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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [139] वाद (य) - वाद (पुं.) 6/1075 चर्चा, विकथन, स्वदर्शन स्थापनारुप पूर्वपक्ष और पञ्चवयव, त्र्यावयव वाक्य के द्वारा प्राप्त छलजातिरहित भूतान्वेषण समर्थन को 'वाद' कहते हैं। __ अभिधानराजेन्द्र में भिन्न-भिन्न ग्रंथो के सूत्र एवं श्लोकों को उद्धृत करके उनका विशेष विवेचन किया हैं । समग्र विवेचन में वाद का लक्षण, जिगीषु का लक्षण, वाद के अंग, वादी-प्रतिवादी के लक्षण और कर्म, सभ्य का स्वरुप और उनके कर्तव्य, सभापति का स्वरुप और उसके कर्तव्य, वाद की सीमा, शुष्कवाद-विवाद-धर्मवाद भेद से त्रिविध भेद एवं स्वरुप बताते हुए एकान्तवाद में दूषण स्पष्ट किये गये हैं। अन्त में किसी के मत को दूषित न करने का उपदेश दिया गया हैं। समग्र विवेचन अत्यन्त विस्तार से दिया गया हैं, अत: जिज्ञासु को वहीं देखना चाहिए। विकप्प - विकल्प (पं.)6/1127%; विगप्प-विकल्प (पं.)6/1136 भेद, प्रकार, अध्यवसाय मात्र, चित्तविभम्र, अवस्तु विषय में शब्द बुद्धि, शब्द ज्ञान का अनुपाती वस्तुशून्य अर्थ, शब्दार्थ, बहुतों में अनेक समुदायि भेद के अवधारण को 'विकल्प' कहते हैं । विणयवादि (ण) - विनयवादिन् (पुं.) 6/1184 जो केवल विनय रुप क्रिया से ही साध्य की सिद्धि को इच्छते हैं, उन्हें 'विनयवादी' कहते हैं। विणाणवाइ - विज्ञानवादिन् (पुं.) 6/1187 नीलादि शेषविकल्पशून्य पारमार्थिक रागादि वासनाविशेष रहित बोध (ज्ञान) लक्षण के प्रतिपादक 'बौद्धों' को 'विज्ञानवादी' कहते हैं । यहाँ पक्ष-प्रतिपक्ष के तर्कपूर्वक स्याद्वादमञ्जरी के अनुसार विज्ञानवाद का खंडन भी किया गया हैं। विप्परियास - विपर्यास 6/1196 तत्त्व में अतत्त्व और अत्त्व में तत्त्व का अभिनिवेश, हित में अहित की बुद्धि, जन्म, जरा-मरण-रोग-शोकादि उपद्रव, अनेक प्रकार से परिभ्रमण, अब्रह्मचर्य और पर्यायान्तर को 'विपर्यास' कहते हैं । विभज्जवाय - विभज्यवाद (पुं.) 6/1201 विभज्यवाद अर्थात् स्याद्ववाद । सर्वत्र अस्खलित अविसंवादी लोक व्यवहार के द्वारा सर्वव्यापी स्वानुभव सिद्ध कथन (वाद) को अथवा सम्यग् अर्थ को विभाग/पृथक्/अलग करके कहना - 'विभज्यवाद' कहा जाता हैं। विरुद्ध - विरुद्ध (त्रि.)6/1230 दर्शनशास्त्र में 'विरुद्ध' शब्द हेत्वाभासभेद के लिए प्रयुक्त है । साध्य के विपर्यय से ही जिसकी अन्यथानुपपत्ति निश्चित की जाये उसे विरुद्ध कहते हैं । अर्थात् साध्य के विपर्यय से, अविनाभूत हेतु साध्याविनाभाव भ्रान्ति के कारण प्रयुक्त किया जाता है तब वह विरुद्ध नामक हेत्वाभास होता है। जैसे पुरुष या तो नित्य ही है अथवा अनित्य ही है, प्रत्यभिज्ञानादिमान् होने से । इस उदाहरण को स्पष्ट करते हुए आचार्यश्रीने विरुद्ध हेत्वाभास के चार भेदों को भी सोदाहरण समझाया हैं। विवक्ख - विपक्ष (पुं.) 6/1233 विवक्षित वस्तु धर्म के विपरीत धर्म को, विरुद्ध पक्ष को, और साध्यादि के विपर्यय को 'विपक्ष' कहते हैं। विवाय - विवाद (पुं.) 6/1237 विरुद्ध वाद, विप्रतिपत्ति से युक्त वचन, क्रोध कषाय, वाक्कलह तथा लब्धि, ख्याति के लालची अनुदारचित्त मनुष्यों के द्वारा छल जाति युक्त वाद को 'विवाद' कहते हैं । यहाँ पर विवाद के भेद बताकर विवाद के दोषों का वर्णन किया गया हैं । विसेस - विशेष (पुं.)6/1264 द्रव्य के सामान्यविशेषात्मक होने से वैशिषिकोक्त विशेष पदार्थ का स्वरुप एवं खंडन तो 'जाति' शब्द के अन्तर्गत दिया गया हैं। किन्तु यहाँ पर जैन सिद्धांत सम्मत विशेष का विवरण करते हुए उसके दो भेद किये गये हैं; अन्त्यविशेष - जो सकल साधारणरुप हैं और अनन्त्यविशेष अर्थात् अवान्तरविशेष । वीमंस - विमर्श (पुं.) 6/1331 ___ ईहा को, यथावस्थित वस्तु स्वरुप के निर्णय को और क्षयोपशम विशेष से स्पष्टरुप से सद्भूत अर्थविशेष के अभिमुख, व्यतिरेक धर्म के त्याग और अन्वय धर्म के अत्यागपूर्वक अन्वय धर्म के विचार को 'विमर्श' कहते हैं। वैसेसिय - वैशेषिक (पुं.) 6/1465 'विशेष' नामक पदार्थ के प्ररुपक कणाद ऋषि के शिष्य को वैशेषिक कहते हैं। यहाँ वैशेषिकोक्त सत्ता पदार्थान्तर है, सत् पदार्थो में भी सत्ता क्वचित् किसी-किसी में रहती हैं, ज्ञान आत्मा से भिन्न और औपाधिक है, मुक्ति (मोक्ष) ज्ञान और आनंदमय नहीं है- इन सिद्धांतो का खंडन स्याद्वादमञ्जरी को उद्धृत करते हुए किया गया हैं। संतअसंतकज्जवाय - सदसद्कार्यवाद (पुं.) 7/128 उत्पत्ति के पहले कथंचित् असत् और कथंचित् सत् कार्य के उत्पादक वाद को 'सदसद्कार्यवाद' कहते हैं (7/128) (अत्तछठ्ठ शब्द -1/502) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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