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[316]... चतुर्थ परिच्छेद
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन है - प्रतिसेव्यते इति प्रतिसेवना, प्रतीपं सेवना प्रतिसेवना, प्रतिषिद्धस्य (6) शङ्कित अथवा विंतिणा प्रतिसेवना - ग्रहण करने योग्य सेवना प्रतिसेवना। अर्थात् प्रतिषिद्ध, निषिद्ध या अनाचरणीय के
आहार आदि में किसी दोष की शंका हो जाने पर भी उसे आचरण करने को प्रतिसेवना कहते हैं उसकी शुद्धि के लिए जो
ग्रहण कर लेना शङ्कित प्रतिसेवना कहलाती है अथवा अभिमान आलोचना प्रतिक्रमण आदि किये जाते हैं, उसे प्रतिसेवना प्रायश्चित
से किये कार्य का आवेशपूर्वक प्रायश्चित्त करना वितिणा प्रतिसेवना कहते हैं। अर्थात् पाप के सेवन से होनेवाली संयम की विराधना है। यथा - प्रतिकूल संयोग होने पर अग्नि में से तितिण ही 'प्रतिसेवना' हैं।
शब्द करती हुई चिनगारियाँ निकलती है, वह द्रव्य तितिण प्रतिसेवना के मुख्य दो रुप :
है। और आहारादि नहीं मिलने पर अथवा अरुचिकर पदार्थ प्रतिसेवना के मुख्य दो रुप बताये गये हैं - दपिका और के उपलब्ध होने पर मानसिक व्याकुलता या झंझलाहट होना कल्पिका। मूलगुण एवं उत्तरगुण की अपेक्षा से इनके भी दो
भावर्तितिण है। दो भेद निरुपित हैं। । प्रमादभाव से किया जाने वाला अपवाद सेवन (7) सहसाकार प्रतिसेवना - अकस्मात् कोई कार्य उपस्थित दर्प होता है और वही अप्रमाद भाव से किया जाने पर क्लप-आचार हो जाने पर बिना सोचे समझे कोई अनुचित कार्य कर लेना हो जाता है। ज्ञानादि की अपेक्षा से किया जानेवाला अकल्प सेवन
सहसाकार प्रतिसेवना है। भी कल्प हैं।
(8) भय प्रतिसेवना - राजा, मनुष्य, चोर आदि के भय से यह प्रतिसेवना द्रव्य-भाव भेद से दो प्रकार की है
जो दोष-सेवन होता है, वह भय प्रतिसेवना है। यथा - द्रव्यमयी और भावमयी। मात्र द्रव्यमयी दृष्टि से पदार्थ सेवन राजादि के अभियोग से मार्गादि दिखा देना अथवा सिंहादि करना द्रव्यमयी प्रतिसेवना है और भाव से उपयोग करना वह हिंस्र पशुओं के भय से वृक्षारुढ होना इत्यादि । भावमयी प्रतिसेवना है।
(9) प्रद्वेष प्रतिसेवना - किसी के प्रति प्रद्वेष या इर्ष्या से जीव के भाव, अध्वयसाय दो प्रकार के हैं - कुशल और
(मिथ्या आरोप लगाकर) संयम की विराधना करना प्रद्वेष अकुशल अर्थात् शुभ और अशुभ । जहाँ शुभ भावों से वस्तु का प्रतिसेवना कहलाती है। सेवन किया जाता है, वह कल्प प्रतिसेवना है और जहाँ अशुभ भवों
(10) विमर्श प्रतिसेवना - शिष्य सैक्षकादि की परीक्षा के लिए से वस्तु का सेवन किया जाता है, वह दर्प प्रतिसेवना है”।
की गयी संयम विराधना विमर्श प्रतिसेवना कहलाती हैं। राग द्वेषपूर्वक की जानेवाली प्रतिसेवना (निषिद्ध आचरण)
कल्पिका प्रतिसेवना के भेद100 :दपिका है, सदोष है। राग-द्वेष से रहित प्रतिसेवना कल्पिका है।
अपवाद काल में परिस्थितिवश निषिद्ध आचरण होने यह निर्दोष है। कल्पिका में संयम की आराधना है और दपिका
पर भी संयम की विराधना नहीं होती उसे 'कल्पिक प्रतिसेवना' में निश्चित ही संयम की विराधना है |
कहते हैं। वह आधार कारणों के भेद से चौबीस प्रकार की दपिका प्रतिसेवना के भेद" :
है, जो निम्नानुसार है- दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, प्रवचन, समिति, (1) दर्प प्रतिसेवना:- अहंकारवश आगमनिषिद्ध प्राणातिपातादि
गुप्ति, साधर्मिक-वात्सल्य, कुल, गण, संघ, आचार्य, असह, ग्लान, जो दोष सेवन किये जाते हैं और जिससे संयम की विराधना
असन, वृद्ध, जल, अग्नि, चोर, श्वपद, भय, कान्तार, आपत्ति होती है, उसे दर्प प्रतिसेवना कहते हैं।
और व्यसन । इस प्रकार इन 24 कारणों से जो दोष-सेवन होता (2) प्रमाद प्रतिसेवना - मद्यपान, विषयाकांक्षा, कषाय, निद्रा, है, वह कल्प प्रतिसेवना है। एवं विकथा - इन पाँचो प्रकार के प्रमादों के कारण होनेवाली
इस संबंध में अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा गया है - संयम की विराधना प्रमाद प्रतिसेवना कही जाती हैं। जो साधक किसी विशिष्ट ज्ञान दर्शनादि हेतु के उद्देश्य से अपवाद/ (3) अनाभोग प्रतिसेवना - अनुपयोग या अज्ञानवश जो संयम- निषिद्ध का आचरण भी करता है, तब भी वह मोक्ष प्राप्त करने विराधना होती है, वह अनाभोग प्रतिसेवना है।
का अधिकारी है। वस्तुतः कर्मबन्ध तो जीव की भावनाओं पर (4) आतुर प्रतिसेवना - क्षुधा, विपासा आदि कष्ट से व्याकुल
आधारित होता हैं।101 होकर की जानेवाली संयम विराधना आतुर प्रतिसेवना कही
इसी प्रकार उपर्युक्त दस कारणों से जो दोष-सेवन होता है, जाती हैं।
साधक उसके प्रति मन में पश्चाताप करता है और तत्संबन्धी प्रायश्चित (5) आपत् प्रतिसेवना - किसी तरह की आपत्ति, उपद्रव या
की जो भी विधि होती है, उसे पूर्णकर आत्मा को विशुद्ध करता है। संकटकालीन परिस्थिति उपस्थित होने पर अकल्प्य का सेवन
93. अ.रा.पृ. 5/361 करने से होनेवाली संयम विराधना 'आपत् प्रतिसेवना' कही
94. अ.रा.को. 6/340 जाती है। यह आपत्ति चार प्रकार की हैं -
95. अ.रा.को. 6/345 (अ) दव्यापत्ति - प्रासुक निर्दोष आहारादि न मिलने पर। 96. अ.रा.को. 6/340: निशीथ चूणि 92 (ब) क्षेत्रापत्ति - अटवी, समुद्र तट आदि भयंकर स्थानो
97. अ.रा.को. 5/135. 361; व्यवहार सूत्र वृत्ति । उ. में रहने की स्थिति में।
98. अ.रा.को. 6/426. 370: बृहत्कल्प भाष्य 4943; निशोथ भाष्य 363
99. अ.रा.पृ. 5/136 (क) कालापत्ति - दुर्भिक्ष आदि पड़ने पर ।
100. अ.रा.पृ. 6/915.916 (ड) भावापत्ति - शरीर के रोगग्रस्त हो जाने पर। 101. अ.रा.को. 7/778 एवं 2/421 एवं 5/1621; व्यवहार भाष्य पीठिका 184;
ओधनियुक्ति-57
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