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[140]... तृतीय परिच्छेद
संतकज्जवाय - सत्कार्यवाद (पुं.) 7/128
उत्पत्ति के पहले कार्य है (सत् कार्यम्) - इस प्रकार के वाद को 'सत्कार्यवाद' कहते हैं । संसय - संशय (पुं.) 7/250
अनिश्चित, अनिर्धारित या चलायमान अर्थज्ञान को 'संशय' कहते हैं ।
सज्झ - साध्य (त्रि. )
अनुमान के प्रकरण में साधन के द्वारा सिद्ध करने योग्य पदार्थ को 'साध्य' कहते हैं । सत्तभंगी - • सप्तभङ्गी (स्त्री.) 7 / 315
एक ही वस्तु में एक एक धर्म के पर्यनुयोग (जिज्ञासा) के कारण बिना किसी विरोध के अर्थात् बिना किसी बाधा के अलगअलग और समुदित विधिरुप और निषेधरूप कथनों की कल्पना के द्वारा 'स्यात्' पद से चिह्नित सात प्रकार से वाणी का प्रयोग 'सप्तभङ्गी' कहलाता हैं ।
जैन शासन इसी नय के द्वारा संसार की समस्त चेतन अचेतन वस्तुओं का निर्णय करता हैं- विशेषतः नवं तत्त्वों का अधिगम (ज्ञान) प्रमाण और नय के द्वारा होता है। जिसमें तत्त्वों का संपूर्ण रुप से ज्ञान हो, वह प्रमाणात्मक अधिगम है, और जिसके द्वारा इनके केवल एक देश का ज्ञान हो वह नयात्मक अधिगम हैं। 101
एकस्मिन् वस्तुनि प्रश्नवशाद् दृष्टेनेष्टेन च प्रमाणाविरुद्धा विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभंगी विज्ञेया 104
अविरुद्ध नाना धर्मो का निश्चय ज्ञान सप्तभङ्गीनय के ज्ञात वाक्यों द्वारा होता हैं। संशय हो सकता है कि इस नय के सात ही वाक्य क्यों है, अधिक या न्यून क्यों नहीं ? तो उत्तर है कि जिज्ञासु को किसी वस्तु के निश्चय करने में सात संशयों से अधिक नहीं हो सकते, इसलिये इस नय में सात वाक्य हैं, जो इन सात संशयों के निवारक हैं। इस नय के सात भंग ये हैं
1. स्यादस्ति घटः स्यात् घट है ।
2. स्यान्नास्ति घटः स्यात् घट नहीं है ।
3. स्यादस्ति नास्ति च घटः, स्यात् घट है और नहीं भी है ।
ये दोनों भेद सप्तभंगीनय में विधि और निषेध की प्रधानता से होते हैं, अतः यह नय प्रमाणसप्तभंगी और नयसप्तभंगी दोनों कहलाता हैंसप्तानां भंगानां वाक्यानां समाहारः समूहः सप्तभंगी । 102
सप्तभिः प्रकारैः वचनविन्यासः सप्तभंगीति गीयते । 103
अर्थ
4. स्यादवक्तव्यो घटः, स्याद् घट अवक्यव्य है, अर्थात् ऐसा है कि उसके विषय में कुछ कह नहीं सकते ।
5. स्यादस्ति चावक्तव्यश्च घटः स्यात् घट है और अवक्तव्य भी है।
इन वाक्यों में ‘स्यात्' शब्द अनेकान्त रुप अर्थ बोधक है। इस के प्रयोग से वाक्य में निश्चयरुप एक अर्थ ही नहीं समझा जाता है, बल्कि उसमें जो दूसरे अंश मिले हुए हैं उनकी ओर भी दृष्टि पडती हैं। इन वाक्यों में 'अस्ति' शब्द से वस्तु में धर्मो की स्थिति सूचित होती हैं । यह स्थिति अभेदरूप आठ प्रकार से हो सकती हैं
संबन्ध
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
6. स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च घटः
स्यात् घट नहीं है और अवक्तव्य भी है।
7. स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्यश्च घटः स्यात् घट है, नहीं भी है और अव्यक्तव्य भी है ।
के पुनः कालादयः? इतिचेदुच्यते । कालः, आत्मरुपं, अर्थ, सम्बन्धः, उपकारः, गुणिदेशः, संसर्ग, शब्दः इति । 105 अर्थात्
(1) काल (5) उपकार प्रत्येक स्थिति का उदाहरण - काल
(3) अर्थ (7) संसर्ग
(4) संबन्ध (8) शब्द
:
आत्मरुप
:
:
:
(2) आत्मरुप (6) गुणिदेश
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घट में जिस काल में अस्तित्व धर्म है उसी काल में उसमें पट-नास्तित्व अथवा अवक्तव्यत्वादि धर्म है । इसलिए तत्त्व में इन सब अस्तियों की एक समय ही स्थिति है, अर्थात् काल के द्वारा अभेद स्थिति हैं ।
जैसे घट अस्तित्त्व का स्वरुप है वैसे ही वह और धर्मो का भी स्वरुप है उसमें अस्तित्व के सिवा और धर्म भी हैं। वे धर्म जिस स्वरुप से घट में रहते हैं, वही उनका आत्मरुप हैं ।
जो घट रुप द्रव्य पदार्थ के अस्तित्व धर्म का आधार है, वही घट द्रव्य अन्य धर्मो का भी आधार है । (अखण्ड पूर्ण द्रव्य को अर्थ कहा जाता है) ।
अभेदरूप अस्तित्व का घट के साथ जो स्यात् संबन्ध है, वही स्यात् संबन्ध रुपादि अन्य सब धर्मो का भी घट के साथ है | अतः सम्बन्ध की दृष्टि से भी अस्तित्व और अन्य गुणों में अभेदवृत्ति हैं ।
101 प्रमाणनयैरधिगमः । - तत्वार्थसूत्र 1/6
102. तत्वार्थराजवार्तिक 1/6/51
103. अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिशिका कारिका 23 पर स्याद्वादमञ्चरी टीका
104. तत्वार्थराजवार्तिक 1/6
105. सप्तभंगतरंगिणी पृ. 33
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