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________________ [142]... तृतीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन सत्ता - सत्ता 9/323 अन्य दर्शनों (न्यायवैशेषिकादि) में द्रव्य, गुण और कर्म -इन तीन पदार्थों में सत्ता का संबन्ध माना जाता है और सामान्य, विशेष और समवाय-इन तीन में नहीं माना जाता । जैन दर्शन में जो पदार्थ है उसे अस्तिरुप कहा जाता हैं (यह अस्ति शब्द त्रैकालिक सत्ता का बोधक अव्यय है) -अस्ति इति सत् । 'सत्' का भाव ही सत्ता है ('सत्' शब्द से भाव अर्थ में तल् प्रत्यय होकर नित्य स्त्रीलिङ्ग 'सत्ता' शब्द निष्पन्न होता है)। इसे ही अस्तित्व भी कहते हैं और वह अस्तित्व वस्तु का स्वरुप है जो कि सभी पदार्थों में निर्विशेष रुप से रहता हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने यहाँ (अ.रा.पृ. 7/324 से 329) पर वैशेषिक मान्य सत्ता पदार्थ का विस्तृत खंडन किया है। साथ ही जैन सिद्धान्तोक्त ज्ञानावरणीयादि आठों कर्मो के भेद-प्रभेदों की सत्ता की काल मर्यादा का भी वर्णन किया हैं। सद् - शब्द (पुं.) 7/338 जिसके द्वारा वस्तु (पदार्थ) का प्रतिपादन होता है, जो श्रोत्रिन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने योग्य नियत क्रमवाले वर्ण-समूह, तथा ध्वनि को 'शब्द' कहते हैं। राजेन्द्र कोश में यहाँ पर आचार्यश्रीने जैनागमोक्त शब्द के भेद-प्रभेद का दिग्दर्शन करवाकर भिक्षु को मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्दों के प्रति राग-द्वेष से दूर रहने का निर्देश किया हैं। साथ ही शब्द के विषय में न्याय-वैशेषिक और सौगत (बौद्ध) आदि द्वारा मान्य 'शब्द आकाश का गुण हैं' -इत्यादि सिद्धांतों का विशद खंडन किया है। सबैभवाइ - शब्दब्रह्मवादिन् (पुं.) 7/369 जो केवल शब्द को ही सत् मानते हैं उन्हें 'शब्दब्रह्मवादी' कहते हैं। व्याकरण-दर्शन के अनुयायी समस्त संसार को शब्दानुविद्ध मानते हैं। समवाइकारण - समवायिकारण (नपुं.) 7/422 ( अपृथक् रुप से एकीभाव से समवाय जिसमें रहता हैं वह 'समवायि' है । समवायि के कारण को 'समवायिकारण' कहते हैं। जैसे तन्तु में पट । समवाय - समवाय (पुं.) 7/423 अभिधान राजेन्द्र कोश में समवाय शब्द के अनेक अर्थ दिये गये हैं, जैसे- व्यापारियों के समूह, मित्रों का मिलन, जीवाजीवादि पदार्थ का अर्थ सहित रहने का स्थान, विभिन्न आत्माओं का मिलन स्थान, किसी के द्वारा नहीं जोडे गये किन्तु स्वयं (अपने आप) जुड़े हुए आधार्य-आधारभूत पदार्थो के 'इह प्रत्यय' हेतु सम्बन्ध (इह प्रत्यय हेतुभूत समवाय की व्याख्या राजेन्द्र कोश में 'धम्म' शब्द पर हैं)। (समवाय संबंधी विशेष व्याख्या 'धम्म' शब्द अ.रा.पृ. 4/2664 पर की गई है।) समाहि - समाधि (पुं.) 7/425 यहाँ राग-द्वेष के त्याग रुप धर्म ध्यान आदि समाधि के अनेक अर्थ बताते हुए आचार्यश्री ने समाधि के विविध प्रकारों का विस्तृत वर्णन किया हैं। एकाग्रनिरुद्ध चित्त में समाधि होती हैं। द्रव्य समाधि और भाव समाधि - ये दो समाधि भेद हैं। स्वरुपमात्र निर्भास होना अर्थात् ध्येयस्वरुप का निर्भासमात्र जिसमें हो वह समाधि है, वही ध्यान है। यहीं पर आगे द्रव्य समाधि आदि का स्वरुप विस्तार से समझाया गया है। सम्मत्त - सम्यकत्व (न.) 7/482 सम्यक्त्व अर्थात् जीवाजीवादि तत्त्वों पर श्रद्धा, जीव के मोक्ष के अविरोधी प्रशस्त भाव, सम्यग्दर्शन, प्रशस्त सम्यक्त्व-मोहनीय के अनुवेदन से उत्पन्न उपशम सम्यक्त्व, जीव के मिथ्यात्व मोहनीय के क्षयोपशमादि से उत्पन्न परिणाम, तत्त्वों में रुचि, शम, संवेगादि लक्षणो से युक्त आत्मपरिणाम । प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के चतुर्थ परिच्छेद में यथास्थान इसका विस्तृत वर्णन हैं। सव्वतंतसिद्धांत - सर्वतन्त्रसिद्धांत (पुं.) 7/592 प्रमाण के द्वारा प्रमेय के ग्रहणपूर्वक जिस सिद्धांत के अर्थ की सभी तन्त्रों/विषयों में गति होती है, उसे 'सर्वतन्त्रसिद्धांत' कहते हैं। सहकारि (ण) - सहकारिन् (पुं.) 7/601 कार्य के मूल कारण के सहयोगी को सहकारि (कारण) कहते हैं । सहाववाइ- स्वभाववादिन् (पुं.) 7/604, 4/2172 समस्त जगत का स्वभाव ही जीवत्व, अजीवत्व, भव्यत्व, मूर्तत्वादि के स्वरुप निर्माण में कारण (करण-साधन) हैं पुण्य-पाप नहीं -एसी जिनकी मान्यता है उनको 'स्वभाववादी' कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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