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[162]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
1. निसर्ग रुचि - जो यथार्थ दृष्टिकोण व्यक्ति में स्वत: ही उत्पन्न
हो जाता है, वह निसर्गरुचि सम्यक्त्व है। 2. उपदेश रुचि - वीतराग की वाणी को सुनकर जो यथार्थ
दृष्टिकोण या श्रद्धान होता है, वह उपदेश रुचि सम्यक्त्व है। 3. आज्ञा रुचि - वीतराग के नैतिक आदेशों को मानकर जो
यथार्थ दृष्टिकोण उत्पन्न होता है अथवा तत्त्व-श्रद्धा होती है
वह आज्ञारुचि सम्यक्त्व है। 4. सूत्र रुचि - अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ग्रंथो के अध्ययन के
आधार पर जो यथार्थ दृष्टिकोण या तत्त्व-श्रद्धान होता है, वह
सूत्ररुचि सम्यक्त्व है। 5. बीज रुचि - यथार्थता के स्वरुप के बोध को स्वचिन्तन
के द्वारा विकसित करना, बीजरुचि सम्यक्त्व है। 6. अभिगम रुचि - अंग साहित्य और अन्य ग्रंथों का अर्थ
एवं व्याख्या सहित अध्ययन करने से जो तत्त्व बोध एवं तत्त्व
श्रद्धा उत्पन्न होती है, वह अभिगम रुचि सम्यक्त्व है। 7. विस्ताररुचि - वस्तु तत्व के अनेक पक्षों का विभिन्न अपेक्षाओं। एवं प्रमाणों के द्वारा अवबोध कर उनकी यथार्थता पर श्रद्धा
थिता पर श्रद्धा करना, विस्तार-रुचि सम्यक्त्व है। क्रिया रुचि - प्रारंभिक रुप में साधक जीवन की विभिन्न क्रियाओं के आचरण में रुचि हो और उस साधनात्मक अनुष्ठान के फलस्वरुप यथार्थता का बोध हो, वह क्रिया रुचि सम्यक्त्व
2.सुदृष्ट परमार्थ संस्तव - ज्ञान-दर्शन-चारित्रयुक्त मुनियों की सेवा, भक्ति, विनय, वैयावृत्यादि करना, उनके प्रति हार्दिक बहुमान रखना - 'सुदृष्टपरमार्थ संस्तव' नामक द्वितीय श्रद्धा कहलाती है। 3. व्यापन्न दर्शन वर्जन - जिस आत्माओं ने सम्यकत्व ग्रहण करके उसका त्याग वमन कर दिया हो, एसे पतित जीवों का तथा निह्नव, यथाच्छंद, पार्श्वस्थ, कुशील, वेष विडंबक, शिथिलाचारी और अज्ञानी जीवों के परिचय का त्याग करना और उनसे दूर रहना 'व्यापन्न दर्शन' नामक तृतीय श्रद्धा है। 4. कुदर्शन देशना परिहार/त्याग - शाक्यादि परदर्शनी, अन्यधर्मी, मिथ्यादृष्टि जीवों के परिचय का त्याग करना, एसे लोगों के पास धर्मश्रवण नहीं करना - यह 'कुदर्शन परिहार' नामक चतुर्थ
संक्षेप रुचि - जो वस्तु तत्व का यथार्थ स्वरुप नहीं जानता और जो आहेत प्रवचन में प्रवीण भी नहीं है लेकिन जिसने अयथार्थ को अंगीकृत भी नहीं किया, जिसमें यथार्थ ज्ञान की अल्पता होते हुए भी वह मिथ्यात्व धारी नहीं है, वह संक्षेप
रुचि सम्यक्त्व है। 10. धर्म रुचि - तीर्थंकर प्रणीत सत् के स्वरुप, आगम साहित्य
एवं नैतिक नियमों पर श्रद्धा रखना, उन्हें यथार्थ मानना - धर्म रुचि सम्यक्त्व है।
सम्यक्त्व के 67 भेद :4 प्रकार की श्रद्धा 3 प्रकार के सम्यक्त्व के लिङ्ग 10 प्रकार का विनय 3 प्रकार की शुद्धि 5 प्रकार के सम्यक्त्व 8 प्रकार के जैन शासन के के दूषण
प्रभावक 5 प्रकार के सम्यक्त्व 5 प्रकार के सम्यक्त्व के लक्षण
भूषण प्रकार की जयणा 6 प्रकार का सम्यक्त्व का आगार प्रकार की सम्यक्त्व 6 प्रकार के सम्यक्त्व के स्थान
की भावना चार श्रद्धान:1. परमार्थ संस्तव - जिनेश्वर कथित जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष - इन नव तत्त्वों के रहस्यों को यथार्थज्ञानपूर्वक जानकर उनमें श्रद्धा रखना। यदि इतनी ज्ञानदशा न भी हो तो भी 'जं जिणेहिं पन्नत्तं तमेव सच्चं' एसी दृढ श्रद्धा रखना - 'परमार्थ संस्तव' कहलाता है।
सम्यकत्व के तीन लिङ्गा:1. शुश्रूषा - कोई युवक, परिणीत स्त्री (पत्नी) युक्त और संगीतज्ञ पुरुष की संगीत श्रवण की आसक्ति से भी अतिशय श्रुतराग - धर्मरागपूर्वक धर्म श्रवण करना - 'श्रुताभिलाष' अर्थात् 'शुश्रूषा' नामक प्रथम लिङ्ग है। 2. धर्मराग धर्मरुचि - भूखे, अरण्य को पार कर आये हुए ब्राह्मण के तीव्र इच्छापूर्वक के मनोहर घेवर के भोजन से भी अधिक तीव्र इच्छापूर्वक धर्मपालन की इच्छा होना 'धर्मराग' नामक द्वितीय लिङ्ग है। 3. वैयावृत्त्य - प्रमादरहित होकर विद्यासाधक की विद्या साधना की तरह संपूर्ण प्रमादरहित होकर सुदेव-गुरु की भक्ति, सेवा करना, "वैयावृत्त्य" नामक तृतीय लिङ्ग है। सम्यकत्व में 10 प्रकार के विनय:1. अरिहंत - तीर्थंकर 2. सिद्ध-अष्ट कर्म क्षयपूर्वक 3. चैत्य - जिन प्रतिमा मोक्ष प्राप्त परमात्मा 4. सूत्र - जैनागम 5. धर्म - क्षमादि 10 धर्म 6. साधु - मुनि 7. आचार्य - धर्म शासन के नायक 8. उपाध्याय - पाठक ___9. प्रवचन - चतुर्विध संघ 10. दर्शन - सम्यकत्व
इन दशों का (1) भक्ति (2) बहुमान (3) गुणस्तुति (4) हेलना त्याग (छद्मस्थतावश यदि उनमें कोई दोष हो तो साधु आदि के दोषों को प्रकट नहीं करना और (5) आशातना त्याग - इन पाँच प्रकारों से विनय करना "विनय" कहलाता है। सम्यक्त्व की तीन शुद्धियां:1. मनः शुद्धि-जिनेश्वर परमात्मा और उनके द्वारा प्ररुपित जैन धर्म के अलावा संसार के सभी देव और उनके द्वारा दर्शित धर्म झूठ है - एसे पक्षयुक्त निर्मल बुद्धि प्रथम 'मनःशुद्धि' कहलाती है। 2. वचन शुद्धि - जिनेश्वर परमात्मा की भक्ति, सेवा, पूजा, उपासना से स्वयं के निकाचित कर्मोदय के कारण जो कार्य नहीं हुआ वह अन्य
55. अ.रा.पृ. 7/484; सम्यक्त्वसप्ततिका 5/6; धर्मरत्नप्रकरण 1/1 से 16 56. अ.रा.पृ. 7/484; सम्यक्त्वसप्ततिका 11, 12; प्रज्ञापना सूत्र-गाथा-131 57. अ.रा.पृ. 7/484, 485, 500; सम्यकत्वसप्ततिका-13 58. अ.रा.पृ. 6/1451571484, 485, सम्यकत्वसमतिका-11 59. अ.रा.पृ. 7/484, 485; सम्यकत्वसप्ततिका-25
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