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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [137] वर्तन 'परिणाम' कहलाता हैं। यहाँ जीवाजीव, गति, पुद्गल और उनके भेद-प्रभेद का वर्णन एवं उनके परिणाम तथा तदनुसार कर्मबन्ध का वर्णन किया गया हैं। परिहरणदोस - परिहरणदोष (पुं.) 5/658 वादी के द्वारा स्वदर्शन में उपन्यस्त दोष का असम्यक् परिहार 'परिहरण दोष' कहलाता हैं। परोक्ख - परोक्ष (न.) 5/697 इन्द्रिय और मन की व्यवधान/सहायता से आत्मा को असाक्षात्कारी अर्थप्रत्यय होता है, उसे 'परोक्ष' कहते हैं। जो अस्पष्ट होता है, उसे 'परोक्ष' कहते हैं। प्रवाय - प्रवाद (पुं.) 5/787 उत्कृष्ट रुप से स्वाभिमत अर्थ का प्रतिपादन, अन्योन्य पक्ष-प्रतिपक्ष के भाव से मात्सर्यभाव, आचार्य का पारम्परिक उपदेश, प्रकृष्ट वाद और सर्वज्ञ के वाक्य को 'प्रवाद' कहते हैं। यहाँ सर्वज्ञ वचनानुसार अन्यतीर्थिकों के प्रवाद (प्रलापों) की परीक्षा की गई हैं। प्रागभाव - प्रागभाव (म.) 5/822 वस्तु की उत्पत्ति के पूर्व वस्तु का जो अभाव होता है, उसे 'प्रागभाव' कहते हैं। जिसकी निवृत्ति होते ही कार्य की उत्पत्ति होती है, उसे 'प्रागभाव' कहते हैं। पुरिसवाइ (ण) - पुरुषवादिन् (पुं.) 5/1038 पुरुष ही सब कुछ है, जो हुआ-हो रहा है और होगा, वह सब पुरुष के अधीन है-ऐसी प्रतिज्ञा के साथ वाद करनेवाले ईश्वरवादियों को 'पुरुषवादी' कहते हैं। पुहत्त - पृथकत्व (न.) 5/1065 'पृथकत्व' शब्द राजेन्द्र कोश में विस्तार, बहुत्व, पार्थक्य, ग्रन्थविभाग, नैयायिक संमत गुण का एक भेद इत्यादि अर्थो में प्रयुक्त हैं। सम्मति तर्क के अनुसार संयुक्त द्रव्य भी जिस कारण से 'यह भिन्न है' - एसा ज्ञान होता है, उसके भेद (अपोद्धार) व्यवहार का कारण 'पृथक्त्व' नामक गुण है -एसा महर्षि कणाद ने कहा है। यहाँ पर स्थानांग सूत्र एवं सम्मति तर्क के आधार पर 'पृथक्त्व' की विस्तृत व्याख्या दी गई हैं। स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, शब्द और मूर्तस्वभावयुक्त, संघातभेदनिष्पन्न, पूरण-गलन स्वभाववाला द्रव्य 'पुद्गल' कहलाता है। यहाँ पुद्गल का स्कंध, देश, प्रदेश और परमाणु - इन चारों भेद एवं उनके प्रभेदपूर्वक विस्तृत परिचय दिया गया हैं। फोड - (स्फोट) (पुं.) 5/1161 पूर्व-पूर्व के उच्चरित वर्ण के अनुभवसहित चरमवर्ण के द्वारा व्यङ्ग्य अर्थ के प्रत्यायक अखंड शब्द को स्फोट कहते हैं। यह विषय व्याकरण दर्शन का है। अभिधानराजेन्द्र में जैनसिद्धान्तसम्मत अर्थप्रत्ययसिद्धान्त को सम्मतितर्क, प्रथमकांड की 32 वीं गाथा की टीका के आधार पर प्रस्तुत किया गया है। बन्ध - बन्ध (पुं.)5/1164 जीव और कर्मपुद्गल का संश्लेष, जीव के द्वारा नये कर्मो का ग्रहण, कषाययुक्त आत्मा का कार्मण वर्गणा के पुद्गलों से संश्लेष, आठों प्रकार के कर्म पुद्गलों के द्वारा जीव के प्रत्येक प्रदेश को चिपकना, प्रकृति-स्थिति-अनुभाग (रस) और प्रदेशात्मक कर्मपुद्गलों की जीव का स्वयं के व्यापार क्रिया द्वारा स्वीकार करना 'बन्ध' कहलाता है। यहाँ 'बन्ध' तत्त्व के भेद, प्रभेद, शुभाशुभ निमित्त से होनेवाले बन्ध का विभिन्न द्वारों से विवेचन करके अंत में कहा है कि, जयणा (जीवदया) में यत्नशील आत्मा को कर्मबन्ध नहीं होते। बंभवादि (ण) - ब्रह्मवादिन् (पुं.) 5/1282 ब्रह्माद्वैतवादी को 'ब्रह्मवादी' कहते हैं। वें 'ब्रह्म सत् जगन्मिथ्या' -एसी प्ररुपणा करते हैं। बुद्धि - बुद्धि (स्त्री.)5/1326 सांख्योक्त महत्तत्व के नाम से कथित जडबोध, अध्यवसाय, मत्यादि पाँचो प्रकार का ज्ञान, उपयोगरुप विशेष ज्ञान, शब्दार्थ के श्रवणमात्र का ज्ञान 'बुद्धि' कहलाता है। यहाँ बौद्धोक्त बुद्धि के क्षणिकत्त्व का निरास, बुद्धि के गुण एवं जैनागमोक्त औत्पादिकी आदि चार प्रकार की बुद्धि का वर्णन किया गया हैं। भाव - भाव (पुं.) 5/1492 सत्ता, स्वभाव, अभिप्राय, चेष्टा, आत्मा, जन्म, सुख, पदार्थ, विभूतिवान प्राणी आदि के विषय में चिन्तन, नाट्योक्ति, हृदयगत अवस्था मानस विकार, चित्ताभिप्राय, मानसिक परिणाम, अन्तःकरण की परिणति, सत्श्रद्धानरुप अध्यवसाय, धर्मश्रवण से विरति (त्याग) के प्रति उत्पन्न उत्साह, स्त्री चेष्टा, घट-पटादि वस्तु आदि विषय में 'भाव' शब्द का प्रयोग किया जाता हैं। यहाँ भाव निर्वचन, 'सर्व शून्य' मत का पूर्वपक्ष, उसका निराकरण, विभिन्न प्रकार से भाव की व्याख्या, भाव द्वार, औपशमिकादि भावों का कर्म के विषय में चिन्तन, लौकिक-लोकोत्तर प्रशस्त अप्रशस्त भाव वर्णन एवं तत्संबन्धी दृष्टांत वर्णित हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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