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________________ [30]... प्रथम परिच्छेद की स्तवना / भक्ति के माध्यम जैन दार्शनिक सिद्धान्तों का वर्णन एवं इतर दर्शनों का खण्डन द्रष्टव्य हैं। इतना ही नहीं अपितु 'तत्त्वविवेक' नामक लघुग्रंथ में भी आपश्रीके द्वारा जैनदर्शनानुसार सुदेव-सुगुरुसुधर्म का स्वरुप भी विशद विवेचनपूर्वक लोकभोग्य सरल भाषा में समजाया गया हैं। अद्वितीय चिन्तकः अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन कथाकार: अध्यात्म प्रधान जैन संस्कृति के प्रतिभा संपन्न मूर्धन्यमनीषियों और महर्षियों के चिन्तन और मनन की अन्तः सलिलाओं ने भारतीय मानस को सदैव उर्वर और प्रकाशपूर्ण बनाकर चिरन्तन एवं सनातन सत्यों का उद्घाटन किया है। इसी कडी में आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के आध्यात्मिक जागरण ने जैनागम प्राचीन 'त्रिस्तुतिक सिद्धांत का पुनरुद्धार', 'श्वेत वस्त्र धारण', 'क्रियोद्धारपूर्वक शुद्ध साधुजीवन का अंगीकार', 'चिरोलापंथी श्रावकों का पुनर्जातिमिलन आदि अनेक ऐतिहासिक कार्य कर सामाजिक क्रांति के इतिहास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया हैं। आपके द्वारा रचित 'नीति शिक्षा द्वयपच्चीसी', 108 बोलनां थोकडां, सिद्धांतसार सागर (बोल संग्रह) आदि आपके सार्थक चिंतन का प्रतिनिधित्व करते हैं। इतना ही नहीं स्वगच्छीय साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका की आगमोक्त विधि से नित्य - नैमित्तिक आवश्यक क्रियाओं, द्रव्यानुष्ठान और भावानुष्ठान में आई विकृतियों का शोधन, कलमनामा, मर्यादापट्टक, अनेक शास्त्रार्थों एवं धर्मचर्चाओं में वादी के प्रश्नों का शास्त्रोक्त उत्तर ये सब आप ही के अध्ययन-अध्यापन, स्वाध्याय, चिन्तन-मनन आदि का सुफल हैं। आचार विचार को प्रभावित करने वाले जीवन के स्वानुभवों पर आधारित, रहन-सहन और विवाद, कदाग्रह एवं जाति-पाँति के भेदभाव से पूर्णतया मुक्त आपके सच्चितन का ही सुफल है कि जैन - जैनेतर, देशी-विदेशी, गृहस्थी - वनस्थी, राजा-रंक, स्त्री-पुरुष, आबाल-वृद्ध, साक्षर निरक्षर सभी जो भी आपके सम्पर्क में आया, जिसने भी आपका साहित्य पढा, आपसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। यही कारण है कि विद्वज्जगत् ने आपको 'विश्वपूज्य' सम्बोधन दिया। आकर्षक प्रवचनकारः आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी केवल लेखन कला में ही प्रवीण नहीं थे, आपके प्रवचन भी अत्यन्त प्रभावी होते थे । आपकी वाणी विद्याजन्य परिस्कार, साधनाजन्य ओज, स्नेहिल मार्दव एवं भाषाकीय मधुरता से ओतप्रोत थी । देशी एवं विदेशी अनेक भाषाओं के मर्मज्ञ विद्वान होने के बावजूद आप शास्त्रों में निहित गूढ तत्त्वों को अत्यन्त सरल शब्दों में व्यक्त कर जन मानस तक पहुँचाते थे। आपकी पीयूषवाणी में "आत्मवत् सर्वभूतेषु" की भावना साकार होती थी । निरपेक्ष भावों की पावन गंगा के प्रवाह में 'सर्वजनहिताय' सर्वजनसुखाय' की लहरें प्रस्फुट होती थी तथा समन्वयता का महासागर उछलता था जो अपनी मर्यादा की महानता में, जैनाचार और साध्वाचार की सीमाओं में बँधा होने पर भी सभी मतावलम्बियों को अपने में समा लेने की क्षमता रखता था। यही कारण है कि आपके प्रवचनों में मात्र जैन ही नहीं, अपितु अन्यमतावलम्बी क्षत्रिय, चौधरी, घांची, सोनी, कुम्हार, मुसलमान एवं अन्य देशी और विदेशी लोग उपस्थित होकर प्रवचनामृत का पान किया करते थे। Jain Education International अति विशाल एवं नानाविध जैन कथा साहित्य की प्रथा अति प्राचीन हैं। साहित्य की इस विधा पर भी आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी का पूरा अधिकार था। आप श्री प्रवचनो में छोटीछोटी कथाओं एवं बडे-बडे चरित्रों को अत्यधिक सरल, सुबोध भाषा में समझाते थे; वहीं अनेक कथासंग्रह एवं कथाएँ लिखकर आपने भारतीय साहित्य को भी समृद्ध किया हैं। आपके द्वारा लिखित 'जिनोपदेशमञ्जरी' छोटी-छोटी उपदेशक कथाओं का संग्रह है। कथापञ्चस्थानसार पाँच विभिन्न कथाओं का संग्रह हैं। इसके अलावा आपने पद्य में अघटकुँवर चौपाई, ध्रस्टर चौपाई और मुनिपति चौपाई में उपदेशक कथाओं का रोचक शैली में गेय राग-रागिनी में वर्णित किया है। इसके साथ ही अक्षयतृतीया कथा, होलिका व्याख्यान, दीपमालिका कथा (दीपावली कल्पसार), उत्तमकुमार उपन्यास एवं खर्परतस्कर प्रबंधः आदि कथानक संस्कृत एवं देश्य भाषाओं में लिखे हैं। इतना ही नहीं, अपितु आपके द्वारा रचित श्री अभिधान राजेन्द्र कोश यदि पञ्चशताधिक प्राचीन एवं उपयन कथाओं का अमूल्य खजाना है तो कल्पसूत्रबालावबोध, कल्पसूत्रार्थप्रबोधिनी और श्री अष्टाह्निका व्याख्यान में भी प्रसंगतः अनेक ऐतिहासिक एवं उपदेशक तथा दृष्टांत कथाओं का आपने समावेश किया हैं । कथाओं में शब्दो के माध्यम से हुबहु दृश्य खड़ा कर पाठकों या श्रोताओं को आध्योपांत आकंठ डुबोये रखना एवं उनके अंतः स्थल में उपदेशामृत अनुभव करवाना आपकी कथाओं की मुख्य विशेषता है। भाष्यकार: 'भाष्य' का अर्थ होता है- व्याख्या करना और भाष्यकार का अर्थ होता है व्याख्या करनेवाला । शास्त्रों के मूलग्रंथों के रहस्य एवं गूढ बातों को विविध व्याख्याओं के द्वारा स्पष्ट करने वाला ग्रंथ उस का भाष्य कहलाता है। प्राचीनतम जैन व्याख्यात्मक साहित्य में आगमिक व्याख्याओं का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान हैं। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने भी पूर्वाचार्यों के पथ पर चलते हुए लोकहित के लिए जैनागमों की अनेक रहस्यमयी बातें सरल भाषा में समझाने के लिए प्रयत्न किया। जिस युग में हिन्दी अपनी शैशवावस्था में भी उसी समय में आपने श्री कल्पसूत्र मूल (बारसा सूत्र) के आधार पर श्री कल्पसूत्र बालावबोध (मारवाडी-गुजराती-मालवी मिश्रित भाषा देवनागरी लिपि) एवं श्री उपासक दशांग सूत्र के बालावबोध की रचना की । इसके साथ ही जैनागम सूत्रों के शब्दों के रहस्यों को समझाने के लिए ही अभिधान राजेन्द्र कोश जैसे महान अद्वितीय विश्वकोश की रचना की। साथ ही प्राकृत भाषा के ज्ञान हेतु श्री सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन के आठवें अध्याय- प्राकृत व्याकरण की सदृष्टांत वृत्ति सह श्लोकों में निबद्धकर 'प्राकृत-व्याकृति' की रचना की। इतना ही नहीं, अपितु आम जनता को भी शास्त्र की गहन रहस्यमयी आध्यात्मिक बातें समझायी हैं। जैसे 'चोपड खेलन सजझाय' में जीव को मिथ्यात्व से मोक्ष प्राप्ति तक आत्मिक स्थिति की शुद्धि की प्रेरणा की है तो 'पुंडरिकाध्ययन सज्झाय' में सूत्रकृताङ्ग सूत्र के पुंडरिकाध्ययन में वर्णित मधुबिंदु के दृष्टांत को चार पुरुष और पुंडरीक (कमल) के माध्यम से समझाकर जीव को राग द्वेष, कषाय, कर्म आदि से सावधान रहने का उपदेश दिया हैं। इतना ही नहीं, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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