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________________ धान्य - [376]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन व्यापार (वृत्ति, आजीविका) का विरोध न हो, उस प्रकार से स्वयं दारिद्रय और दुर्गति को प्राप्त होता हैं । दिन में भी शंकायुक्त (भयभीत) के देश, कुल, वंशानुसार स्वयं की इच्छापूर्वक त्यागभावना से सीमित/ रहता है, स्वयं को पाप कर्म से लोपायमान करता हैं, निंदनीय और संक्षेप करना इच्छापरिमाण व्रत या स्थूल परिग्रहपरिमाण व्रत कहलाता हीन कार्य करता है और अंत में महारंभ, महापरिग्रह, मांसाहार/अभक्ष्याहार) निंदनीयाहार और पञ्चेन्द्रियवध/जीवहिंसा के कारण जीव नरकायु उपार्जित नौ प्रकार का परिग्रहा : कर नरक गति में जाता हैं। (1) धन - गणिम-सोपारी आदि, धरिम-गुड आदि, उपदेशमाला में कहा है कि, "अपरिमित परिग्रह अनंत मेय (मेज्ज) - घी, तेल आदि, परिच्छेद्य तृष्णा का कारण हैं। वह बहुत दोषयुक्त है तथा नरकगति का मार्ग - रत्न, वस्त्र आदि। हैं।85 भक्तपरिज्ञा में भी कहा है कि, "जीव परिग्रह के निमित्त हिंसा चावल, जौ, गेहूँ आदि अनाज, दाल, तिल करता हैं झूठ बोलता है, चोरी करता है और अत्याधिक मूर्छा करता आदि। हैं।" - इस प्रकार परिग्रह पाँचो पापों की जड हैं। हेमचंद्राचार्यने (3) क्षेत्र - खेती-बाडी योग्य जमीन। भी कहा है कि, “परिग्रह के कारण अनुदित राग-द्वेष भी उदय (4) वास्तु - रहने योग्य मकान, कुटीर, प्रासाद आदि। में आते हैं। परिग्रह के प्रलोभन से मुनि का चित्त भी चलायमान (5) सम्य चांदी, बिना घडा हुआ सुवर्ण । होता हैं। जीवहिंसादि आरंभ जन्म-मरण के मूल हैं और उनआरम्भों (6) सुवर्ण - सुवर्ण, स्वर्ण के आभूषण का कारण परिग्रह हैं। 7 अतः इन दोषों से मुक्त होने हेतु श्रावक (7) द्विपद - दास-दासी, नौकर आदि। को 'इच्छा परिमाण व्रत' अंगीकार करना चाहिए। (8) चतुष्पद - गाय, भैंस, अश्व आदि। स्थूल परिग्रह परिमाण व्रत के पाँच अतिचारण :(9) कुप्य - कांसा, तांबा, लोहा, पीतल, आदि धातु पूर्व प्रकार से स्थूल परिग्रह परिमाण व्रत के भी पाँच प्रकार के बर्तनादि एवं मिट्टी के बर्तन तथा हैं जो निम्नलिखित हैंगृहोपयोगी समस्त साधन-सामग्री। इनका एक देश से अर्थात् आंशिक त्याग करना अर्थात् (1) क्षेत्र-वास्तु प्रमाणातिक्रम - जो जमीन खेती-बाडी के आवश्यकता से अधिक के त्यागरुप प्रमाण का नियमन करना, श्रावक लायक हो वह क्षेत्र और रहने योग्य हो वह वास्तु (मकानादि); का 'इच्छापरिमाण व्रत' हैं। इन दोनों का प्रमाण निश्चित करने के लिए बाद लोभ में लाभ : आकर उनकी मर्यादा का अतिक्रमण करना - "क्षेत्र-वास्तु गृहस्थ के घर में स्वल्प द्रव्य होने पर भी सैंकडो-हजारों प्रमाणातिक्रम' हैं। रुपयों की इच्छा होती हैं। परंतु मनुष्य को उसमें लुब्ध नहीं होना (2) हिरण्यसुवर्ण प्रमाणातिक्रम - गढा (आभूषण बनाया) हुआ चाहिए क्योंकि इच्छा आकाश समान अनंत हैं। अनंत इच्छा के सामने या बिना गढा हुआ जो चाँदी या सोना (चाँदी की पाट या यदि सोने या चांदी के पर्वत भी उसके पास में हो तो भी छोटे सोने का बिस्कीट) - इन दोनों का व्रत लेते समय जो प्रमाण पडते हैं। इसलीए परिग्रह या (उसकी) इच्छा का परिमाण (संक्षेप) निश्चित किया हो, उसका उल्लंघन करना - 'हिरण्यसुवर्ण करने में महान लाभ हैं। प्रमाणातिक्रम' हैं। इस व्रत के पालन करने से असत् आरम्भ (निंदनीय व्यापार, धन-धान्य प्रमाणातिक्रम - गाय भैंस आदि पशुरुप धन हिंसादि) से निवृत्त और असुन्दर आरम्भ की प्रवृत्ति (हीन व्यापार) और गेहूँ, बाजरी, मक्का आदि धान्य-इनके स्वीकृतं प्रमाण का त्याग होता हैं। इससे अल्पइच्छा, अल्प परिग्रह और अल्प का उल्लंघन करना 'धन-धान्य प्रमाणातिक्रम' हैं। आरंभ होने से सुख बढता है और धर्म की संसिद्धि (सम्यग् आराधना) (4) दासी-दास प्रमाणातिक्रम - नौकर, चाकर आदि कर्मचारी होती हैं। इस व्रत के पालन से जीव को संतोष, सुख, लक्ष्मी, संबंधी प्रमाण का अतिक्रमण करना, 'दासी - दास प्रमाणातिक्रम' स्थैर्य (स्थिरता), लोक-प्रशंसा एवं परलोक में देव-मनुष्य की समृद्धि और परंपरा से मोक्ष प्राप्त होता हैं। योगशास्त्र में भी कहा है कि, "संतोष जिसका भूषण बन जाता हैं, समृद्धि उसी के पास रहती 77. अ.रा.पृ. 2/557; धर्मसंग्रह-2/29; उपासक दशांग-1 हैं, उसी के पीछे कामधेनु चली आती है और देवता दास की तरह 78. अ.रा.पृ. 2/579 79. अ.रा.पृ. 2/278 उसकी आज्ञा मानते हैं 182 80. वही, पञ्चाशक-1/17, आवश्यक चूणि-अ.6 भगवती आराधना में 1. खेत (क्षेत्र) 2. मकान (वास्तु) 81. वही, धर्मसंग्रह 2 अधिकार 3. धन 4. धान्य 5. वस्त्र 6. भाण्ड (बर्तन) 7. दास-दासी (द्विपद) योगशास्त्र-2/115 8. पशुयान 9. शय्या और 10. आसन - ये दस प्रकार के परिग्रह 83. भगवती आराधना-19 बताये हैं।83 अ.रा.पृ. 2/578; धर्मसंग्रह-अधिकार-2 उपदेशमाला -243 हानि : 86. भक्त परिज्ञा - 132 इस व्रत को ग्रहण नहीं करने से जीव महारम्भी, महापरिग्रही योगशास्त्र - 2/109-110 होने के कारण विराधना से उपार्जित पापफल के कारण दःख, दौर्भाग्य, 88. अ.रा.पृ. 21578; आवश्यक बृहद्धत्ति-छठा अध्याय; आवश्यक चूर्णि छठा अध्ययन; तत्त्वार्थ सूत्र-7/24; उपदेशमाला-244 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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