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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [159]
सम्यग्दर्शन
जैन परम्परा में सम्यक्-दर्शन, सम्यक्त्व और सम्यक्-दृष्टि शब्दों का प्रयोग समान अर्थ में हुआ है। यद्यपि आचार्य जिनभद्रने विशेषावश्यकभाष्य में सम्क्त्व और सम्यक्-दर्शन के भिन्न-भिन्न अर्थों का निर्देश किया है। सम्यक्त्व वह है जिसके कारण श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र सम्यक् बनते हैं। सम्यक्त्व का अर्थ-विस्तार सम्यग्दर्शन से अधिक व्याप्त है, फिर भी सामान्यतया सम्यग् दर्शन और सम्यक्त्व शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त किये गये हैं। वैसे सम्यग्दर्शन शब्द में सम्यक्त्व निहित है। दर्शन का अर्थ:
दर्शन शब्द जैनागमों में अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। जीवादि पदार्थों के स्वरुप को देखना, जानना, श्रद्धा करना 'दर्शन' है। सामान्यतया दर्शन शब्द देखने के अर्थ में व्यवहृत होता है लेकिन यहाँ दर्शन शब्द का अर्थ नेत्रजन्य बोध मात्र नहीं है। उसमें इन्द्रिय-बोध, मनोबोध और आत्मबोध सभी सम्मिलित है। दर्शन शब्द के अर्थ के संबंध में जैन-परम्परा में काफी विवाद रहा है। दर्शन को ज्ञान से अलग करते हुए विचारकोंने दर्शन को अन्तर्बोध या प्रज्ञा और ज्ञान को बौद्धिक ज्ञान कहा है-2 । नैतिक जीवन की दृष्टि से विचार करने पर दर्शन शब्द का प्रयोग उसके दृष्टिकोणपरक । अर्थ का द्योतक है । तत्त्वार्थसूत्र और उत्तराध्ययन सूत्र में 'दर्शन' शब्द का अर्थ 'तत्त्वश्रद्धा' के रुप में और परवर्ती जैन साहित्य में देव-गुरु-धर्म के प्रति श्रद्धा या भक्ति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने सम्मत (सम्यक्त्व) शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है - जीव का स्वयं का भाव (स्वभाव) - प्रशस्त, मोक्ष से अविरोधीभाव, प्रशम-संवेगादि लक्षणवान् आत्मधर्म, सम्यग्भाव, तत्त्वार्थश्रद्धान, सम्यग्दर्शन, मिथ्यात्वमोहनीय के क्षयोपशमादि से उत्पन्न जीव के परिणाम, ज्ञान-दर्शन-चारित्र के परवर्ती प्रयोजनरुप सामायिक, जीवादि पदार्थों में श्रद्धा 'सम्यक्त्व' सम्यग्दृष्टि या सम्यग्दर्शन कहलाता है।
आचार्य कुंदकुंदने दर्शन पाहुड में सम्यग्दर्शन की परिभाषा देते हुए कहा है - "छ: द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्त्व जिनोपदिष्ट हैं। जो उनके यथार्थ स्वरुप का श्रद्धान करता है उसे सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। किन्तु जीवादि पदार्थों के श्रद्धान को व्यवहार नय से सम्यग्दर्शन कहा है किन्तु निश्चयनय से आत्मा ही सम्यग्दर्शन है-6 | मोक्ष प्राभृत में कहा है कि "हिंसारहित धर्म में अठारह दोषों से रहित देव में और निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धान करना, सम्यग्दर्शन है" 7 नियमसार में कहा है कि "आप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धान से सम्यग्दर्शन होता है28 तथा समस्त दोषों से रहित और समस्त गुणमय आप्त होते हैं। रत्नकरंडक श्रावकाचार में परमार्थ आप्त, परमार्थ आगम और परमार्थ तपस्वियों का जो अष्टांग सहित, तीन मूढता रहित तथा मदविहीन श्रद्धान है, उसे 'सम्यग्दर्शन' कहते है । अत: मिथ्या दर्शनादि की निवृत्ति हेतु सूत्रकारने दर्शन आदि तीनों के साथ 'सम्यक्' विशेषण का प्रयोग किया है। सम्यग्दृष्टि का ज्ञान और क्रिया मोक्ष के साधन है। सम्यग्दर्शन की परिभाषा:
अपने-अपने स्वभाव में स्थित तत्त्वार्थ के श्रद्धान को
सम्यग्दर्शन कहते हैं।।। अथवा मिथ्योदयजनित विपरीत अभिनिवेश से रहित पंचास्तिकाय, षड्द्रव्य, जीवादि सात या नौ तत्त्व का यथातथ्य श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । अथवा दर्शन मोहनीय कर्म के उपशम, क्षय या क्षयोपशमरुप अन्तरङ्ग कारण से जो तत्त्वार्थ श्रद्धान होता है, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं । इस अन्तङ्ग कारण की पूर्णता कहीं निसर्गतः (स्वभावतः) होती है और कहीं अधिगम (परोपदेश) से होती है ।
सामान्य रुप से सम्यग्दर्शन एक है, निसर्गज और अधिगमज के भेद से दो प्रकार का है, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का है, शब्दों की अपेक्षा से संख्यात प्रकार का तथा श्रद्धान करनेवालों की अपेक्षा से असंख्यात प्रकार का है और श्रद्धा योग्य पदार्थों एवं अध्यवसायों की अपेक्षा से अनन्त प्रकार का है।
जिसकी दृष्टि सम्यक् (आत्मस्वरुप चिन्तनपरक) है, वह सम्यग्दृष्टि है। उसके दर्शन, ज्ञान, चारित्र ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र कहलाते हैं। सम्यग्दर्शन के पर्यायवाची नाम एवं नियुक्ति:
आवश्यक नियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु स्वामीने कहा है कि "सम्यग्दृष्टि, अमोह, शुद्धि, सद्भाव, दर्शन, बोधि, अविपर्यय, सुदृष्टि आदि इसके पर्याय है। सम्यग्दृष्टि की नियुक्ति करते आपने
आगे कहा है-"जो सम्यग् अर्थों का दर्शन करे, वह सम्यग्दृष्टि है। विचारों में अमूढता 'अमोह' है। मिथ्यात्वरुपी मल का दूर होना 'शुद्धि' है। भावों की उपस्थिति 'सद्भाव' है। यथास्थित अर्थ का होना 'दर्शन' है। सुन्दर दृष्टि 'सुदृष्टि' है। इस प्रकार सात प्रकार से सम्यक्त्व की निरुक्ति की गयी है।5 रनकरंडक श्रावकाचार में इसका एक नाम सदृष्टि भी आया है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति की प्रक्रिया:
प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में रहनेवाली विकासगामिनी एसी 19. विसेषावश्यक भाष्य 1787-90 20. अ.रा.पृ. 7/482, 7/506 21. अ.रा., पृ. 4/2425 22. जैन-बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ.48 23. अ.रा.पृ. 4/2425 24. अ.रा.पृ. 7/485 तत्त्वार्थसूत्र 1/2; उत्तराध्ययन सूत्र 28/35 25. अ.रा.पृ. 7/482; तत्त्वार्थसूत्र-1/2; उत्तराध्ययन सूत्र 28/35 26. दर्शनपाहु गाथा 19, 20; समयसार, गाथा, 201, 202 27. मोक्षपाहुड, गाथा-90 28. नियमसार, गाथा-5 29. रत्नकरंडक श्रावकाचार, गाथा-4 30. नाणकिरियाहिं मोक्खो ।- विशेषावश्यक भाष्य-3 31. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।-तत्त्वार्थसूत्र-1/2 32. पंचास्तिकाय तात्पर्यवृत्ति 107, 169, 24 33. प्रणिधान विशेषहितद्वैविध्यजनितव्यापारं तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्। -
तत्त्वार्थ राजवार्तिक 34. तन्निसर्गादधिगमाद्वा ।-तत्त्वार्थसूत्र-1/3 35. आवश्यक नियुक्ति 1/862 36. सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वराः विदुः।- रत्नकरंडक श्रावकाचार,
दर्शनाधिकार 3 37. अ.रा.पृ. 7/507 से 511 आवश्यक नियुक्ति, गाथा 107 एवं आवश्यक
दीपिका टीका, पृ. 37 से 39
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