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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [135] नय द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक ऋजुसूत्र शब्द समभिरूढ एवंभूत सूक्ष्म (क्षणिकपर्याय) स्थूल (मनुष्यादिपर्याय) शब्द समभिरुढ एवंभूत निक्षेप प्रमाण और नयों का निक्षेप से सीधा सम्बन्ध है क्योंकि निक्षेप निहित वस्तु स्वरुप को ही प्रमाण और नयों के द्वारा जाना जाता हैं इसलिए नयों के परिचय के बाद निक्षेपों को महत्त्व दिया जाना उचित हैं। तत्वार्थ सूत्र में प्रथम अध्याय में प्रमाणोल्लेख के पूर्व ही निक्षेपों का संकेत किया गया है। वहाँ कहा गया है कि जीवादि सात तत्त्वों का न्यास नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव नामक चार निक्षेपों से ही सम्भव हो पाता है। इन चार निक्षेपों में न्यस्त सात तत्त्वों को प्रमाण और नयों के द्वारा जाना जाता है। तत्त्वार्थाधिगम भाष्य आदि विस्तारक ग्रन्थों में इनका विस्तार समझाया गया हैं। शास्त्रों (जैनागम ग्रंथो) का, उनमें आये हुए अध्ययन, उद्देश्य आदि को नामादि भेदों के द्वारा व्यवस्थित/नियत/निश्चित करना 'निक्षेप' कहलाता हैं। 7 आचारांग में यथाभूत अर्थनिरपेक्ष अभिधान (नाम) मात्र को 'निक्षेप' कहा हैं ।88 अनुयोग द्वार सूत्र में आवश्यकादि के यथासंभव नामादि भेदों की प्ररुपणा को 'निक्षेप' कहा हैं।89 जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति में क्रमानुसार प्राप्त व्याख्यायित शास्त्रों के नामादि के न्यास को 'निक्षेप' कहा है 190 निक्षेप के भेदो की व्याख्या करने से पूर्व अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने कहा है कि तत्त्ववेत्ता जिन-जिन जीवादि पदार्थों को जानता हो, उनका भी नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव -इन निक्षेपचतुष्टयपूर्वक चिन्तन करना चाहिए। और जिन पदार्थो के बारे में वह नहीं जानता हो, उनका भी निक्षेपचतुष्टयपूर्वक चिन्तन करना चाहिए। क्योंकि एसी कोई भी वस्तु नहीं है जो नामादिनिक्षेप से व्यभिचरित हो। निक्षेप तीन प्रकार से :1. ओघनिष्पन्न : श्रुत शास्त्र के अध्ययनादि के द्वारा निष्पन्न 'ओघनिष्पन्न' कहलाता हैं। वह चार प्रकार से है- अध्ययन, अक्षीण, आय, क्षपण।2 क. अध्ययन जिससे शिष्य के द्वारा गुरु के पास क्रमपूर्वक अध्ययन किया जाय । पढा जाय, उसे अध्ययन कहते हैं। यह विशिष्ट अर्थध्वनि के संदर्भ रुप श्रुत का भेद हैं। वह सूत्र, अर्थ और तदुभय भेद से तीन प्रकार का हैं, जिसके अनेक प्रभेद भी राजेन्द्र कोश में दर्शाये गये हैं। ख. अक्षीण अ.रा.भा.1 पृ. 149 पर जो क्षय को प्राप्त नहीं होता, उसे 'अक्षीण' कहा है परन्तु यहाँ सामायिकादि श्रुत के विषय में भाव-अध्ययनादि को 'अक्षीण' कहते हैं। ग. आय ओघनिष्पन्न निक्षेप के द्वारा सामान्यतः जिससे ज्ञान, दर्शन, चारित्र और सामायिकादि का लाभ होता है ऐसे अङ्ग, अध्ययन, उद्देश्यादि श्रुत को 'आय' कहते हैं। यहाँ इसके विभिन्न भेद-प्रभेद भी वर्णित 84. अ.रा.पृ. 4/1856, 5/229, तत्वार्थसूत्र 1/33 पर सर्वार्थसिद्धि टीका; श्रीपुरुषार्थसिद्धयुपाय, गाथा 31, 32 नी टीका 85. अ.रा.पृ. 2/270 86. तत्वार्थसूत्र 1/35 एवं उस पर तत्त्वार्थ भाष्य 87. अभिधानराजेन्द्र, पृ. 4/2027; विशेषावश्यकभाष्य 912 88. आचारांग- 1/2/1 89. अ.रा.पृ. 4/2027 90. अ.रा.पृ. 4/2027; जंबुद्वीप प्रज्ञति, । वक्षस्कार 91. जत्थ य जं जाणेज्जा, निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं । जत्थ वि अन जाणेज्जा, चउक्कगं निक्खिवे तत्थ ।। - अ.रा.पृ. 4/2027 92. अ.रा.प्र.4/2027,3/128 93. अ.रा.पृ. 1/231 94. अ.रा.पृ. 3/128 95. अ.रा.पृ. 3/128, 2/321 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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