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________________ [92]... द्वितीय परिच्छेद इतना ही नहीं इसके साथ ही जैनविद्या के अध्येताओं के लिए यह एक निर्णायक मत उपलब्ध कराता हैं। इस ग्रन्थ का रचनाकाल वह काल है जब प्राकृत भाषा का कोई मानक कोश उपलब्ध नहीं था। आज भी इसके जैसा दूसरा अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन कोई कोश तैयार नहीं हो सका हैं। हमने इसके रचनाकाल, स्थान, उद्देश्य, रचना की पृष्ठभूमि, विषयवस्तु विभाग, नामकरण एवं विषयवस्तु का पूर्ण परिचय देने का प्रयत्न किया हैं, जो कि अध्याय की सामग्री से स्पष्ट 1 वंदामि विणयपणओ, संघमहामंदरगिरिस्स ! सम्मदंसणवरवइर - द्दढरुढगाढावगाढपेढस्स । धम्मवररयणमंडिअ - चामीयरमेहलागस्स ॥ 1 ॥ नियमूसियकणयसिला - यलुञ्जलजलंतचित्तकूडस्स । नंदणवणमणहरसुरभि - सीलगंधुद्धमायस्स ॥ 2 ॥ जीवदयासुंदरकं - दरुद्दरियमुणिवरमइंदइन्नस्स । उस धाउपगलं - तरयणदित्तोसहिगुहस्स ॥। 3 ॥ संवरजलपगलियउ - ज्झरपविरायमाणहारस्स । सावगजणपउरखं - तमोरनच्चंतकुहरस्स ॥ 4 ॥ विणयनयपवरमुणिवर - फुरंतविज्जुलंतसिहरस्स । विविहगुणकप्परुक्खग फल भर कुसुमाउलवणस्स ॥ 5 ॥ नाणवररयणदिप्पं- तकंतवेरुलियविमलचूलस्स । वंदामि विणयपणओ, संघमहामंदरगिरिस्स ॥ 6 ॥ परतिर्थिकों के वासनारुप जल के प्रवेश का अभाव होने से शंकादि दूषणरहित दृढ, जीवादि पदार्थों के सम्यग्बोध द्वारा प्राप्त प्रथमभूमिकायुक्त, प्रतिसमय विशुद्धयमान प्रशस्त अध्यवसायरुढ, उत्तरगुणरुप रत्नजडित मूलगुणरुप मेखलावाले श्रेष्ठ धर्मरत्न से अलंकृत सम्यग्दर्शनरुप श्रेष्ठ वज्रमय पीठवाले श्री संघरुप महामंदरगिरि/ सुमेरु को मैं विनयपूर्वक वंदन करता हूँ ॥ 1 ॥ अशुभ अध्यवसाय के परित्याग एवं प्रतिसमय कर्ममल नष्ट होने से उज्जवल चित्तरुपी कूट (छोटे शिखर) युक्त इन्द्रियनोइन्द्रिय (मन) के दमन / नियमरुपी कनकशिला (आसन) वाले, उत्तरोत्तर सूत्रार्थ स्मरण से तेजस्वी, तत्त्वज्ञानी, आमर्ष्यादि विविध लब्धि से मनोहर, शीलरुपी सुगंधवाले मुनि (जहाँ) संतोष / आनन्द प्राप्त करते है / रमण करते है ऐसे श्री संघरुप महामंदरगिरि/सुमेरु को मैं विनयपूर्वक वंदन करता हूँ ॥ 2 ॥ स्व-पर-निर्वृत्ति के हेतुभूत जीवदयारुपी गुफा / कन्दरा में निवास करनेवाले, कर्मशत्रुओं को नष्ट करने में प्रबल उत्साही, शाक्यादि परवादीरुप मृगों को जीतने में मृगेन्द्र ( अन्य दर्शनियों की) कुयुक्तियों के नाशक सेंकडो हेतुरुपी रत्नों से तेजस्वी, श्रुतरत्त्रों से दीप्तिमान, आमर्ष्यादि लब्धियों से जाज्वल्यमान मुनिवरों से व्याप्त व्याख्यानशालारुप गुफावाले श्री संघरुप महामंदरगिरि (सुमेरु) को मैं विनयपूर्वक वंदन करता हूँ ॥ 3 ॥ करने प्राणातिपातादि पञ्चास्रव के प्रत्याख्यानरूप, कर्ममल से आत्मा को निर्मलकारी, सांसारिक ताप की आकुलता को दूर में श्रेष्ठ जलरुप संवर तत्त्व का सतत प्रवाह जिसके गले का (मूल्यवान) हार है (जिसका शृंगार है) ऐसे स्तुति-स्तोत्र-स्वाध्यायादि के द्वारा केकारव करनेवाले विधितत्पर श्रावकरुपी मयूर जहाँ जिनमंदिरों/जिनमण्डपादि में नृत्य करते हैं, ऐसे श्री संघरुप महामंदरगिरि/ सुमेरु को मैं विनयपूर्वक वंदन करता हूँ ॥ 4 ॥ Jain Education International जहाँ जिनशासनरुप गगनांगण में विविध ऋद्धि आदि रुपी पुष्पों से परिपूर्ण, गच्छरुपी गुच्छों में शोभायमान, मूलोत्तर गुणरुप धर्मरुपी फलदान में तत्पर विशिष्ट कुलोत्पन्न होने से विविध गुणों से कल्पवृक्ष के समान, श्रेष्ठ विनय - विवेकयुक्त, तपस्वी, तेजस्वी मुनिगणरुप विद्युत् से आचार्यादि श्रेष्ठ प्रावचनिकरुपी शिखर (सदा) देदीप्यमान होते हैं, ऐसे श्री संघरुप महामंदरगिरि को मैं विनयपूर्वक वंदन करता हूँ ॥ 5 ॥ जहाँ जीवादि पदार्थों के यथावस्थित बोध से विमल बुद्धिवाले, परमनिवृत्ति (मोक्ष) के हेतुरुप सम्यग्ज्ञानरुप श्रेष्ठ र से प्रकाशमान भव्यजनरुप मनोहर, तेजस्वी, वैडूर्यमय विमल शिखर देदीप्यमान होते है, ऐसे श्रीसंघरुप महामंदरगिरि को मैं विनयपूर्वक वंदन करता हूँ || 6 | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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