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________________ [48]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन 1. जैन कोश परम्परा जैनागमों के लेखन का कार्य वीर निर्वाण सं 980 या 993 में संपन्न हुआ, अर्थात् वीर निर्वाण बाद 980 वर्ष में 45 आगम एवं अन्य जैन साहित्य लिपिबद्ध हुआ। उस समय यह साहित्य अर्धमागधी प्राकृत में लिखा गया था जो कि उस समय की प्रचलित लोक भाषा थी, इसलिए अर्थ समझने के लिए कोश ग्रंथों की आवश्यकता नहीं होती थी, परंतु दार्शनिक क्रांति के युग में जब जैनाचार्यों ने संस्कृत भाषा में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विषयों पर लेखन कार्य प्रारंभ किया, उस समय कोश ग्रंथों की आवश्यकता भी हुई। इसी बात को दृष्टि में रखकर अल्प क्षयोपशमवाले जीवों के कल्याण के लिये जैनागमों का अर्थ समझने के लिए जैन कोशकारों द्वारा जैन कोश परम्परा प्रारंभ हुई, जिसका विवरण आगे दिया जा रहा है। जैन कोश साहित्य एवं कोशकारों का संक्षिप्त परिचयः संस्कृत अमरकोश (नामलिङ्गनुशासन) के कर्ता अमरसिंह को यदि जैन मान लिया जाये तो, प्रथम जैन कोशकार होने का श्रेय पण्डित अमरसिंह को है। आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन एक जैनाचार्य थे जो कि प्रसिद्ध वैयाकरण भी थे, कोशकार के रुप में उनका नाम भी लिया जाता है, परंतु संप्रति उनकी रचना उपलब्ध नहीं है। उपलब्ध जैन कोशों में श्री धनञ्जयकृत 'अनेकार्थ नाममाला', 'अनेकार्थ निघण्टु' एवं 'एकाक्षरी कोश' कोशरचनाओं में प्रथम माने जाते हैं। अन्य भी अनेक जैन कोशकार हुए, जिनमें से कुछ का यहाँ पर क्रमशः संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। श्री धनञ्जयः 'स्याद्वाद विद्यापति'' बिरुद के धारक श्री धनञ्जय महाकवि थे। अनेकार्थनाममालादि के साथ-साथ इन्होंने द्विसंघानमहाकाव्य और राधवपाण्डवीय काव्य की भी रचना की थी। 'सुदृष्टतरंगिणी' के आधार पर यह ज्ञात होता है कि श्री धनञ्जय एक जैन श्रावक थे। ये अमरकोशकार अमरसिंह के साले थे। द्विसंघानमहाकाव्य के अंतिम पद्य के अनुसार इनकी माता का नाम श्रीदेवी और पिता का नाम वसुदेव था। उनके विद्यागुरु का नाम दशरथ था।' महाकवि धनञ्जय के द्वारा एक शब्द से अनेक शब्द बनाने की योजना प्रारंभ की गयी थी, - 'धर' शब्द के योग से पृथ्वीवाचक शब्द पर्वतवाचक बन जाते हैं - भूधर, कुधर इत्यादि। कवीश्वर धनपाल : जीवन परिचय: 'पाइयलच्छी नामवाला' के कर्ता कवीश्वर धनपाल के पिता का नाम सर्वदेव था। और माता का नाम सोमश्री था। इनके एक ओर भाई शोभन थे जिन्होंने बाद में जैन दीक्षा ली थी, उद्भट विद्वान् थे। कवीश्वर धनपाल ब्राह्मण कुल में जन्मे थे और धारानगरी में भोजराज के पुरोहित थे। इनके छोटे भाई जो कि जैन दीक्षा लेने के बाद शोभन मुनि के नाम से प्रख्यात हुए। एक बार धारा नगरी में आये और कवि धनपाल को प्रतिबोधित किया। तब कवि धनपाल ने जैन धर्म अंगीकार किया। जैन परम्परानो इतिहास भाग-2 के अनुसार कवीश्वर धनपाल दीर्धायु थे। इसके अनुसार 'पाइयलच्छी नाममाला' की रचना संवत् 1029 में की गयी थी। इन्होंने संवत् 1081 से 1084 के आसपास 'तिलकमञ्जरी' की रचना की और इसके बाद ये साचोर (राजस्थान) तीर्थ में भी अनेक वर्षों तक रहे और वापिस धारा (म.प्र.) आये थे। इस प्रकार जैन परम्परानो इतिहास भाग-2 के लेखक त्रिपुटी महाराज (बंधु त्रिपुटी-दर्शन-ज्ञान-न्याय विजय महाराज) ने संभावना के आधार पर इनका जन्म 1010 और स्वर्गवास संवत् 1090 के बाद होना सूचित किया है।10 रचनाएँ: कवीश्वर धनपाल ने पाइयलच्छी नाममाला नामक प्राकृतकोश, धनंजय कोश (संस्कृत) के अतिरिक्त अन्य साहित्य की भी रचना की थी। यथा (1) तिलकमञ्जरी काव्य (2) आचार्य शोभनकृत चतुर्विशति पर टीका (3) सावगधम्म पगरण (4) उषभपंचासिया (5) वीर थुई - (विरोधालंकारमय) स्तुति (6) वीर स्तुति (संस्कृत-प्राकृत स्तुति) (7) सत्यपुरीयमहावीरोत्साह (8) सूराचार्यकृत नाभेय-नेमि द्विसंधान काव्य का संशोधन प्राकत कोशपरम्परा के आद्य कोशकर्ताःकवीश्वर धनपाल : 1444 ग्रंथो के रचयिता, याकिनी महत्तरा के धर्मपुत्र आचार्य हरिभद्रसूरि ने यह स्पष्ट किया है कि जो चारित्र-पालन करने के इच्छुक बालक, स्त्री, अनपढ और मूर्ख व्यक्ति हैं तथा राज्यकार्य 2. 1. शासनप्रभावक श्रमण भगवंतो, पृ. 167 श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ - विश्लेषण पृ. 31 3. अभिधान राजेन्द्र विशेषांक : शाश्वत धर्म, पृ. 67 - लेखक - इन्द्रमल भगवानजी व्याकरण शास्त्र का इतिहास, पृ....-ले. युधिष्ठिर मीमांसक शाश्वत धर्म : विशेषांक, फरवरी 1990 पृ. 67 धनञ्जय नाममाला, प्रस्तावना श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ : विश्लेषण पृ. 30, 32 8. जैन परम्परानो इतिहास, भाग 2, पृ. 339 9. वही पृ. 340-341 10. वही पृ. 350 वही पृ. 351, 352, 353 12. समरादित्यकेवली चरित्र (समराइच्चकहा), प्रस्तावना, श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ : विश्लेषण पृ. 32 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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