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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [161] सत्य-बोध निसर्गज होता है। बिना किसी गुरु आदि के उपदेश के, और एक बार प्रकट होने पर कभी नष्ट नहीं होता है। शास्त्रीय स्वाभाविक रुप में स्वत: उत्पन्न होनेवाला, सत्य-बोध निसर्गज सम्यक्त्व भाषा में यह सादि-अनन्त होता है। कहलाता है।
3. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व - मिथ्यात्वजनक उदयगत 2. अधिगमज सम्यक्त्व - गुरु आदि के उपदेश रुप निमित्त (क्रियमाण) कर्म-प्रकृतियों के क्षय हो जाने पर और अनुदित से होनेवाला सत्य-बोध या सम्यक्त्व अधिगमज सम्यक्त्व कहलाता (सत्तावान या संचित) कर्म-प्रकृतियों का उपशम हो जाने पर
जो सम्यक्त्व प्रकट होता है वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व का त्रिविध वर्गीकरण:
यद्यपि सामान्य दृष्टि से यह अस्थायी ही है, फिर भी एक अपेक्षा भेद से सम्यक्त्व का त्रिविध वर्गीकरण भी किया गया है।
लम्बी समयावधि (छाछठसागरोपम से कुछ अधिक) तक अवस्थित जैसे कारक, रोचक और दीपक।
रह सकता है। 1. कारक सम्यक्त्व- जिस यथार्थ दृष्टिकोण के होने पर व्यक्ति
सास्वादन सम्यक्त्व - औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व सदाचरण या सम्यक्त्व चारित्र की साधना में अग्रसर होता है वह की भूमिका में सम्यक्त्व के रस का पान करने के पश्चात् जब कारक सम्यक्त्व है।
साधक पुनः मिथ्यात्व की ओर लौटता है तब सम्यक्त्व को 2. रोचक सम्यक्त्व- जिसमें व्यक्ति शुभ को शुभ और अशुभ
वमन करते समय सम्यक्त्व का भी कुछ आस्वाद रहता है। को अशुभ के रुप में जानता हो और शुभ प्राप्ति की इच्छा भी करता
जीव की एसी स्थिति सास्वादन सम्यक्त्व कहलाती है। हो, लेकिन उसके लिए प्रयास नहीं करता। सत्यासत्य विवेक होने 5. वेदक सम्यक्त्व - जब जीव क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की पर भी सत्य का आचरण नहीं कर पाना रोचक सम्यक्त्व है।
भूमिका से क्षायिक सम्यक्त्व की प्रशस्त भूमिका पर आगे बढता 3. दीपक सम्यक्त्व - जिसमें व्यक्ति अपने उपदेश से दूसरों में
है और इस विकास-क्रम में जब वह सम्यक्त्व मोहनीय कर्मतत्त्व जिज्ञासा उत्पन्न कर देता है और परिणामस्वरुप होनेवाले उनके
प्रकृति के कर्म दलिकों का अनुभव कर रहा होता है, तो सम्यक्त्व यथार्थ बोध का कारण बनता है। दीपक सम्यक्त्ववाला व्यक्ति वह
की यह अवस्था 'वेदक सम्यक्त्व' कहलाती हैं । वेदक सम्यक्त्व है जो दूसरों को सन्मार्ग पर लगा देने का कारण बन जाता है, लेकिन
के अनन्तर जीव क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है। स्वयं कुमार्ग का ही पथिक बना रहता है। जैसे कोई नदी के तीर
वस्तुतः सास्वादन और वेदकसम्यक्त्व सम्यग्दर्शन की मध्यान्तर पर खडा व्यक्ति किसी मध्य नदी में थके हुए तैराक का उत्साहवर्धन
अवस्थाएँ हैं - पहली सम्यक्त्व से मिथ्यात्व की ओर गिरते समय कर उसे पार लगने का कारण बन जाता है, यद्यपि न तो स्वयं तैरना
और दूसरी क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से क्षायिक सम्यक्त्व की ओर जानता है और न ही पार होता है।
बढते समय होती है। सम्यक्त्व का त्रिविध वर्गीकरण एक अन्य प्रकार से भी
सम्यक्त्व का दसविध वर्गीकरण:किया जाता है, जिसका आधार कर्म-प्रकृतियों का क्षयोपशम है।
उपरोक्त सम्यक्त्व के औपशमिकादि पाँच भेद के निसर्ग जैन सिद्धान्त में अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मिथ्यात्व और अधिगम दोनो प्रकार के भेद से दस प्रकार होते हैं अथवा सम्यग्दर्शन मोह, मिश्र मोह और सम्यक्त्व-मोह -ये सात कर्म प्रकृतियाँ सम्यक्त्व की उत्पत्ति के आधार पर उसके निसर्ग-उपदेशादि अग्रलिखित दश (यथार्थ बोध) की विरोधी हैं।
भेद होते हैं। इनमें सम्यक्त्व मोहनीय को छोड शेष छः कर्म प्रकृतियाँ
38. अ.रा.पृ. 4/1982: आवश्यक नियुक्ति, गाथा 106 एवं उस पर दीपिका उदय में होती है तो सम्यक्त्व का प्रगटन नहीं हो पाता । सम्यक्त्वमोह टीका मात्र सम्यक्त्व की निर्मलता और विशुद्धि में बाधक है। कर्म- 39. अ.रा.पृ. 7/482-483 प्रकृतियों की तीन स्थितियाँ हैं - (1) क्षय (2) उपशम और
40. अ.रा.पृ. 71482-483
41. अ.रा.पृ. 7/483, 484; स्थानांग 2/9/70 (3) क्षयोपशम । इसी आधार पर सम्यक्त्व का यह वर्गीकरण किया
अ.रा., पृ. 7/483; प्रवचन सारोद्धार टीका-957; श्रावक प्रज्ञप्ति-33 गया है (1) औपशमिक सम्यक्त्व (2) क्षायिक सम्यक्त्व और
43. श्रावक प्रज्ञप्ति-49 (3) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के भेद से तीन प्रकार से। औपशमिक
44. श्रावक प्रज्ञप्ति-49 क्षायिक-क्षायोपशमिक और सास्वादन के भेद से चार प्रकार से 45. श्रावक प्रज्ञप्ति-50
और औपशमिक-क्षायिक-क्षायोपशमिक-सास्वादन और वेदक के 46. अ.रा.पृ. 7/483; प्रवचनसारोद्धार 958; विशेषावश्यक भाष्य 2675; श्रावक भेद से पाँच प्रकार से होता है।
प्रज्ञप्ति 43
47. अ.रा.पृ. 7/483; प्रवचनसारोद्धार 962; विशेषावश्यक भाष्य-528 कर्मों की स्थिति के आधार पर सम्यक्त्व के भेदः
48. अ.रा.प. 3/99; विशेषावश्यक भाष्य 529, 530; श्रावक प्रज्ञप्ति 45, 1. औपशमिक सम्यक्त्व - उपर्युक्त (क्रियमाण) कर्म
46, 47 प्रकृतियों के उपशान्त (दबाई हुई) होने पर जो सम्यक्त्व 49. अ.रा.प. 3/688; विशेषावश्यक भाष्य गाथा 533: श्रावक प्रज्ञप्ति 48 गुण प्रगट होता है वह औपशमिक सम्यक्त्व है। इसमें
50. अ.रा.पृ. 3/690; विशेषावश्यक भाष्य गाथा 532; श्रावक प्रज्ञप्ति 44
51. अ.रा.पृ. 7/483 एवं 794; विशेषावश्यक भाष्य-531 स्थायित्व का अभाव होता है। शास्त्रीय दृष्टि से यह अन्तर्मुहर्त
___52. अ.रा.पृ. 6/1432: विशेषावश्यक भाष्य-533 (48 मिनट) सेअधिक नहीं टिकता है।
53. अ.रा.पृ. 7/483, 484; प्रवचनसारोद्धार 149/963; उत्तराध्ययन सूत्र 28/ क्षायिक सम्यक्त्व - उपर्युक्त सातों कर्म-प्रकृतियों के क्षय
31;प्रज्ञापनासूत्र, गाथा 132; निशीथसूत्र 1/23; स्थानांग 10/104 हो जाने पर जो सम्यक्त्व रुप यथार्थ बोध प्रकट होता है; 54. अ.रा.पृ. 7/483, 484, पृ. 7/506; प्रवचनसारोद्धार 149/964; स्थानांग
वह क्षायिक सम्यक्त्व है। यह यथार्थ बोध स्थायी होता है 10/3; उत्तराध्ययन सूत्र-28/17 से 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only
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