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________________ [160]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अनेक आत्माएँ होती है; जो राग-द्वेष की तीव्रता को थोडा सा दबाये हो; तो उसका ऊपर ऊपर से मैल दूर करना उतना कठिन और श्रमसाध्य होने पर भी मोह की प्रधान शक्ति दर्शनमोह को शिथिल किये हुए नहीं है, जितना कि चिकनाहट को दूर करना । यदि एक बार चिकनाहट नहीं होती। इस कारण वे आध्यात्मिक लक्ष्य के प्रति सर्वथा दूर हो जाये तो फिर शेष मैल को दूर करने में विशेष श्रम नहीं अनुकूलगामिनी न होने पर भी अन्य आत्माओं की अपेक्षा अपने बोध पडता और वस्त्र को उसके असली स्वरुप में सहज ही लाया जा और चारित्र में अच्छी होती हैं। ये आत्माएँ यद्यपि आध्यात्मिक दृष्टि सकता है। से सर्वथा आत्मोन्मुख न होने का कारण मिथ्यादृष्टि, विपरीत दृष्टि जैसे उक्त तीनों प्रकारों के बल प्रयोगों में चिकनाहट को या असद् दृष्टि कहलाती है; तथापि सद्वृष्टि के निकट होने के कारण दूर करनेवाला बल प्रयोग ही विशिष्ट है। वैसे ही दर्शनमोह को जीतने उपादेय मानी जाती हैं। के पहले विकासगामिनी आत्मा को उसके रक्षक राग-द्वेष के तीव्र सद्-असद् दृष्टिवाली आत्मा का परिचय देते हुए कहा है संस्कारों को शिथिल करने के लिए तीन बार बल प्रयोग करना पडता कि "जिसमें आत्मा का स्वरुप भासित होता है और उसकी प्राप्ति है। उनमें दूसरी बार किया जानेवाला बल प्रयोग (अपूर्वकरण) ही के लिए ही मुख्य प्रवृत्ति होती है; वह सद्दृष्टि है और इसके विपरीत प्रधान है। क्योंकि उसके द्वारा राग-द्वेष की तीव्रतम ग्रंथि भेदी जाती जिसमें आत्मा का स्वरुप न तो यथावत् भासित होता है और न है और राग-द्वेष की अति तीव्रता मिटा देने पर दर्शन मोह पर जय उसकी प्राप्ति के लिए ही प्रवृत्ति होती है, वह असद्दृष्टि है। इन लाभ प्राप्त करना सहज हो जाता है। दोनों के बोध, वीर्य और चारित्र के तर-तम भाव को लक्ष्य में रखकर दर्शन मोह को जीतते ही उसके मिथ्यात्व नामक प्रथम चार-चार भेद होते हैं। इनमें विकासगामिनी आत्माओं का समावेश गुण स्थान की समाप्ति हो जाती है, स्वरुप-बोध की भूमिका बँध हो जाता है। जाती है और पर-रुप में होनेवाली स्वरुप की भ्रांति दूर हो जाती शारीरिक और मानसिक दुःखों की संवेदना के कारण अज्ञात है तथा उसके प्रयत्नों की गति उल्टी न होकर सीधी हो जाती है। रुप में ही 'गिरि-नदी-पाषाण न्याय से आत्मा का आवरण कुछ शिथिल याने वह आत्मा कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक कर सहज शुद्ध परमात्महो जाता है और इसके कारण उसके अनुभव एवं वीर्योल्लास की आभा भाव के दर्शन करने लगती है। कुछ बढती है और विकासगामिनी आत्मा के परिणामों में कुछ शुद्धि आत्मा की इस अवस्था को जैन-दर्शन में अन्तरात्म-भाव व कोमलता बढ़ती है। इस कारण वह राग-द्वेष की तीव्रतम दुर्भेद्य कहा गया है; क्योंकि यहआत्म-मंदिर का प्रवेश द्वार है। इसमें प्रवेश ग्रंथि को विखंडित करने की योग्यता बहुत अंशों में प्राप्त कर लेती करके उस मंदिर में अधिष्ठित परमात्म-भाव का दर्शन किया जाता है। यहाँ पर अज्ञान तप के द्वारा आयुष्य कर्म के सिवाय अन्य सात है। अथवा इसे मोक्ष-प्रासाद के प्रवेश द्वार की प्रथम सीढी भी कह कर्मो की स्थिति में से जब संख्यात कोडाकोडी भाग आत्मा के द्वारा सकते हैं। क्षय कर के नष्ट कर दिया जाता है एवं अत्यन्त दुर्भेद्य मिथ्यात्व की _आत्मा की यह अवस्था विकासक्रम की चौथी भूमिका अर्थात् ग्रन्थि का भेदन करने के लिए जीव ग्रंथि के पास पहुँचता है और अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान है। इसे पाकर आत्मा सर्वप्रथम आध्यात्मिक भव्यात्मा 'यथाप्रवृत्तिकरण' अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक तीन सुख-शान्ति का अनुभव करती है। इस भूमिका में आध्यात्मिक दृष्टि करण करता है । इस अज्ञानपूर्वक दुःखसंवेदनाजनित अति आत्मशुद्धि यथार्थ आत्म-स्वरुपोन्मुख होने के कारण विपरीताभिनिवेश रहित होती के लिए जैन दर्शन में 'यथाप्रवृत्तिकरण' शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका शास्त्रीय नाम सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व का द्विविध वर्गीकरण :इसके बाद जब कुछ और अधिक आत्मशुद्धि एवं वीर्योल्लास (अ) निश्चय सम्यक्त्व और व्यवहार सम्यक्त्वकी आभा बढती है; तब मिथ्यात्व की उस दुर्भेद्य ग्रंथि का भेदन किया जाता है। इस ग्रंथिभेदकारक आत्माशुद्धि की क्रिया को 'अपूर्वकरण' 1. निश्चय सम्यक्त्व - राग, द्वेष और मोह का अत्यल्प हो जाना, कहते है; क्योंकि एसा करणपरिणाम विकासगामिनी आत्मा के लिए पर-पदार्थो से भेद ज्ञान एवं स्वरुप में रमण, देह में रहते हुए देहाध्यास अपूर्व होता है। यह उसे प्रथम बार प्राप्त होता है। का छूट जाना, निश्चय सम्यक्त्व के लक्षण हैं। मेरा शुद्ध स्वरुप अनन्त इसके बाद आत्मशुद्धि और वीर्योल्लास की मात्रा कुछ अधिक ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त आनन्दमय है। पर-भाव या आसक्ति बढती है; तब आत्मा मोह की प्रधान शक्तियों पर (दर्शनमोह पर) ही बंधन का कारण है और स्वस्वभाव में रमण करना ही मोक्ष का अवश्य विजय प्राप्त करती है अत: विजयकारक आत्मशुद्धि के लिए सेतु है। मैं स्वयं ही अपना आदर्श हूँ, देव, गुरु और धर्म मेरी आत्मा जैन दर्शन में 'अनिवृत्तिकरण' शब्द का उपयोग किया गया है। ही है, एसी दृढ श्रद्धा का होना ही निश्चय सम्यक्त्व है। आत्मउक्त तीन प्रकार की शुद्धियों में दूसरी अपूर्वकरण नामक केन्द्रित होना यही निश्चय सम्यक्त्व है। शुद्धि ही अत्यन्त दुर्लभ है; क्योंकि राग-द्वेष के तीव्रतम वेग को 2. व्यवहार सम्यक्त्व- वीतराग में देवबुद्धि (आदर्श बुद्धि), रोकने का अतिदुष्कर श्रमसाध्य कार्य इसी के द्वारा किया जाता है, पाँच महाव्रतों का पालन करनेवाले मुनियों में गुरुबुद्धि और जिन प्रणीत वह सहज नहीं है। एक बार इस कार्य में सफलता मिल जाने पर धर्म में सिद्धान्तबुद्धि रखना-व्यवहार सम्यक्त्व है। फिर चाहे विकासगामिनी आत्मा ऊपर की किसी भूमिका से पतित (इ) निसर्गज सम्यक्त्व और अधिगमज सम्यक्त्व"भी हो जाये; तो भी वह पुनः कभी भी अपने लक्ष्य को/आध्यात्मिक 1. निसर्गज सम्यक्त्व - जिस प्रकार नदी के प्रवाह में पड़ा पूर्ण विकास को प्राप्त कर ही लेती है। इस आध्यात्मिक परिस्थिति हुआ पत्थर बिना प्रयास के ही स्वाभाविक रुप से गोल हो जाता का कुछ स्पष्टीकरण एक दृष्टांत द्वारा करते हैं। है, उसी प्रकार संसार में भटकते हुए प्राणी को अनायास ही जब जैसे कोई मैला वस्त्र हो और उसमें चिकनाहट भी लगी कर्मावरण के अल्प होने पर यथार्थता का बोध हो जाता है, तो एसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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