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[206]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
गुणस्थान में भाव अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने गुणस्थान में औपशमिक आदि पांचो भाव और सांनिपातिक भाव का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है जो संक्षेप में निम्नानुसार है। भाव:
'भाव' शब्द का परिचय देते हुए 'भावनं भावः' इस अर्थ में 'भाव' शब्द की व्याख्या करते हुए राजेन्द्र कोश में आचार्यश्रीने लिखा है -
1. भवन्ति विशिष्टहेतुभिः स्वतो वा जीवानां तत्तद्रूपतया भवनं भावः । भवन्त्येभि-रुपशमाऽऽदिभिः पर्यायैरिति
भाव:1521 2. औदयिकाऽऽदिके वस्तु परिणाम विशेष भवन्तीति भाव:153 । अर्थात् जीवों के या जीवों में स्वतः या विशिष्ट
हेतुओं (निमित्तों) के द्वारा होने वाले या होते तद्रूप परिवर्तन को भाव कहते हैं। जिनागमसार में केवल जीव द्रव्य में पाये जाने वाले इन विशेष भावों को जीव के असाधारण भाव कहे हैं।54 | भाव के प्रकार:
श्री अभिधान राजेन्द्र कोश में जीव के ये असाधारण भाव एवं अनेक अवांतर प्रकार निम्नानुसार बताये हैं :
(1) औपशमिक भाव 2 (2) क्षायिक भाव 9 (3) क्षायोपशमिक भाव 18 (4) औदयिक 21 और (5) पारिणामिक 3, इस प्रकार ये वेपन (53) भावभेद जीव के भाव हैं।55 । 1. औपशमिक भाव156 :-कर्मो का फलदानसमर्थ रुप से अनुभव (उदय का अभाव) उपशम हैं। उपशम से युक्त भाव औपशमिक भाव कहलाता है। जिसमें मोहनीय कर्म का प्रदेश और विपाक दोनों तरह से अनुदय हो वह उपशम भाव कहलाता हैं।
भाव
कर्म का उपशम
गुणस्थान क्षेत्र
1. उपशम सम्यक्त्व दर्शन मोहनीय के उपशम से होता है। 4 से 11
2. उपशम चारित्र मोहनीय कर्म के सर्वथा उपशम से होता है। 8 से 11 2. क्षायिक भाव:57:- कर्मो के सर्वथा क्षय से आत्मा को जो अत्यन्त शुद्ध भाव प्रगट होता है, उसे क्षायिक भाव कहते हैं।
भाव
कर्म का उपशम
गुणस्थान क्षेत्र
1. क्षायिक सम्यक्त्व दर्शनत्रिक और अनंतानुबंधी चतुष्क के क्षय से 2. केवलज्ञान
केवलज्ञानावरण के क्षय से 3. केवलदर्शन केवलदर्शनावरण के क्षय से 4. क्षायिक चारित्र मोहनीय के सर्वथा क्षय से 5-9 दानादि 5 लब्धियाँ तत्तत् अंतराय कर्म के क्षय से
4-14 13, 14 13, 14 12-14 13, 14
3. क्षायोपशमिक भाव158:- उदय में आये हुए कर्मो का क्षय और अनुदित कर्मो के उपशम से जीव को क्षायोपशमिक भाव प्राप्त होता है। यह भाव ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय - इन चार घाती कर्मों में ही होता हैं।
गुणस्थान क्षेत्र
भाव 5 लब्धियाँ 1क्षायोपशमिकसम्यक्त्व 1 देशविरति
कर्म का क्षयोपशम तत्संबंधी अंतराय के क्षायोपशम से दर्शन मोहनीय के क्षयोपशम से दर्शनत्रिक और अनंतानुबंधी चतुष्क तथा अप्रत्याख्यानीय चतुष्क के क्षयोपशम से
1 से 12 4 से 7
5 वाँ
152. अ.रा.पृ. 5/1500; भाग 2, 'आणुपुव्वी' शब्द, पृ. 153 153. अ.रा.पृ. 5/1500 154. जिनागमसार, पृ. 127, प्रश्न 1 155. अ.रा.पृ. 5/1500; तत्त्वार्थसूत्र 2/1-7, पञ्चाध्यायी, 2/961-963 एवं अर्थ; कर्मग्रंथ 4/64 का
विवेचन, पृ. 10, 11, 12, 13 - आ. वीरशेखरसूरि 156. अ.रा.पृ. 5/99, तत्त्वार्थसूत्र 2/2; कर्मग्रंत 4, पृ. 10-11, -आ.
वीरशेखरसूरि 157. अ.रा.पृ. 3/688-89; तत्त्वार्थसूत्र 2/2; 4; जिनागमसार पृ. 133-136 158. अ.रा.पृ. 3/689-90 तत्त्वार्थसूत्र 2/2,5; जिनागमसार पृ. 136-138
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