कवि थे। आपके द्वारा निर्मित दो चैत्यवंदन चौबीसी, स्तुति चौबीसी, स्तवन चौबीसी, श्री नवपद एवं श्री महावीर पञ्चकल्याणक पूजा, अघटकुंवर चौपाई एवं अनेकों अन्य स्तवन- स्तुति - सज्झाय, देववंदना माला आदि इसके साक्षी हैं।
इनकी रचनाओं में हरिगीत, गीतिका, मंदाक्रान्ता, वसंततिलका, स्रग्धरा, भुजंगप्रयात, शार्दूलविक्रीडित, आर्या, दोहा, चोपाई आदि छंद एवं काफी, भैरवी, हिंडा, माढ, धन्याश्री आदि शास्त्रीय रागरागिनी तथा अनेकों देशी राग-रागिनियों का प्रयोग देखने मिलता हैं। इन रचनाओं में यति, गति, ताल, स्वर, प्रास, अनुप्रास, यमक आदि यथास्थान अद्भुत ढंग से रखे हुए दिखाई देते हैं। साथ ही इनमें उपमा, रूपक, व्याज - स्तुति आदि अनेक अलंकारों का प्रयोग प्राप्त होता है। इनकी रचनाओं में प्राकृत, संस्कृत, मेवाडी, मारवाडी, गुजराती आदि सभी भाषाएँ प्रयुक्त हैं।
इन रचनाओं से इन्होंने अपना अमूल्य समय प्रभु-भक्ति में लगाकर स्वयं की तो कर्म-निर्जरा की ही है, साथ ही अर्थ गंभी और आध्यात्मिक भावपूर्ण इन रचनाओं से श्रोताओं को आवश्यक क्रियाओं एवं जैनागम सिद्धांतों की अनेक रहस्यमयी सूक्ष्म बातों का ज्ञान मिलता हैं।
इस तरह भक्ति योग के द्वारा आचार्यश्रीने प्रभुभक्ति और जिनवाणी का प्रचार-प्रसार एवं उपदेश का त्रिवेणी संगम अपनी रचनाओं में किया है जो उनके द्वारा प्राप्त ज्ञानामृत का आस्वाद कराती हुई श्रोताओं को परमात्म भक्ति में आकंठ डुबोये रखती हैं ।
आचार्यश्री के जीवन में घटित वि.सं. 1920 की एक घटना इनके आशु कवित्व को सिद्ध करने को पर्याप्त है जो निम्नानुसार हैं।
वि.सं. 1920 में आप राजगढ में बिराजमान थे तब कोई कवि आया। उसने चित्रबंधक का एक कवित्त बनाया। और अहंकार से स्व-प्रशंसा करने लगा तब अन्य लोग भी प्रशंसा के पुल बांधने लगे। उसी समय आपने कवित्त देखकर कहा कि इसमें "वर्णनलघुता दोष' है। तब वहाँ उपस्थित श्रीपूज्यजीने कहा - "अन्य की गलती ढूंढना आसान है, आप कुछ करके दिखाओ तो ठीक।" उसी समय आपने एक कवित्त बनाया, जिसमें आठों दिशा में आठ छंद, दो काव्य, चारों दिशा में चार विचार, और 34 कोष्ठक थे। जिसे देखकर आगंतुक कवि, श्रीपूज्यादि यतिमण्डल, राजगढ का श्रीसंघ एवं अन्य उपस्थित सभाजन आश्चर्यचकित हो गये थे । 187
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श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि का रास, उत्तरार्ध खंड-4, ढाल - 3, पृ. 26, ले. रायचंदजी निवासी: कुक्षी (म. प्र. )
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