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[144]... तृतीय परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रस्तुत कोष में स्याद्वाद के लिए विभज्यवाद शब्द का प्रयोग भी हुआ है यथा- विभज्यवादः स्याद्वादः।।1 विभाज्यवाद का विश्लेषण करते हुए यह बताया गया है कि विचारशील व्यक्ति यदि किसी विषय में असंदिग्ध हो तो भी उस विषय में अनाग्रही रहे तथा सदा विभज्यवाद अर्थात् स्याद्वाद युक्त वचन का प्रयोग करें।112 इसी सन्दर्भ में यह भी कहा गया हैं - 'णयाऽऽसियाय वियागरेज्जा 1113 साधक स्याद्वाद से रहित वचन न बोले। आगे ओर भी कहा गया है कि, "जिनप्रवचन-तत्त्ववेदिनो मिथ्यावादित्व परिजिहीर्षया सर्वमपि स्यात्कारपुरस्सरं भाषन्ते, नतु जातुचिदापि स्यात्कारविरहितम्, यद्यपि च लोकव्यवहारपथमवतीर्णा न सर्वदा साक्षात्स्यात्पदं प्रयुञ्जते तथापि तत्राप्रयुक्तेऽपि सामर्थ्यात्स्याच्छब्दो दष्टव्यः प्रयोजकस्य कुशलत्वात् ।।।
प्रस्तुत कोश में स्याद्वाद के विषय में ऐसा कहा गया है कि स्यादस्ति-स्यादनास्ति आदि सप्तदृष्टियों से समन्वित एसा स्याद्वाद द्रव्यार्थिक - पर्यायार्थिक नय के बिना नहीं रह सकता। अभिधान राजेन्द्र कोश में स्याद्वाद को नमस्कार करते हुए उसकी महत्ता पर प्रकाश डाला हैं
स्याद्वादाय नमस्तस्मै, यं विना सकला क्रिया ।
लोकद्वितयभाविन्यौ, नैव साङ्गत्यमासते ॥15 लोक को दूसरे रुप में ढालनेवाली सम्पूर्ण क्रियाएँ जिसके बिना साङ्गत्य (असंवादिता) को प्राप्त नहीं होती, एसी उस स्याद्वाद को प्रणाम हो।
जैनदर्शन की यह अभिनव (मौलिक) अवधारणा है, जो प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी है एवं धर्म-सद्भाव, अभेदभाव और विश्व-कल्याण की नित्य प्रवाहमान् अमृत निर्झरी हैं। सुणवाय - शून्यवाद (पुं.) 7/939
यहाँ पर सब पदार्थ शून्य है, क्योंकि प्रमाता, प्रमेय, प्रमाण और प्रमिति अवस्तु है। प्रमाता (आत्मा) इन्द्रियों का विषय नहीं हो सकता अतः प्रत्यक्ष, अनुमान या आगम प्रमाता (आत्मा) को सिद्ध नहीं कर सकता। अविद्या की वासना से बाह्य पदार्थों के अभाव में उनका (घट, पटादि का) ज्ञान होता है अतः प्रमेय भी कोई पदार्थ नहीं है। प्रमेय के अभाव में प्रमाण और प्रमाण के अभाव में प्रमिति की व्यवस्था नहीं बनती। अतः सर्वथा शून्य मानना ही वास्तविक तत्त्व है एसा शून्यवादी (माध्यमिक) बौद्धों का पूर्वपक्ष हैं। आचार्यश्री ने स्याद्वादमञ्जरी के आधार पर निम्नाङ्कित तर्को से इसका खंडन करते हुए कहा है - प्रमाता, प्रमेय, प्रमाण और प्रमिति प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों से सिद्ध होता हैं। जैसे - 'मैं सुखी हूँ', 'दुःखी हूँ' - आदि अहं प्रत्यय से प्रमाता, बाह्य पदार्थों का ज्ञान अनुभव से होने पर ही वासना की निष्पत्ति होने से प्रमेय; प्रमेय की सिद्धि होने से जानने रुप क्रिया का करण प्रमाण और पदार्थ के ज्ञान से पदार्थ संबन्धी अज्ञान का नाश होने से प्रमाण के फलरुप प्रमिति की सिद्धि होती हैं। हेउ - हेतु (पुं.) 7/1241, 7/1244
जो ज्ञेय का बोध कराता है उसे हेतु कहते हैं, जैसे - 'एतद् द्वारमधुना' (यह द्वार अब कहा जायेगा)। 'हेतु' शब्द के अनुपपत्ति लक्षण, प्रमेय का प्रमिति के विषय में कारण उपस्थित होने पर प्रमाण, साध्यार्थगमक युक्तिविशेष आदि अर्थ यहाँ पर दर्शाये गये हैं।
'हतु' शब्द के अन्तर्गत प्रमाणशास्त्र में प्रयुक्त हेतु का स्वरुप, भेद, त्रिलक्षण (पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षासत्त्व) हेतु प्रकार, हेतु प्रयोग प्रकार, प्रयोगनियम आदि विषयों को रत्नाकरावतारिका, तृतीय परिच्छेद के अनुसार स्पष्ट किया गया है। हेउ अंतर - हेत्वन्तर (पुं.) 7/1245
'हेत्वन्तर' पाँचवे निग्रहस्थान का भेद हैं। हेउ आभास - हेत्वाभास (पुं.) 7/1245%; हेउ दोस - हेतुदोष 7/1245
अहेतु में हेतु का आभास (हेतु नहीं होने पर भी हेतु की प्रतीति) होना हेत्वाभास कहलाता है। उसे हेतु दोष भी कहते हैं। यहाँ असिद्ध, विरुद्ध और अनेकान्तिक - ये तीनों प्रकार के हेत्वाभास का वर्णन किया गया हैं।
हेतु-परिचय के अनन्तर जैन दर्शन सम्मत तीन हेत्वाभासों का परिचय रत्नाकरावतारिका षष्ठ परिच्छेद के आधार पर दिया गया हैं। उपसंहार :
तृतीया परिच्छेद के अन्तर्गत हमने राजेन्द्र कोश में आये हुए महत्त्वपूर्ण साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और दार्शनिक शब्दों की ओर संकेत करके यह स्पष्ट करने का प्रयास किया हैं कि अभिधान राजेन्द्र न केवल जैनविद्या का कोश है, अपितु इसमें ज्ञान की सभी शाखाओं के लिए कुछ न कुछ महत्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध हैं।
उपरोक्त चार शीर्षक तो केवल दिग्दर्शन मात्र हैं, अभिधान राजेन्द्र में अन्य अनेक विषयों के महत्त्वपूर्ण शब्दों की ससन्दर्भ व्याख्याएं हैं। चारे वह गणित विषय हो या भूगोल हो, ज्योतिष हो या वास्तु शास्त्र, सभी विषयों के शब्दों पर आधिकारिक और प्रामाणिक जानकारी इस कोश में उपलब्ध है। हमने केवल उपरोक्त चार शीर्षकों तक अपनी सीमा इसलिए निर्धारित की है कि शास्त्र तो अनन्त है, और समय अल्प है, साथ ही विघ्नों की कथा का अन्त नहीं हैं, इसलिए इतने मात्र से ही दिग्दर्शन कराया हैं। जिज्ञासुओं को चाहिए कि वे मूल ग्रन्थ का अवलोकन कर अपने लिए उपयोगी सामग्री का संग्रह करें।
111. अ.रा.पृ. 6/1180, 1201; सूत्रकृतांग सटीक 1 श्रुतस्कन्ध, अध्ययन 14 113. अ.रा.पृ. 6/1179; सूत्रकृतांग 1/14/19 115. अ.रा.पृ. 7/856; स्थानांग, ठाणा 9
112. 114.
अ.रा.पृ. 6/1201; सूत्रकृतांग 1/14/22 अ.रा.पृ. 7/855
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