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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
तृतीय परिच्छेद... [141] उपकार :- अपने स्वरुपमय वस्तु को करना - जो यह अस्तित्व का उपकार घट के साथ है, वही अपना वैशिष्टय संपादन उपकार
अन्य धर्मो का भी हैं। गुणीदेश :- घट के जिस देश में अपने रुप से अस्तित्व धर्म है उसी देश में अन्य की अपेक्षा से अस्तित्त्व आदि संपूर्ण धर्म
भी हैं। संसर्ग
जिस प्रकार एक वस्तुत्व स्वरुप से अस्तित्व का घट में संसर्ग है । वैसे ही एक वस्तुत्व रुप से अन्य सब धर्मो
का भी संसर्ग हैं। शब्द :- जो 'अस्ति' शब्द अस्तित्व धर्म स्वरु प घट आदि वस्तु का भी वाचक है, उसी वाच्यत्वरुप शब्द से सब धर्मो
की घट आदि पदार्थों में अभेदवृत्ति हैं। इस प्रकार द्रव्यार्थिक नय की प्रधानता से वस्तु में सब धर्मो की अभेदरुप से स्थिति रहती हैं। और पर्यायार्थिक नय की प्रधानता से यह स्थिति अभेदोपचाररुप से रहती हैं। अनेकांतवाद की सूचना इन दोनों के द्वारा होती हैं ।106
पूर्वोक्त सात वाक्यों में घट वस्तु दी है। इसके चार रुप हैं । अर्थात् निजरुप, पररुप, द्रव्यमय और पर्यायरुप। इनमें से वस्तु का निजरुप चार प्रकार से होता है, अर्थात् नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव। उदाहरण :- घट का नाम घट है; कुंडी, नांदी आदि नहीं है । घट की स्थापना वही क्षेत्र है, जहाँ पर घट रखा हुआ है; दूसरा क्षेत्र नहीं । घट का द्रव्य मृत्तिका है, सुवर्ण नहीं । घट का काल वर्तमान है, भूत, भविष्यत् नहीं । घटकी मृतिकादि उसका द्रव्यरुप अर्थात निजरुप है । मृतिका से जो सैकडों चीजें बनती हैं, जैसे -कुंडी, मटका, नाँदी आदि ये उसके पर्यायरुप हैं। सप्तभंगी नय के प्रत्येक वाक्य का स्पष्ट विवरण1. स्यादस्ति घट:/स्यात् घट है इसका अर्थ है कि घट अपने निजरूप से हैं अर्थात् नाम स्थापना (क्षेत्र) द्रव्य और भाव (काल) से
हैं। टेढी गर्दनरुप से घट का नाम है। मृत्तिका इसका द्रव्य है जहाँ वह रखा है वह स्थान उसका क्षेत्र है। जिस समय में वह वर्तमान है वह उसका काल है। इन चीजों के देखते घट है। 'स्यात्' इस बात को बताता है कि घट में केवल ये ही धर्म नहीं
है जो प्रधानता से बताये गये है, बल्कि और भी हैं। यह अनेकांतार्थ वाचक है। इस वाक्य में सत्ता प्रधान है। 2. स्यान्नस्ति घट: -स्यात् घट नहीं है इसका अर्थ है कि 'घट' पर-नाम, पर-रू प, पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, और पर-काल से नहीं है।
घट का निजरूप तो टेढी गर्दन थी लेकिन इस रुप से पृथक् जो रुप है- जैसे चपय लम्बा आदि वह इसमें नहीं है जैसे पट वृक्षादि का रुप । घट का द्रव्य मृत्तिका है, लेकिन परद्रव्य सुवर्ण, लोहा, पत्थर, सूत इत्यादि हैं - जो घट में नहीं है। घट का क्षेत्र तो वही स्थान था जहाँ वह रखा था यानि पट या पत्थर, दूसरा स्थान पृथ्वी, छतादि जो नहीं है। घट का निजकाल तो वर्तमान था, दूसरा काल भूत या भविष्यत् काल है। इसमें असत्ता प्रधान है। परन्तु यह नहीं समझना चाहिए कि इसमें घट का निषेध है। नहीं कहने से घट का अस्तित्त्व चला नहीं गया बल्कि गौण हो गया ओर पर-स्वरूप की प्रधान हो गई है। वह वाक्य पहले
वाक्य का निषेधरु प से विरुद्ध नहीं है। बल्कि इसमें असत्ता प्रधान है और सत्ता गौण है। 3. स्यादस्ति नास्ति च घटः । स्यात् घट है और नहीं भी है। पहले घट के निजरुप की सत्ता प्रधान होने से घट का होना बताया
है और फिर घट के पर-स्वरुप की असत्ता प्रधान होने से उसका नहीं होना बताया है। घट के निजरुप को देखा जाय तो घट है और पररुप को देखा जाय तो घट नहीं है। स्यादवक्तव्यो घट: - स्यात् घट अवक्तव्य है - घट के निजरु प की सत्ता और उसके पररु प की असत्ता - इन दोनों को एक ही समय में प्रधान समझा जाय तो घट अवक्तव्य हो जाता है, अर्थात् एसी वस्तु हो जाता है जिसके विषय में कुछ कह नहीं
सकते हैं। एक ही समय में असत्ता और सत्ता की प्रधानता मानने से घट का रूप अवक्तव्य हो जाता हैं। 5. स्यादस्ति चावक्तव्यश्च घट: - स्यात् घट है और अवक्ततव्य भी है - द्रव्य रूप से तो घट है, लेकिन उसका द्रव्य और पर्याय
रुप एक काल में ही प्रधान भूत नहीं है। सत्ता सहित अवक्तव्य की प्रधानता है। घट के द्रव्य अर्थात् मृत्तिकारुप को देखें तो
घट है परन्तु द्रव्य (मृत्तिका) और उसके परिवर्तनशीलरुप दोनों को एक समय में ही देखें तो वह अवक्तव्य है। 6. स्यानास्ति चावक्तव्यश्च घटः । स्यात् घट नहीं है और अवक्तव्य भी हैं। घट अपने पर्याय रुप की अपेक्षा से नहीं है क्योंकि वे
रुप क्षण-क्षण में बदलते रहते हैं। लेकिन प्रधानभूत द्रव्य पर्याय उभय की अपेक्षा से वह अवक्तव्य का आधार है, इसमें असत्तारहित अवक्तव्यत्व की प्रधानता है। स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्यश्च घट: - स्यात् घट है नहीं भी है और अवक्तव्य भी है। द्रव्य पर्याय पृथक्-पृथक् की अपेक्षा से सत्ता असत्ता सहित मिलित तथा साथ ही योजित द्रव्य पर्याय की अपेक्षा से अवक्तव्यत्व का आश्रय घट है। मृत्तिका की दृष्टि से घट है। उसके क्षण-क्षण में रुप बदलते हैं, इस पर्याय दृष्टि से घट नहीं है। इन दोनों को एक साथ देखो तो घट अवक्तव्य है।
106. विशेष विवरण के लिए देखें - स्याद्वादः एक अनुशीलन पृ. 110-III ले. आचार्य देन्द्र मुनि शास्त्री
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