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[136]... तृतीय परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन घ. क्षपण
सामायिकादि श्रुत के विषय में भाव-अध्ययन को 'क्षपण' कहते हैं। यहाँ इसके नामादि भेद-प्रभेद
भी बताये गये हैं। 2. नाम-निक्षेप :नाम निक्षेप चार प्रकार का हैंक. नाम निक्षेप - अर्थात् (1) अमुक नाम का पदार्थ या (2) नाम जैसे कि इन्द्र नाम का बालक अथवा (3) इन्द्र
यह नाम। इसी प्रकार जैनत्व के किसी भी गुणविहीन एकमात्र नाम से जैन, अथवा 'जैन' यह नाम
निक्षेप से जैन है। ख. स्थापनानिक्षेप - अर्थात् मूल व्यक्ति की मूर्ति, चित्त, फोटो आदि या आकृति । यह मूर्ति आदि में मूल वस्तु की स्थापना
अर्थात् धारणा की जाती है। जैसे मूर्ति को लक्ष्य करके कहा जाता है, 'यह महावीर स्वामी है। मानचित्र
में कहा जाता है- 'यह भारत देश हैं', 'यह अमेरिका है' -इत्यादि व्यवहार स्थापना निक्षेप से हैं। ग. द्रव्यनिक्षेप
द्रव्य निक्षेप का अर्थ है मूल वस्तु की पूर्व-भूमिका, कारण-अवस्था अथवा उत्तर अवस्था की आधार रुप वस्तु, या चित्त के उपयोग से रहित क्रिया। जैसे कि भविष्य में राजा होनेवाले राजपुत्र को किसी अवसर पर 'राजा' कहा जाता है, वह द्रव्य राजा है। तीर्थंकर होनेवाली आत्मा के विषय में तीर्थंकर बनने से पहले भी 'मेरु पर तीर्थंकर का अभिषेक होता है' इत्यादि वचन कहे जाते हैं। अथवा जब समवसरण पर बैठकर तीर्थ की स्थापना नहीं कर रहे हैं किन्तु विहार कर रहे हैं, तब भी उन्हें तीर्थंकर कहा जाता हैं। यह तीर्थंकर अवस्था की आदान भूत अथवा आधारभूत वस्तु हैं। इसी प्रकार चंचल
चित्त से किया जानेवाला प्रतिक्रमण यह द्रव्य प्रतिक्रमण है, द्रव्य आवश्यक क्रियाभेद हैं। घ. भावनिक्षेप
नाम विशेष का अर्थ यानी भाव, वस्तु की जिस अवस्था में ठीक प्रकार से लागू हो, उस अवस्था में वस्तु का भाव निक्षेप माना जाता हैं। जैसे कि समवसरण में देशना दे रहे हैं तब तीर्थंकर शब्द का अर्थ यानी भाव तीर्थ को करनेवाले, देशना देकर तीर्थ को चलानेवाले - यह लागू होता है। अतः वे तीर्थंकर भाव-निक्षेप में गिने जाते हैं। 'साधुत्व के गुणोंवाला साधु 'देव-सभा में सिंहासन पर ऐश्वर्य
समृद्धि से शोभायमान इन्द्र' आदि भाव-निक्षेप के दृष्टान्त हैं। यहाँ जैसे 'द्रव्य-निक्षेप' कारणभूत पदार्थ में प्रयुक्त होता है वैसे ही बिल्कुल कारण भूत नहीं, किन्तु आंशिक रूप से समान दिखायी देनेवाली तथा उस नाम से संबोधित गुणरहित मिलती-जुलती वस्तु में भी प्रयुक्त होता है। जैसे कि अभव्य आचार्य भी द्रव्य आचार्य हैं। प्रात:काल किये जानेवाला दातुन, स्नानादि भी द्रव्य आवश्यक क्रिया हैं।
एक व्यक्ति में भी चारों निक्षेप घटित हो सकते हैं। शब्दात्मक नाम यह नाम निक्षेप है। आकृति यह स्थापना निक्षेप है। कारण भूत अवस्था यह द्रव्य निक्षेप है। उस नाम की भाव-अवस्था यह भाव निक्षेप हैं। 3. सूत्रालापक निष्पन्न निक्षेप :
सूत्र के आलापक यानी 'पाठों' की नाम-स्थापनादि भेदपूर्वक व्यवस्था या निष्पत्ति को 'सूत्रालापक निष्पन्न निक्षेप कहते हैं। निक्षेप का फल :
अभिधान राजेन्द्र कोश में निक्षेपपूर्वक पदार्थ चिन्तन का फल बताते हुए आचार्यश्रीने कहा है कि "वस्तु के अप्रस्तुत अर्थ को दूर करने और प्रस्तुत अर्थ को प्रकट करने में निक्षेप फलवान् (सफल) हैं।
यहीं पर आचार्यश्रीने निक्षेप के विन्यास, गणनिक्षेपण, मोक्ष, मोचन (मुक्ति) और परित्याग-अर्थ भी बताया हैं 100 पमेज्ज - प्रमेय (त्रि.) 5/497
जैनागमों में द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु को 'प्रमेय' कहा है। यहाँ न्यायोक्त आत्मा, शरीरादि प्रमेयों का संक्षिप्त में खंडन किया गया हैं। पयत्थ - पदार्थ (पुं.) 5/504
क्रिया-कारक के विधानपूर्वक यथावस्थित अर्थज्ञान की प्ररुपणा के द्वारा जो वाच्य बने उसे 'पदार्थ' कहते हैं। यहाँ जैनागमानुसार चार-सात-आठ-नव (नवतत्त्व) प्रकार से पदार्थ का वर्णन किया गया है। साथ ही न्यायोक्त षोडशपदार्थवाद का खंडन किया गया है। परमाणु - परमाणु (पुं.) 5/540
पुद्गल के अत्यन्त सूक्ष्म (अविभाज्य) अंश को 'परमाणु' कहते हैं। यहाँ परमाणु के भेदों का परिचय दिया गया हैं। परिणाम - परिणाम (पुं.) 5/592
आत्मा का बहुत लम्बे काल तक पूर्वापर विचारजन्य धर्मविशेष, सर्वप्रकार से जीव-अजीव आदि पदार्थो के जीवत्वादि के अनुभव का प्रभाव, कथंचित् स्थिर वस्तु की पूर्वावस्था का त्याग और उत्तरावस्था में गमन, पदार्थ की पर्यायान्तर की प्राप्ति और द्रव्य का तद्रुप
97.
96. अ.रा.पृ. 3/128, 2/733 98. अ.रा.पृ. 4/2027; अनुयोगद्वारसूत्र तृतीयद्वार 100. अ.रा.पृ. 4/2027
99.
अ.रा.पृ. 4/2027, तत्वार्थसूत्र 1/5 पर तत्वार्थ भाष्य अ.रा.पृ. 4/2027; व्यवहारसूत्र, । उद्देश
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