________________
[138]... तृतीय परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
भूयवाद - भूतवाद (पुं.) 5/1600; भूयावाद - भूतवाद (पुं.) 5/1601
अनुगत-व्यावृत्त, अशेष-विशेष, सभेद-प्रभेद सहित समग्र सद्भूत पदार्थ या प्राणी संबन्धी वाद 'भूतवाद' कहलाता हैं। मण - मनस् (नपुं.) 6/74
'मण' शब्द का संस्कृत रुपान्तर 'मनस्' हैं। संस्कृत में 'मण' शब्द मान विशेष (तौल) के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
'मनस्' शब्द दर्शनशास्त्र में प्रयुक्त है। जिसके द्वारा जाना जाय/बोध किया जाय/मनन किया जाय उसे 'मन' कहते हैं। अभिधानराजेन्द्र में 'मनस्' शब्द के अन्तर्गत आत्मा और मन का पार्थक्य, मन की अप्राप्यकारिता, द्रव्य मन और भाव मन-ये दो भेद, मन की देहमात्रव्यापिता एवं विपक्ष का खंडन, द्रव्य मन की बहिर्गति, मन के व्यञ्जनावग्रह न होना-इन विषयों का पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष सहित विस्तृत विवेचन किया गया हैं। मयंतर - मतान्तर (नपुं.)6/106
रागादि रहित होने से जिनेश्वरों का मत अविरुद्ध और एक ही होता है। एक ही विषय में एक आचार्य के मत से विरुद्ध दूसरे मत को 'मतान्तर' कहते हैं। जैसे युगपत्केवलदर्शन और केवलज्ञान के उपयोग में सिद्धसेन दिवाकर और जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का मत ।
यह मतभेद/मतान्तर आचार्यों के अलग अलग वाचना, सम्प्रदायादि दोषों के कारण होते हैं। माउयाणुओग - मातृकानुयोग (पुं.) 6/285
उत्पाद-व्यय-ध्रुव लक्षणा त्रिपदी के अनुयोग को 'मातृकानुयोग' कहते हैं। मियप्पवाद - मितात्मवाद (पुं.) 6/235
"आत्माएँ सीमित है, अतः आत्मा मोक्ष में जाकर पुनः संसार में जन्म लेती हैं" -इस प्रतिज्ञा पूर्वक किये जानेवाले वाद को 'मितात्मवाद' कहते हैं। मियावादि - मितवादिन् (पुं.) 6/286
परिमित अक्षर बोलकर वाद करनेवालों को 'मितवादी' कहते हैं मूलपयत्थ - मूलपदार्थ (पुं.)6/377
कणाद ऋषि परिकल्पित द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय रुप छ: पदार्थों को 'मूल पदार्थ' कहते हैं। मोक्ख - मोक्ष 6/431
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री सर्वथा त्याग, अत्यन्त अलग भाग, मुक्ति, संसार के प्रतिपक्ष रुप, दुःख का नाश, कृतकर्मनाश, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र के द्वारा कर्म का अत्यन्त नाश, जीव के रागादि एवं रोगादि दुःखों के क्षयरुप अवस्थाविशेष, सर्वकर्मनाश और आत्मा के स्वाभाविक स्वरुप की प्राप्ति को 'मोक्ष' कहते हैं। यहाँ पर आचार्यश्रीने 'मोक्ष' तत्त्व का जैन दर्शन सम्मत विस्तृत विवेचन तो किया ही है साथ ही अन्य दर्शन सम्मत 'मोक्ष' के अन्यदर्शनमान्य स्वरुप का खंडन भी किया हैं। लक्खण - लक्षण (नपुं.)6/591
जिस चिह्न द्वारा पदार्थ का बोध होता है, जो पदार्थ का स्वरुप है, उसे लक्षण कहते हैं। यहाँ पर आचार्यश्रीने नाम लक्षण, स्थापना लक्षण, द्रव्य लक्षण, सामान्य लक्षण, उत्पाद लक्षण, विगम लक्षण, नाश लक्षण, वीर्य लक्षण
और भाव लक्षण का विस्तृत वर्णन किया है, साथ ही विनाशवादी सौगतों का खंडन भी किया हैं। लिंग - लिङ्ग (नपुं.) 6/656
जिस विशेषण (चिह्न) के द्वारा अतीन्द्रियार्थ या परोक्ष पदार्थ या विषय का ज्ञान होता है, उसे 'लिङ्ग' कहते हैं।
यहाँ साधु के बाह्यवेशरुप लिङ्ग का स्वरुप एवं उसके महत्त्व की विस्तृत चर्चा की गई हैं। लोगायत - लोकायत (नपुं.) 6/750
प्रत्यक्ष मात्र प्रमाणवादी, जडमात्र पदार्थवादी बृहस्पति के मत (सिद्धांत, शास्त्र) को 'लोकायत' कहते हैं। वइसेसिय - वैशेषिक (पुं.) 6/764
_ 'विशेष' नामक अतिरिक्त पदार्थ के प्ररुपक कणाद शिष्य को और उनके सिद्धांत (शास्त्र, दर्शन, मत) को 'वैशेषिक' कहते हैं । वत्तव्वया - वक्तव्यता (स्त्री.)6/831
अध्ययनादि में प्रति अवयव के यथासंभव प्रतिनियत अर्थ कथन को 'वक्तव्यता' कहते हैं। यहाँ स्वसमय, परसमय और स्वसमयपरसमय -इन तीनों भेद से 'वक्तव्यता' का वर्णन किया गया हैं। वत्थु - वस्तु (न.) 6/879; वास्तु (न.) 6/880
जो रहता है वह, द्रव्य, पदार्थ, जिसमें गुण रहते हैं, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त द्रव्य, पूज्यपुरुष को किये गये नमस्कार, पूर्वान्तर्गत अध्ययन स्थानीय ग्रंथ विशेष, जिसमें साध्य-साधन धर्म रहते हैं वह, पक्ष आदि अनेक अर्थो में 'वस्तु' शब्द प्रयुक्त हैं। साथ ही यहाँ पर मकान के खात आदि के विषय में 'वास्तु' अर्थ में भी 'वस्तु' शब्द प्रयुक्त हैं । वाइ (ण) - वादिन् (पु.) 6/1054
वादी, प्रतिवादी, सभ्य, सभापति रुप चतुरङ्ग सभा में प्रतिक्षेपपूर्वक स्वपक्ष की स्थापना के लिए जो अवश्य बोलता है, उसे 'वादी' कहते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org