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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
(5) कुप्यप्रमाणातिक्रम अनेक प्रकार के बर्तन एवं अन्य गृहोपयोगी वैसी सामग्री तथा वस्त्रों का प्रमाण निश्चित करने के बाद उसका अतिक्रमण करना, 'कुप्यप्रमाणातिक्रम' हैं। दिग्व्रत / दिशापरिमाण व्रत :
जीवन पर्यंत (या वर्ष / चातुर्मासादि में) ऊर्ध्व, (पर्वतारोहणादि), अधः (कूप में उतरना आदि), तथा तिर्यक्-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण (तथा उनके कोने अर्थात् इशान, अग्नि, नैऋत और वायव्य) - इन सभी (दशों) दिशाओं में गमनागमन की सीमा निश्चित करना और तदनुसार नियम अंगीकार करना; दिशिव्रत या दिशापरिमाण/ दिक्परिमाण व्रत नामक प्रथम गुणव्रत हैं। अणुव्रतों के रक्षार्थ और समुचित पालन हेतु व्यापारादि के क्षेत्र को सीमित रखने में सहायक गुणव्रत दिग्व्रत हैं। 89
लाभ :
इस व्रत के पालकने जगत पर आक्रमण करने के लिए अभिवृद्ध लोभरुपी समुद्र को आगे बढने से रोक दिया हैं। वह व्यक्ति दूर देशों में अधिकाधिक व्यापार करना, अविकसित देशों का शोषण करना आदि से रुक जाता हैं अतः लोभ कषाय पर अंकुश लग जाता है 190
हानि :इस व्रत को धारण नहीं करने पर लोभ के कारण मनुष्य दुर्ग, भयंकर अटवी में भटकता है, देशांतर जाता हैं, समुद्र में जाता हैं, अनेक क्लेश एवं संकट सहन करना पडता हैं, कंजूस स्वामी की दासता करनी पडती हैं और कई प्रकार के दुःख सहन करता
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दिशा परिमाण व्रत का पाँच अतिचार :
इस व्रत के पाँच अतिचार हैं - ( 1 ) ऊर्ध्व दिशा, (2) अधोदिशा, (3) तिर्यक् दिशाओं की मर्यादाओं का अतिक्रमण, (4) मार्ग में चलते हुए यदि शंका उपस्थित हो जाए कि मैं अपनी मर्यादा से अधिक आ गया तो पुनः उस शंकित अवस्था में ही उस दिशा में आगे जाना, (5) एक दिशा की सीमा मर्यादा को घटाकर दूसरी दिशा की सीमा मर्यादा बढाना । उदाहरणार्थ पूर्व दिशा में 50 कोस से अधिक बाहर जाकर धनोपार्जन की कोई संभावना नहीं है, अतः पूर्व के शेष 50 कोस और पश्चिम दिशा के 100 कोस मिलाकर पश्चिम में 150 कोस तक जाकर धनोपार्जन करना । साधक अपने व्रत को शुद्ध रुप में परिपालन करने के लिए उपरोक्त दोषों से बचता रहे, यही अपेक्षित हैं। भोगोपभोग परिमाण व्रत :
भोजन, माला आदि एक ही बार उपयोग में आने योग्य वस्तु को भोग कहते हैं तथा स्त्री, वस्त्राभूषण आदि बार-बार उपयोग में आने वाली सामग्री 'उपभोग' कहलाती हैं। भोग और उपभोग के साधनों का कुछ समय या जीवन पर्यंत के लिए परिमाण (मर्यादा) करना (सीमित करना या त्याग करना) 'भोगोपभोग परिमाण व्रत' कहलाता हैं। 94
सामान्यतया श्रावक को उत्सर्ग मार्ग से प्रासुक आहार ग्रहण करना चाहिए। इसके अभाव में सचित्ताहार का त्याग; इसके अभाव में बहुसावद्य अनन्तकायाहार का त्याग; इसके भी अभाव में मद्य
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चतुर्थ परिच्छेद... [377]
(मदिरा), मांस, पाँच उदुम्बर और त्रस जीवयुक्त पत्र (पान), पुष्प, फलादि तो अवश्य त्याग करके भक्ष्याभक्ष्य के विवेकपूर्वक आहार ग्रहण करना योग्य हैं 195
जैनागमों में भोगोपभोग परिमाण व्रतधारी श्रावक को 22 अभक्ष्य 32 अनंतकाय का त्याग, सचित्त परिमाण आदि 14 नियमों का पालन एवं जीव रक्षा हेतु अंगारकर्मादि पंद्रह कर्मादान (व्यापार) के त्याग करने का वर्णन होने से यहाँ पर आचार्यश्री ने इनका परिचय देकर इनसे होने वाली दोषोत्पत्ति का विस्तृत वर्णन किया हैं, जो संक्षेप में निम्नानुसार हैंबाईस अभक्ष्य :
चतुर्विकृत्यो निन्दया, उदुम्बरपञ्चकम् । हिमं विषं च करका, मृज्जातिरात्रिभोजनम् ॥32॥ बहुबीजाज्ञातफले, सन्धानानन्तकायिकाः । वृन्ताकं चलितरसं, तुच्छं पुष्पफलादिकम् ॥33॥ आमगोरससंपृक्तं द्विदलं, च विवर्जयेत् । द्वाविंशतिरभक्ष्याणि, जैनधर्माधिवासिनः ॥ 34 11% (1) मद्य (मदिरा) :
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मदिरा दो प्रकार की होती हैं (1) काष्ठ निष्पन्ना (2) पिष्ट निष्पन्ना। मदिरा शराब, सुरा, द्राक्षासव, ब्रांडी, भांग, वाईन आदि के नाम से पहचानी जाती हैं। शराब बनाने के लिए गुड, अंगूर, महुआ आदि को सडाया जाता है, तत्पश्चात् उबाला जाता है। इस तरह उसमें उत्पन्न असंख्य त्रस जीवों (इल्ली आदि) की हिंसा होती हैं तथा शराब तैयार होने के बाद भी उनमें अनेक त्रस जीव उत्पन्न होते हैं और उसी में मरते हैं। शराब पीने के बाद मनुष्य अपनी सुध-बुध भी खो बैठता है, धन की हानि होती है और काम, क्रोध की वृद्धि होती हैं, पागलपन प्रगट होता है, आरोग्य का नाश होता है। शराबी व्यक्ति माता - पत्नी, स्वस्त्री- परस्त्री आदि का विवेक भूल जाता है, अविचार, अनाचार और व्यभिचार का प्रादुर्भाव होता है, आयुष्य क्षीण होता है, विवेक, संयम, ज्ञान, सत्य, शौच, दया आदि गुणों का नाश होता है, फलतः जीवन नष्ट होता है । अत: त्याग करना ही श्रेयस्कर है। 7 आजकल 'फूट बियर' के नाम से काजू, बदाम, द्राक्ष आदि की बीयर ( नशीला पेय पदार्थ) का अतिशय प्रचार हो रहा है एवं नवयुवानों एवं स्कूल-कालेज में अध्ययनरत बच्चो में यह तो शाकाहारी है। फूट की है, - ऐसा भ्रामक प्रचार कर यह अभक्ष्य फूट बीयर दी जा रही है जबकि वास्तव में फूट बियर भी एक तरह की मदिरा ही है अतः व्रती / जैन / शाकाहारी लोगों के लिए त्याज्य ही है।
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अ. रा. पृ. 4/2540; आवश्यक बृहद्वृत्ति 6/35; उपासक दशांग -1/46 योगशास्त्र - 2/3
सूक्तमुक्तावली - 57
अ. रा. पृ. 4/2540; तत्त्वार्थ सूत्र 7/26; आव. वृ. 6/36
अ. रा. पृ. 2/927; सर्वार्थसिद्धि 7/21 पृ. 280
अ. रा. पृ. 2/927; कार्तिकेय अनुप्रेक्षा टीका-358-359; रत्नकरंडक
श्रावकाचार 84
अ. रा. पृ. 2/928
अ. रा. पृ. 2/928; धर्मसंग्रह - 32, 33, 34 अ. रा. पृ. 2/928; योगशास्त्र- 3/8 से 17
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