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[384]... चतुर्थ परिच्छेद
देशावकाशिक व्रत :
दिग्व्रत नामक प्रथम गुणव्रत में यावज्जीव/ वर्षभर/चातुर्मास
के लिए दशों दिशाओं में गमन की जो सीमा (मर्यादा) निश्चित की हो, उसमें से भी दिन / रात्रि / प्रहर/मुहूर्त के लिए सीमित करना (संक्षेप करना) देशावकाशिक व्रत कहलाता है । 133
इस व्रत को धारण करते समय श्रावक अपनी आवश्यकता और प्रयोजन के अनुसार सीमा बाँध लेता है कि मैं अमुक समय तक अमुक स्थान तक ही लेन-देन का संबंध रखूँगा । उससे बाहर के क्षेत्र से वह न तो कुछ मंगवाता है, न ही भेजता है, यही उसका देशव्रत है। इच्छाओं को रोकने का यह श्रेष्ठ साधन हैं। 134
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
पौषध में आहार, शरीर-सुश्रुषा / संस्कार, अब्रह्म तथा आरम्भ का त्याग किया जाता हैं। इसमें आहार का त्याग एकदेश या सर्वथा होता है, शेष का सर्वदेश त्याग किया जाता है | 141
'पौषध' के समानान्तर 'पोषध' शब्द का भी अर्थ व्रतविशेष किया गया हैं
वसुनंदी श्रावकाचार में भी कहा है कि जिस देश में जाने से किसी भी व्रत का भङ्ग होता हो या उसमें दोष लगता हो उस देश में जाने की नियमपूर्वक निवृत्ति देशावकाशिक व्रत हैं। 135 यहाँ देशावगासिक व्रत में दिग्व्रत के संक्षेपकरण लक्षण से अन्य भी सभी व्रतों का संक्षेप समझ लेना चाहिए। 136 देशावकाशिक व्रत के पाँच अतिचार :
मर्यादित क्षेत्र के बाहर से वस्तु लाना
(1) आनयन प्रयोग या मंगवाना आदि,
(2) प्रेष्य प्रयोग मर्यादित क्षेत्र के बाहर वस्तु भेजना या
ले जाना,
(3) शब्दानुपात निर्धारित क्षेत्र के बाहर किसी को शब्द से संकेत करना,
-
( 4 )
रुपानुपात हाथ आदि अंगों से संकेत करना, (5) पुद्गल - प्रक्षेप बाहर खडे हुए व्यक्ति को अपना अभिप्राय बताने के लिए कंकड आदि फेंकना। इनमें से प्रथम दो अतिचार शीघ्रबाजी से और शेष तीन माया के कारण लगने की संभावना रहती हैं।
पौषधोपवास व्रत :
'पौषध' और 'प्रोषध' ये दोनों ही शब्द 'पर्व' (पर्वतिथियों) के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में 'पोसह' शब्द का संस्कृत समानान्तर शब्द 'पौषध' भी लिया गया है। 'पौषध' शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने कहा है कि " अष्टमी, चतुर्दशी, पौर्णमासी, अमावस्या इन पर्व के दिनों में अनुष्ठेय व्रत विशेष को पौषध कहते हैं।"
इह पौषधशब्दो स्oया पर्वसु वर्तते, पर्वाणि चाष्टम्यादितिथयः, पूरणात् पर्व, धर्मोपचय हेतुत्वादित्यर्थं, पौषधे उपवसने पौषधोपवासः नियमविशेषाभिधं चेदं, पौषधोपवास इति 1138
इसी प्रकार का कथन तत्त्वार्थवार्तिक में भी आया हैंप्रोषधशब्दः पर्वपर्यायवाची ॥139
आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजीने पौषध शब्द की व्याख्या में धर्मसंग्रह के निम्नांकित श्लोक को उद्धृत किया हैंआहारतनुसंस्कारा ब्रह्मसावद्यकर्मणाम् ।
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त्यागः पर्वचतुष्टय्यां तद्विदुः पौषधव्रतम् ॥40
अर्थात् पर्वतिथि के दिन आहार, शरीर, सत्कार, अब्रह्म और सावद्य कर्म (व्यवहार) के त्याग को विद्वान् लोग 'पौषध व्रत' कहते हैं।
अष्टमीचतुर्दशी - पौर्णमास्यमावस्यापर्वदिनानुष्ठेयव्रतविशेषे (142 'पोषध' शब्द की निरुक्ति देते हुए कहा गया है कि जिससे धर्म की पुष्टि हो उसे पोषध कहते हैं
पोषं पुष्टिं प्रक्रमाद् धर्मस्य धत्ते करोतीति पोषध: 1143 पौष + धाञ् = पौषध, पौष अर्थात् गुण गुण की दृष्टि को धारण करने वाला 'पौषध' कहलाता हैं। रत्नकरण्डक श्रावकाचार में प्रोषध शब्द का प्रयोग हैपर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्यः प्रोषधोपवासस्तु 144 पौषध का स्वरुप :
अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार पौषध दिन या रात का या दिन-रात का एक साथ लिया जा सकता है अर्थात् पौषध एक साथ चार या आठ प्रहर का लिया जा सकता है। रत्नकरण्डक श्रावकाचार में प्रोषधोपवास को 16 प्रहर का माना हैं
चतुराहारविसर्जनमुपवास: प्रोषधः सकृदुक्तिः । स प्रोषधोपवासो यदुपोष्यारम्भमाचरित ॥ 145
अर्थात् उपवास के पूर्व एवं उपवास के बाद एक बार भोजन करना, इसे प्रोषध कहते हैं। इस प्रकार, सोलह प्रहर तक भोजनादि छोड़कर उपवास करना प्रोषधोपवास हैं।
पौषध के प्रकार :
पौषध द्वारा सामायिक की प्रतिज्ञा का स्वीकार होने से पौषध में सर्व सावद्य प्रवृत्तियों का त्याग किया जाता है। एक ही पौषध में चार पौषध होत हैं
(1) आहार पौषध :
यह पौषध सर्वांग से अथवा एकदेश (आंशिक रुप) से लिया जाता हैं । चतुर्विध (चोविहार) उपवास युक्त पौषध में आहार का सर्वथा त्याग किया जाता हैं। और एकदेश से हो तो त्रिविधाहार (तेविहार) उपवास (जिसमें केवल उबला हुआ पानी पिया जा सकता हैं) या आयंबिल, निवी (इसमें मक्खनरहित छाछ अथवा लालमिर्च और पिसी हुई हल्दी के साथ सूखी सब्जी उपयोग में ली जा सकती हैं; शेष विधान आयम्बिल के समान है), या एकाशन किया जाता है। पौषध में कम से कम एकाशन का प्रत्याख्यान अनिवार्य हैं। अ. रा. 4/2633; योगशास्त्र 3/84; कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - 367 134 कार्तिकेय अनुप्रेक्षा- 367, 368
133.
135. वसुनंदी श्रावकाचार - 215
136.
137.
138.
अ.रा. पृ. 4/2633; स्थानांग-4/3; योगशास्त्र- 3/84 की व्याख्या पृ. 280
अ.रा.पृ. 4/2633; तत्त्वार्थ सूत्र - 7 / 27; योगशास्त्र - 3 / 116
अ.रा. 5/1133
139.
अ.रा. पृ. 7/21/8
140. धर्मसंग्रह, अधिकार- 1/39
141.
142.
143.
144. 145.
अ.रा. पृ. 5/1133-37-39; पञ्चास्तिकाय - 1/30
अ.रा. पृ. 5/1132
अ.रा. पृ. 5/1132-33
रत्नकरण्डक श्रावकचार 5/109 रत्नकरण्डक श्रावकचार 5/99
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