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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन तृतीय परिच्छेद... [143] यहाँ स्वभाव भावरुप है या अभावरुप? वह कार्यगत हेतु है या कारणगत ? इत्यादि तर्को से स्वभाववादियों के ऊपर दूषणजाल खडा कर उसका खंडन किया गया हैं। सामण्णय - सामान्यनय (पुं.) 7/643 'आत्मा' आदि पदार्थो के एकत्व के अभिप्रायवाला सामान्य नय है । सामान्य विशेषरहित होता है, जैसे - कि 'खरविषाण' यहाँ पर आचार्यश्रीने अद्वैतवाद का खंडन किया हैं। सामण्णविसेस - सामान्यविशेष (पुं.) 7/646 अनेक पदार्थों में समानता और भेद के बोध का हेतुभूत क्रमश: सामान्य और विशेष हैं । द्रव्यत्वादि में अपने-अपने आधार विशेषों में अनुगत आकार प्रत्यय के वचन हेतु सामान्यविशेष हैं। अनेको घट का समान आकार होने पर घट सामान्य से 'यह घट है, यह भी घट है, यह भी घट है- एसी प्रतीति होती है और विशेष से यह मिट्टी का है, यह स्वर्ण का है, यह तांबे का हैं-एसी प्रतीति होती है। यहाँ पर आचार्यश्री के द्वारा आवश्यक मलयगिरि, सूत्रकृतांग, स्थानांग, अनेकान्त जयपताका आदि ग्रंथो के आधार पर विस्तृत दार्शनिक चर्चा की गयी हैं। जाति प्रकरण में सामान्य-विशेष नामक पदार्थो का आश्रय करके खंडन-मंडन प्रस्तुत किया गया है, किन्तु यहाँ पर अनुवृत्तबोध और व्यावृत्तबोध के हेतुभूत उपरोक्त पदार्थो के बारे में बोधकारणतापरक विचार-विमर्श प्रस्तुत किया गया हैं। यहाँ पर लगभग 55 पृष्ठों में पूरे प्रकरण को आचार्य हरिभद्र सूरि प्रणीत अनेकान्तजयपताका, तृतीय अधिकार की विषयवस्तु को उद्धत करते हुए बौद्धसम्मत और वैशेषिकसम्मत अनुवृतबोध और व्यावृत्तबोध में सामान्य-विशेष की पृथक-पृथक् कारणता का खंडन किया गया हैं । सायवादिन् - सातवादिन् (पुं.) 7/775 (अक्रियावादी का भेद) भारतीय विचारकों के दो वर्ग हैं - 1. क्रियावादी - संयम के साथ मोक्षरुप सुख में विश्वास करता हैं। 2. अक्रियावादी पारमार्थिक सुख को स्वीकार नहीं करता हुआ विषयसुख को ही प्राथमिकता देता है। विषय सुख को ही साय/ सात अर्थात् 'साता' कहते हैं। इसको सिद्धांत रुप से स्वीकार करनेवालों को 'सायवादिन्' कहते हैं। सिद्धंत - सिद्धांत (पुं.) 7/845 जिस कारण के द्वारा प्रमाण (पूर्वक कसौटी) से अर्थ सिद्ध होकर अंत को प्राप्त होता है, उसे सिद्धांत कहते हैं । 'सिद्धांत' शब्द का प्रयोग आगम और आर्षवचन के अर्थ में भी होता है। यहाँ सिद्धांत के आगम - नो आगम, सर्वतन्त्र-प्रतितन्त्र, अधिकरण-अभ्युपगम सिद्धांत -एसे भेद भी दर्शाये गये हैं। सियवाय- स्यावाद (पुं.) 7/855 स्यादवाद का अर्थ एवं स्वरुप - प्राकृत शैली के 'सियवाय' शब्द को संस्कृत में स्याद्वाद कहते हैं। स्यादस्तीत्यादिको वादः स्याद्वाद इति गीयते । (अ.रा.पृ. ७/८५५) इसमें दो शब्द संयुक्त है - स्यात् + वाद्, जिसका अर्थ है - कथञ्चिद् अथवा किसी अपेक्षा से और वाद का अर्थ-कथन या प्रतिपादन करना स्याद्वाद है। प्रस्तुत कोश में 'स्यात्' शब्द कथञ्चिद्07 अर्थ में प्रयुक्त हुआ हैं। और यह 'किसी अपेक्षा' अर्थ का द्योतक हैं। इसे ही दार्शनिक शब्दावली में कथञ्चिद् (अपेक्षा से) कहा जाता हैं। जिसका दूसरा नाम अपेक्षावाद भी है इसके अतिरिक्त 'स्याद्' शब्द आशंका के अर्थ में व्यवहृत हुआ है। आशंङ्का नाम विभाषा । स्यादिति कोऽर्थं ? कदाचित् भवेत् कदाचित् न भवेत् 108 - स्यात् किसे कहते हैं ? इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है- किसी अपेक्षा से होता है और किसी अपेक्षा से नहीं होता है अतः स्याद्वाद न तो संशयवाद है न तो अनिश्चयवाद। हिन्दी में स्याद् का अर्थ शायद किया जाता है जबकि जैनदर्शन में इसका अर्थ कथञ्चित् या किसी अपेक्षा से किया गया हैं। अतः स्याद्वाद शायदवाद नहीं हैं। अनेकान्तवाद् और स्यावाद जैनदर्शन के दो विशिष्ट शब्द हैं। अनेकान्तवाद सिद्धांत है और स्यावाद उसके निरुपण की पद्धति । प्रस्तुत कोश में स्याद्वाद का विश्लेषण करते हुए प्रतिपादित किया हैं स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकम । ततः स्यादवादः अनेकान्तवादो नित्यानित्यद्यनेकधर्मबलैक-वस्त्वभ्यगम इति 1109 'स्यातू' शब्द अव्यय है और अनेकान्त का द्योतक है इसलिए स्याद्वाद को अनेकान्तवाद भी कहा जाता है। अनेकान्तवाद का अर्थ हैं : एक वस्तु में अनेक विरोधी गुणों या धर्मों को स्वीकार करना, और स्याद्वाद का अर्थ है : विभिन्न अपेक्षाओं से वस्तुगत अनेक धर्मों का प्रतिपादन करना। अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्यादवादः ।।10 अनेकात्मक वस्तु भाषा द्वारा प्रतिपादित करनेवाली पद्धति ही स्यादवाद हैं। 107. अ.रा.भा. 1 उपोद्घात पृ. 2; रत्नाकरावतारिका, परिच्छेद 4 108. अ.रा.पृ. 7/856; व्यवहारसूत्रवृत्ति, उद्देश 109. अ.रा.पृ. 1/423; 7/855; अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, कारिका 5 पर स्याद्वादमञ्चरी टीका 110. लधीयस्त्रीय टीका - 62 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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