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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
चतुर्थ परिच्छेद... [315] श्रमणपरम्परा में वर्णित ये आभ्यन्तर तप अन्य मतावलमिबयों प्रायश्चित चार प्रकार से :सेअनभ्यस्त और अप्राप्त है, अतः ये उत्तर अर्थात् आभ्यन्तर तप कहे
(क) (1) ज्ञान (2) दर्शन (3) चारित्र (4) व्यक्तकृत्य जाते हैं। रत्नत्रय के आराधक मुनि जिसका आचरण करते हैं, एसे
(ख) (1) प्रतिसेवना (2) संजोयणा (संयोजना) (3) आरोपणा तप आभ्यन्तर तप कहे जाते हैं |
(4) परिकुञ्चना/प्रतिकुञ्चना प्रायश्चितादि तप बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा नहीं करते; अन्तः प्रायश्चित्त दस प्रकार से:करण के व्यापार से होते हैं। इनमें अन्तरंग परिणामों की मुख्यता
(1) आलोचनार्ह (2) प्रतिक्रमणार्ह (3) तदुभयार्ह 94) विवेकार्ह रहती है तथा इनका स्वयं ही संवेदन होता है; ये देखने में नहीं (5) व्युत्सर्गार्ह (6) तपोऽर्ह (7) छेदाह (8) मूलार्ह (9) अनवस्थाप्यारी आते तथा ये इतने दुष्कर है कि अनार्हत लोग इनको धारण नहीं (10) पारांचिताह। कर सकते, इसलिए प्रायश्चितादि को अन्तरंग माना जाता है।
इन्हीं दस भेदों में से क्रमशः प्रायश्चित के छ: प्रकार करने प्रायश्चित तप:
पर । से 6 भेद, आठ प्रकार करने पर । से 8. और नौ प्रकार करने 'प्रायश्चित' दो शब्दों के योग से निष्पन्न शब्द है। प्रायः पर 1 से 9 भेद माने जाते हैं। + चित्त । अभिधान राजेन्द्र कोश में इसकी व्युत्पत्ति करते हुए कहा (1) ज्ञान प्रायश्चित - मुनि के द्वारा कालादि आठ प्रकार के गया है - "प्रायः पापं विनिर्दिष्ट, चित्तं तस्य विशोधनम् ।821' 'प्रायः' ज्ञानाचार में या सूत्र अध्ययन संबंधी आचार में दोषों की का अर्थ है पाप, और 'चित्त' का अर्थ है उस पाप का विशोधन
शुद्धि हेतु जो प्रायश्चित दिया जाता है। वह ज्ञान प्रायश्चित करना। अर्थात् पाप को शुद्ध करने की क्रिया का नाम है प्रायश्चित । प्राकृत भाषा के 'प्रायच्छित्त' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए प्रस्तुत (2) दर्शन प्रायश्चित - मुनि के द्वारा अरिहंत, जिनालय, सुदेवकोश में कहा गया है
गुरु-धर्म, जिनवाणी संबन्धी अश्रद्धा होने पर याअविनय, "पावं छिंदइ जम्हा, पायच्छित्तं ति भण्णई तेण।
आशातना, निंदादि करने पर या दर्शनाचार का पालन नहीं पाएण वा वि चित्तं, सोहयति तेण पच्छित्तं ।' "83
करने पर दोषों की शुद्धि हेतु जो प्रायश्चित दिया जाता है, जिसके द्वारा पाप का छेदन होता है उसे 'प्रायश्चित' कहते उसे दर्शन प्रायश्चित कहते हैं। हैं। प्राकृत भाषा के 'पायच्छित' शब्द का संस्कृत में 'पापच्छित्' (3) चारित्र प्रायश्चित - मुनि के द्वारा मूल गुणों और उत्तर रुप भी बनता है। अभिधान राजेन्द्र कोश में इसकी व्युत्पत्ति इस
गुणों में दोष लगाये जाने पर, अरिहंत-गणधर-आचार्यादि के प्रकार की गई है- "पापं छिनत्तीति पापच्छित् ।''84 अर्थात् जो पाप
चारित्र के विषय में अवर्णवाद बोलने पर या पञ्चेन्द्रिय जीव का छेद करता है वह 'पापच्छित्' कहलाता है।
हिंसा, या मैथुन सेवन या अन्य व्रत संबन्धी दोषों के पुन:उपर उद्धृत गाथा की व्याख्या करते हुए प्रायश्चित की एक
पुनः सेवन करने पर दोषों की शुद्धि हेतु जो प्रायश्चित दिया परिभाषा और दी गई है- "पापमशुभं छिनत्ति कृन्तति, यस्माद्धेतोः
जाता है, उसे चारित्र प्रायश्चित कहते हैं । पापच्छिदिति वक्तव्ये प्राकृतत्वेन 'प्रायस्छित्तमि' ति भण्यते निगद्यते
(4) व्यक्तकृत्य/विदत्तकृत्य (वियत्तकिच्च) प्रायश्चित - तेन तस्माद्धेतोः प्रायेण बाहुल्येन । वाऽपीत्यथवा, चित्तं मन/शोधयति
दोषयुक्त मुनि के द्वारा गुरु के समक्ष दोषों की आलोचना निर्मलयति तेन हेतुना प्रायश्चितमित्युच्यते । इति गाथार्थः । "प्रायशो
करने पर गुरु के द्वारा देश-काल-भाव-पात्रादि की अपेक्षा वा चित्तं जीवं शोधयति कर्ममलिनं विमलीकरोति तेन कारणेन
से दोषयुक्त मुनि को प्रायश्चित तप प्रदान करना, व्यक्तकृत्य/ प्रायस्छित्तमित्युच्यते । चित्तं स्वेन स्वरुपेण अस्मिन् सतीति प्रायश्चित्तं,
विदत्तकृत्य प्रायश्चित कहलाता है।2 प्रायो ग्रहणं संवरादेरपि तथाविधचित्तसद्भावादिति गाथार्थः ।' '85 जो
प्रतिसेवना प्रायश्चित - जीव या चित्त को शुद्ध करता है और कर्म-मल को दूर करता है,
'प्रतिसेवना' जैन आचार विज्ञान का एक पारिभाषिक शब्द धो डालता है उसे प्रायश्चित कहा जाता हैं।
है। 'प्रतिसेवना' शब्द प्रति + सेवना से निष्पन्न है। अभिधान अथवा जिससे आचार रुप धर्म उत्कर्ष को प्राप्त होता है,
राजेन्द्र कोश में 'प्रतिसेवना' का शाब्दिक अर्थ करते हुए कहा एसा प्रायः मुनि लोग कहते हैं, इस कारण से अतिचार दोषों को दूर करने के लिए जिसका चिन्तन-स्मरण किया जाये उसे प्रायश्चित
80. भगवतीआराधना, विजयोदया टीका-107 पृ. 254 कहते हैं
81. अनगार धर्मामृत 7/33 अथवा प्रकर्षेण अयते गच्छति अस्मादाचारधर्म इति प्रायो 82. अ.रा.को.भा. 5/855; (धर्म संग्रह 3 अधिकार) मुनिलोकस्तेन चिन्त्यते स्मर्यतेऽतिचारविशुद्धयर्थमिति निरुक्तात् 83. अ.रा.को.भा. 5/129; (पंचाशक सटीक 16 विव.) प्रायश्चित्तम् । अ.रा.5/855
84. अ.रा.को.भा. 5/129, 855; (आवश्यक नियुक्ति अ.5/22)
85. अ.रा.को.भा. 5/855; (आवश्यक बृहत वृत्ति 1522) प्रायश्चित्त के प्रकार7 :
86. वही अभिधान राजेन्द्र कोश में आचार्यश्री ने प्रायश्चित के अनेक भेद
87. अ.रा.पृ. 5/135,855, 856 प्रभेद दिखाये हैं।
88. अ.रा.पृ. 5/856; मूलाचार-362; धवला टीका-13/5, 4; जैनेन्द्र सिद्धान्त प्रायश्चित तीन प्रकार में :
कोश-3/158 (क) (1) आलोचनाह (2) प्रतिक्रमणार्ह (3) तदुभयार्ह
89. अ.रा.पृ. 4/1962, 5/135; स्थानांग-3/1
90. अ.रा.प्र. 4/2433, 5/1353 स्थानांग-3/4 (ख) (1) ज्ञान प्रायश्चित (2) दर्शन प्रायश्चित
91. अ.रा.पृ.3/1149,5/135; स्थानांग-3/4 (3) चारित्र प्रायश्चित्त।
92. अ.रा.पृ. 6/12,27; 5/135
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