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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन में रत हैं उन्हें भी भगवान का उपदेश समझ में आ सके, इसलिए भगवान् (तीर्थकरों) के उपदेश अर्धमागधी भाषा में है। सभी का बराबर उपकार हो, इसलिए सर्वज्ञ देव के द्वारा जैन सिद्धांतो का उपदेश प्राकृत भाषा में किया गया है।13 कवीश्वर धनपालने प्राकृतभाषा के शब्दों और देशी शब्दों का संकलन करके 279 गाथाओं में 998 शब्दों का बोध कराने वाली 'पाइयलच्छी नाममाला' नामक प्राकृत कोश की रचना की । इस कोश में उन शब्दों के संस्कृत रुप, संस्कृत व्युत्पत्ति और साथ ही साथ प्रत्ययों की योजना एवं उनके अर्थ दिये गये हैं। 14 यह कोश प्राकृत भाषा के कोशों में प्रथम स्थान पर है 15 इस प्रकार श्री धनपाल - प्राकृत कोश परम्परा के आद्यकर्ता के रुप में गौरवान्वित हैं। इस कोश पर कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरिने प्रामाणिकता की मुहर लगाई है और उन्होंने 'व्युत्पत्तिर्धनपालतः' कहकर महाकवि धनपाल का सम्मान किया है" । भोजराजाने उनको 'सिद्धसारस्वत' और 'कूर्चालसरस्वती' ये विरुद दिये थे । 17 कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि : जैन कोशकारों की परम्परा में महाकवि धनंजय और श्री धनपाल के बाद आचार्य हेमचन्द्रसूरि का नाम स्मरण हो आता है। आचार्य हेमचन्द्रसूरि के सामने सभी सम्मान, उपाधियाँ फीकी पड जाती है। उस समय का ऐसा कोई भी शास्त्र नहीं है जिस पर हेमचन्द्राचार्य का अधिकारन रहा हो। जिस विषय पर उनकी लेखनी चली है उन विषयों की रचनाएँ आज भी आधिकारिक एवं प्रामाणिक मानी जाती हैं। धंधुका (गुजरात) ग्राम के मोढ जाति के चाचिग और पाहिणीदेवी के पुत्ररत्न चांगदेव का जन्म विक्रम संवत् 1145 की कार्तिक पूर्णिमा के दिन हुआ था। मात्र 5 वर्ष की अल्प आयु में आचार्य श्री देवचन्द्रसूरि के पास आकर 8 वर्ष की वय में दीक्षित होकर साधु जीवन में मुनि सोमचन्द्र के नाम से प्रसिद्ध हुए। तत्पश्चात् आचार्य पदारुढ होने पर श्री हेमचन्द्राचार्य के नाम से विख्यात हुए। आचार्य हेमचन्द्रसूरिने श्रीसिद्ध- हेमचन्द्र शब्दानुशासन नामक मौलिक व्याकरण ग्रंथ की रचना की, जिसमें सभी मत-मतांतरों का समावेश है और किसी भी सिद्धांत के विषय में कोई भी वैकल्पिक मतभेद नहीं है। इस व्याकरण ग्रंथ के पूरक साहित्य के रुप में उन्होंने विशाल कोश साहित्य का निर्माण किया। इस कोश साहित्य में पर्यायकोश के रुप में 'अभिधानचिंतामणिनाममाला', निघण्टुशेष और देशी नाममाला तथा अनेकार्थ कोश के रुप में अनेकार्थ संग्रह की रचना की गयी हैं। अभिधानचिंतामणीनाममाला" : अभिधान चिंतामणी नाममाला का संस्कृत शब्दों के पर्यायवाची शब्दों की जानकारी के लिये अमरकोश की अपेक्षा भी अधिक महत्त्व है। इसमें समानार्थक शब्दों का संग्रह किया गया हैं। इस पद्यमय कोश में कुल छः काण्ड हैं। इसके प्रथम देवाधिदेव काण्ड में 86 श्लोक, द्वितीय देव काण्ड में 250 श्लोक, तृतीय मर्त्य काण्ड में 598 श्लोक, चतुर्थ तिर्यक् काण्ड में 423 श्लोक, पंचम नरक काण्ड में 7 श्लोक, और षष्ठ सामान्य काण्ड में 108 श्लोक हैं। इस प्रकार इस कोश में कुल 1542 श्लोक हैं। हेमचन्द्राचार्य द्वितीय परिच्छेद ... [49] ने इसमें रुढ, यौगिक और मिश्र शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखे हैं। आचार्य ने मूल श्लोकों में जिन शब्दों का संग्रह किया है, उनके अतिरिक्त 'शेषाश्च' कहकर कुछ अन्य शब्द जो मूल श्लोको में नही आ सके हैं, को स्थान दिया है। इसके पश्चात् स्वोपज्ञवृत्ति में भी छूटे हुए शब्दों को समेटने का प्रयास किया है। इस प्रकार इस कोश में उस समय तक प्रचलित और साहित्य में व्यवहृत शब्दों को स्थान दिया गया हैं। Jain Education International अभिधानचिंतामणीनाममाला में शब्दो के वर्गीकरण की योजना अभिनव दिखाई देती है। इसका अवलोकन करने से आचार्य की कला का पता चलता है कि कोशग्रंथ के माध्यम से भी जैनत्व का प्रचार एवं संरक्षण कैसे किया जा सकता है ? इस कोश में सर्वप्रथम देवाधिदेव काण्ड की योजना की गयी है। उसमें भी सर्वप्रथम अर्हन् (अरिहंत) देवाधिदेव के पर्यायवाची नाम बताये गये हैं। यहाँ पर तीर्थंकरों के नाम में एक से अधिक नाम वाले तीर्थंकरो की सूची, भूत और भविष्य में होने वाले 24-24 तीर्थंकरों के नाम, उनके गणधरों के नाम एवं उनके लांछन (चिह्न), जन्मभूमियाँ, अंतिम केवली, श्रुतकेवली, इत्यादि का विस्तारपूर्वक परिचय दिया गया है। इस कोश में जैन सिद्धांत के अनुरूप देवगति, मनुष्यगति, तिर्यंचगति, एवं नरकगति के अनुसार विषयवस्तु का विभाजन किया गया हैं। तत्पश्चात् सामान्य काण्ड में त्रिलोक की रचना से संबंधित पदार्थों के पर्याय नामों और अव्यय शब्दों का संग्रह किया गया हैं। इस प्रकार यह कोश जैन सिद्धांतो के अनुरुप लिखा गया सर्वप्रथम कोश है। अभिधान चितामणि कोश अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। इसमें पर्यायवाची शब्दों के साथ ही भाषा - संबंधित बहुत ही महत्त्वपूर्ण सामग्री संकलित हैं। नवीन और प्राचीन शब्दों का अधिकाधिक संग्रह करने के साथ ही आचार्य ने इनमें समन्वय भी स्थापित किया है। ऐतिहासिक दृष्टि से इस कोश का बड़ा महत्त्व है। आचार्य ने इस ग्रंथ की 'स्वोपज्ञवृत्ति' में अपने पूर्ववर्ती 56 ग्रंथकार एवं 31 ग्रंथों का उल्लेख किया है। भागुरि तथा व्याडि के संबंध में इस कोश से बडी जानकारी प्राप्त हो जाती है। जहाँ शब्दों के अर्थ में मतभेद उपस्थित होता है वहाँ आचार्य अन्य ग्रंथ एवं ग्रंथकारों के वचन उद्धृत कर उसका स्पष्टीकरण करते हैं । तुलनात्मक दृष्टि से एवं भाषा की विभिन्न दृष्टियों से जानकारी प्राप्त करने के लिये कोश में आये हुए विभिन्न ग्रंथ एवं ग्रंथकारों के वचन पूर्ण सक्षम है । इस कोश की दूसरी विशेषता यह है कि आचार्यश्रीने धनंजय के समान शब्दयोग से अनेक पर्यायवाची शब्दों के बनाने का विधान किया है किन्तु उसमें तत्कालीन प्रचलित एवं प्रयुक्त कविरुढ शब्दों को ही मान्य किया है। 13. श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ विश्लेषण पृ. 32 14. 15. 16. अभिधान राजेन्द्र कोश: प्रथम भाग प्रस्तावना पृ. 4, पाइयलच्छी 19. नाममाला श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ : विश्लेषण पृ. 32 अभिधान राजेन्द्र कोश: प्रथम भाग प्रस्तावना पृ. 4, अभिधानचिन्तामणिनाममाला, प्रथम काण्ड 17. जैन सत्यंप्रकाश, दीपोत्सवी विशेषांक सन् 1998, पृ. 130 Medical Science as Known to Acharya Hemchandra Suri-Ch.I 18. अभिधान चिन्तामणि नाममाला ग्रंथ एवं उसकी प्रस्तावना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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