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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन प्रथम परिच्छेद... [21] आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि : तीर्थोद्धारक : आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने श्री संघ को उपदेश देकर अपने जीवन में अनेक जिनमंदिरों के निर्माण तो करवायें; साथ ही कई जिनमंदिरों के जीर्णोद्धार भी करायें इतना ही नहीं अपितु श्री स्वर्णगिरि तीर्थ (जालोर-राज.), कोरटाजी, भाण्डवपुर एवं तालनपुर - इन चारों तीर्थों का जीर्णोद्धार भी कराया एवं सिद्धाचलावतार श्री मोहनखेडा तीर्थ का नवनिर्माण भी कराया, जिनका संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार हैं आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि कृत तीर्थोद्धार एवं तीर्थस्थापना 1. स्वर्णगिरि - जालोरगढ : वर्तमान में आपके प्रशिष्यरत्न श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी की शास्त्रों में कनकाचल और स्वर्णगिरि आदि नामों से विख्यात प्रेरणा से श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्वे. श्रीसंघ के यह तीर्थ राजस्थान में समदडी-भीलडी रेल्वे के जालोर स्टेशन से द्वारा इस तीर्थ का जीर्णोद्धार एवं नवीनीकरण द्रुतगति से हो रहा दक्षिण में स्थित पर्वत पर बने किले में हैं। जहाँ के समस्त निवासी कोट्यधिपति थे एसे स्वर्णगिरि 2. कोस्टा :के किले में (1) श्री महावीर जिनालय (यक्षवसति), (2) चौमुख अहमदाबाद-दिल्ली रेल्वे लाईन पर स्थित जवाईबंध (राजस्थान) चैत्य (अष्टापदावतार), (3) कुमारविहार (पार्श्वनाथ चैत्य) - ये तीन के पास कोरटपुर, कणयापुर, कारंटी और कोरटा आदि नामों से प्रचलित जिनालय प्राचीन हैं। नाहड राजाओं के द्वारा निर्मित श्री महावीर यह तीर्थ 2500 वर्ष प्राचीन हैं ।।10 जिनालय सबसे प्राचीन है।104 श्री जैन सत्यप्रकाश में मुनि श्री न्याय उपकेश गच्छ-पट्टावली के अनुसार श्री वीरनिर्वाण सं 70 विजयजीने लिखा है कि वि.सं. 595 में सुवर्णगिरि में दोशी धनपति ___ में श्री पार्श्वनाथ संतानीय श्री स्वयंप्रभसूरि के शिष्य श्री रत्नप्रभसूरि ने दो लाख द्रव्य खर्चकर यक्षवसति की स्थापना की और प्रद्योतन ने कोरटा और ओसिया में श्री महावीर देव के बिम्बों की एक साथ सूरिजीने उसमें श्री वीर प्रभु की प्रतिष्ठा की ।105 चौमुखजी मंदिर प्रतिष्ठा की थी। यवनों के समय में यह तीर्थ ध्वस्त हो गया एवं के निर्माता अज्ञात हैं। कुमारविहार जिनालय को वि.सं 1221 के जिनालय भग्न हो गये। आज वहाँ एक छोटा सा गाँव एवं चार आसपास परमार्हत राजा कुमारपाल ने कलिकासर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य जिन मंदिर हैंके उपदेश से 72 जिनालयों के रुप में बनवाया था।106 1. श्री महावीर मंदिर :विक्रम की 14 वीं शती तक ये मंदिर एवं यह तीर्थ प्रख्यात कोरटा के दक्षिण की ओर स्थित यह जिनालय सादी शिल्पकला एवं उपासना के केन्द्र थे। धनलोभी एवं धर्मांध शासक अलाउद्दीन का नमूना है। यहाँ पर वि.सं. 1728 में मूलनायक की प्रतिमा खंडित खिलजीने इन मंदिरों को तोडा । तलहटी में नगर के मंदिरों को भी या विलोप हो जाने से श्री जयविजय गणिने नूतन प्रतिमा विराजमान नष्ट किया, और कई मंदिरों को मस्जिद में परिवर्तित कर लिया।107 करवायी।।।। कालान्तर में यह प्रतिमा भी खंडित हो जाने से आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने प्रेरणा देकर जीर्णोद्धार करवाकर श्री विक्रम की 7 वीं शती में जालोर के जोधपुर निवासी मंत्री श्री जयमल मुह्रोत ने स्वद्रव्य से ध्वस्त जिनालयों का पुनरुद्धार करवाकर 104. नवनवइ लक्खधणवइ अलद्धवासे सुवण्णगिरि सिहरे । विसं 1681-86 में कई प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करवाई थी।108 नाहडनिवकारवियं थुणि वीरं जक्खवसहीए ॥1॥ - श्रीमद् राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ पृ. 82 कालान्तर में राजकीय कर्मचारियों ने इन मंदिरों में युद्ध 105. श्री जैनसत्यप्रकाश-दीपोत्सवी अंक, सन् 1998 - पृ. 7 सामग्री आदि भरकर चारों ओर कांटे लगा दिये थे। वि.सं. 1932 106. वही पृ. 82.83 के उत्तरार्ध में जालोर पधारने पर गुरुदेवश्री को उक्त बातें ज्ञात हुई। 107. धरती के फूल पृ. 215, 216 श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ पृ. 83 किले पर राज्य का अधिकार था एवं भीतर प्रवेश की मना थी। 109. (क) धरती के फूल पृ. 215, 216 ऐसे समय में आपने किलाधिकारी विजयसिंह को मिलकर जिनालयों (ख) श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ, 83, 84 एवं जिनबिम्बों की आशातना स्वयं जाकर देखी और जोधपुर नरेश (ग) संवच्छुभे त्रयस्त्रिंशन्नन्दैक विक्रमाद्वरे। यशवंतसिंहजी को सारा वृत्तांत बताकर प्रतिबोधित करके पुन: किले माघमासे सिते पक्षे, चन्द्रे प्रतिपदातिथौ ॥१॥ जालंधरे गढे श्रीमान्, श्री यशवंतसिंह राट् । के सभी मंदिर शस्त्रों से खाली करवाकर जिनालयों का सर्वाधिकार तेजसा घुमणिः साक्षात्, खंडयामास यो रिपून् ॥2।। जैन श्रीसंघ को दिलवाया। एवं प्रत्येक महीने में 12 उपवास एवं विजयसिंहश्व किलादार धर्मी महाबली । 18 आयम्बिल के आठ मास तक के उग्र तप सहित वि.सं. 1933 तस्मिन्नवसरे संधैर्जीर्णोद्धारश्च कारितः ॥3॥ का चातुर्मास जालोर में करते हुए मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवा कर चैत्य चतुर्मुखं सूरिराजेन्द्रेण प्रतिष्ठितम् । एवं श्रीपार्श्वचैत्येऽपि प्रतिष्ठा कारिता वर ||4|| ओशवंशी प्रतापमल जी कानूंगा के हाथ से प्रतिमाजी विराजमान करवाकर ओशवंशे निहालस्य चौधरी कानुगस्य च। आचार्यश्री ने नौ (9) उपवास के तप सहित वि.सं. 1933 में माघ सुतप्रतापमल्लेनप्रतिमा स्थापिता शुभ ॥5॥ शुक्ल प्रतिपदा के दिन इन तीनों मन्दिरों की पुनः प्रतिष्ठा की।109 - श्री ऋषभ जिनप्रासादात् उल्लिखतम् ॥ -- श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रंथ तत्पश्चात् आपके शिष्यरत्न श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी एवं 110. धरती के फूल पृ. 215, 216 विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी ने इस तीर्थ का जीर्णोद्धार कार्य करवाया एवं 11. धरती के फूल पृ. 217 108. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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