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________________ [50]... द्वितीय परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन भाषा विज्ञान की दृष्टि से यह कोश बड़ा मूल्यवान है। आचार्य हेमचन्द्रसूरि के द्वारा संकलित शब्दों पर प्राकृत, अपभ्रंश एवं अन्य देशी भाषाओं के शब्दों का पूर्णतः प्रभाव लक्षित होता है। इसमें अनेक ऐसे शब्द देखने को मिलते हैं जो अन्य कोशों में नहीं मिलते । इस कोश की स्वोपज्ञवृत्ति से शब्दों में अर्थ परिवर्तन किस प्रकार होता है तथा अर्थविकास की दिशा कौन सी रही है, यह स्पष्ट होता है। इस प्रकार विभिन्न दृष्टियों से इस कोश का अवलोकन करने से यह स्पष्ट होता है कि अभिधान चिंतामणि नाममाला (स्वोपज्ञवृत्ति सह) संस्कृत साहित्य में सर्वश्रेष्ठ कोश है। शेष-नाममाला: अभिधान चिंतामणिनाममाला के पूरक ग्रंथ के रुप में 207 श्लोक में आचार्य ने शेष नाममाला की रचना की। इसमें प्रथम एवं द्वितीय काण्ड में 90 श्लोक, तृतीय काण्ड में 65 श्लोक, चतुर्थ काण्ड में 40.5 श्लोक, एवं पांचवे तथा छठे काण्ड में 11.5 श्लोक हैं। इसे अभिधानचिंतामणिनाममाला का परिशिष्ट भी कहते हैं । इसका प्रकाशन लिङ्गानुशासन और निघण्टु शेष के साथ ही झवेरी हीराचंद कस्तूरचंद, गोपीपुराः सुरत (गुजरात) से हुआ है।20 अनेकार्थ संग्रहः कोश ग्रंथो की रचना की दूसरी विधा में आचार्य ने 'अनेकार्थ संग्रह' लिखा। इसमें सात काण्ड हैं, और 1930 श्लोक है। ग्रंथ के नाम के अनुसार इसमें एक शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्द दिये गये हैं। इसकी काण्डयोजना अभिधानचिंतामणिनाममाला के अनुसार है, परंतु शब्दों का वर्गीकरण एक स्वर से प्रारंभ कर छ: स्वरवाले तक के शब्दों को वर्गीकृत कर नये स्वरुप में स्थापित किया गया है। प्रत्येक काण्ड में शब्दों के समायोजन में स्वर और व्यंजन के क्रम को भी लक्ष में रखा गया है और साथ ही अंतिम व्यंजन का भी उतना ही महत्त्व दिया गया है। प्रत्येक शब्द का । अर्थ स्पष्ट करते समय मुख्य शब्द के प्रथमा एकवचन का अपनेअपने लिङ्ग के साथ निर्देश किया गया है, जिसमें लिङ्गभेद के कारण अर्थ-भेद स्पष्ट समझ में आता है। सप्तम काण्ड में अव्यय शब्दों के अनेकार्थत्व का विवरण दिया गया है। इस प्रकार अनेकार्थ संग्रह में 1930 श्लोकों में एक विशाल शब्दराशि का संग्रह किया गया हैं। आचार्य महेन्द्रसूरिने इस पर वृत्ति लिखकर प्रकाशित करवाई हैं। अनेकार्थ संग्रह चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी से ईस्वी सन् 1929 में प्रकाशित हुआ है। देशी नाममाला: कोश साहित्य की पूर्णाहुति के एक भागरुप आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने देशी नाममाला की रचना की। देशी नाममाला के अंत में आचार्य ने लिखा है :- उन्होंने व्याकरण के परिशिष्ट के रुप में संपूर्ण कोश साहित्य की रचना की। देशी नाममाला शब्दानुशासन के आठवें अध्याय (प्राकृत) का परिशिष्ट हैं। देशी नाममाला में वर्णों के अनुक्रम से 783 गाथाओं में 3978 शब्दों का संग्रह किया है। इसमें तत्सम, तदभव और संशययुक्त व्युत्पत्तिवाले प्राकृत शब्द दिये गये हैं और उनका अर्थ स्पष्ट किया गया है। इस कोश के आधार पर आधुनिक भाषाओं के शब्दों की साङ्गोपांग आत्म कहानी लिखी जा सकती हैं। इस कोश में उदाहरण के रुप में आयी हुई गाथाएँ साहित्यिक दृष्टि से अमूल्य हैं, इससे कोश में आये हुए शब्दों का अर्थ अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है। क्योंकि देशी नाममाला में जिस शब्द का अर्थ व्याकरणात्मक व्युत्पत्ति से या शब्दकोश से समझ में न आ सके और जो शब्द प्रचलित (अर्थ की दृष्टि से प्रख्यात) न हों, उन शब्दों के भी अर्थ लक्षणाशक्ति से निकालकर उदाहरण सहित दिये हैं। श्री धनपाल के 'पाइयलच्छी नाममाला' के बाद देशी नाममाला का यह संग्रह अद्वितीय है। सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से भी इस कोश का बहुत बडा मूल्य है। इसमें संकलित शब्दों से बारहवीं शती की अनेक सांस्कृतिक परम्पराओं का ज्ञान होता हैं।23 निघण्टुशेष: अभिधान चिंतामणि नाममाला के वानस्पतिक द्रव्यों के पर्याय संकलन के पूरक रुप में आचार्यश्रीने पृथक् से कोश ग्रंथ की आवश्यकता का अनुभव किया और इसकी पूर्ति के लिये 'निघण्टुशेष' की रचना की। और यही कारण है कि इसके शीर्षक में 'शेष' शब्द जुडा हुआ है। निघण्टु शेष में छ: काण्डों में कुल 396 श्लोक हैं। काण्ड के नाम आधुनिक वानस्पतिक विज्ञान की आकारिकी के अनुरुप क्रमश: वृक्ष, गुल्म, लता, शाखा, तृण, एवं धान्य रखा है। निघण्टुशेष में लेखन की योजना मौलिक है। इसमें उत्पत्तिभेद और प्रयोगभेद से भी सभी वनस्पतियों का वर्गीकरण करने का सिद्धांत उपपादित किया गया है। वैद्यक शास्त्र की दृष्टि से यह कोश बहुत उपयोगी है ।24 डॉ. सन्तलाल द्विवेदीने सन् 1999 में पूना विश्वविद्यालय में इस ग्रन्थ पर पीएच.डी. स्तर का शोधकार्य प्रस्तुत किया है। आचार्य जिनभद्रसूरि: ईसा की तेरहवीं शताब्दी के आचार्य जिनभद्रसूरि का जन्म विक्रम संवत् 1450 में, दीक्षा वि.सं. 1461 में, आचार्य पद वि.सं. 1475 के माघ सुदि पूर्णिमा को भणसोल में और स्वर्गवास वि.सं. 1514 के माघ वदि 9 को कुंभलमेर में हुआ था। उनके आचार्य पद के समय आचार्य सागरचंद्र ने (1) भादो नाम (2) भणसोल (भाणसोल) गाम (3).भणसाली गोत्र (4) भद्रा करण (5) भरणी नक्षत्र (नक्षत्र में एसी शंका है कि माघ सुदि 15 को कदापि भरणी नक्षत्र नहीं ही होता) (6) भद्रसूरि नाम और (7) भट्टारक पद - ये सात भकार मिलाये थे। उनके गुरु का नाम आचार्य सागरचंद्र सूरि था। 20. Medical Science as Known to Acharya Hemchandra Suri-Part-I Page 40 21. वही 22. वही पृ. 42 23. Medical Science as Known to Acharya Hemchandra Suri-Part-I Page 40 24. A Critical Study of Nighantushesha - Dr. Santial Dwivedi 25. जैन परम्परा नो इतिहास, भाग 2, पृ. 630 Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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