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________________ आयुष्य [220]... चतुर्थ परिच्छेद अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन होते हैं - हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुष जघन्य और अधिक से अधिक स्थिति उत्कृष्ट कहलाती है। एक वेद एवं नपुंसक वेद। स्थिति अन्तर्मुहूर्त की भी होती है। कर्मों की प्रबलता के अनुसार मिथ्यात्वादि बन्ध हेतुओं के निमित्त से जीव द्वारा ग्रहण उनके स्थिति-काल में अन्तर रहता है। भिन्न-भिन्न कर्मों की स्थितियाँ किये जाने पर जब वे कर्म पुद्गल कर्म रुपत्व को प्राप्त होते हैं, इस प्रकार हैंउस समय इन गृहीत कार्मण पुद्गलों में चार अंशो का निर्माण होता कर्म जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थिति है, वे बन्ध के चार प्रकार कहलाते हैं। वे नाम निम्नानुसार हैं- ___1. ज्ञानावरणीय अन्तरमुहूर्त 30 कोटकोटि सागरोपम 1. प्रकृति बन्ध, 2. प्रदेश बन्ध, 3. स्थिति बन्ध, एवं 2. दर्शनावरणीय अन्तरमुहूर्त 30 कोटकोटि सागरोपम 4. अनुभाग बन्ध ।98 3. वेदनीय अन्तरमुहूर्त 30 कोटकोटि सागरोपम 1. प्रकृतिबन्ध - बन्धन के स्वभाव का निर्धारण प्रकृति बन्ध करता मोहनीय अन्तरमुहूर्त 70 कोटकोटि सागरोपम है। यह, यह निश्चय करता है कि कर्मवर्गणा के पुद्गल आत्मा की दर्शन मोहनीय अन्तरमुहूर्त 70 कोटकोटि सागरोपम ज्ञान, दर्शन आदि किस शक्ति को आवृत करेंगे। चारित्र मोहनीय अन्तरमुहूर्त 40 कोटकोटि सागरोपम 2. प्रदेश बन्ध - यह कर्मपरमाणुओं की आत्मा के साथ संयोजित अन्तरमुहूर्त 33 कोटकोटि सागरोपम होने वाली मात्रा का निर्धारण करता है। अतः यह मात्रात्मक होता है। नाम 8 मुहूर्त 20 कोटकोटि सागरोपम 3. स्थितिबन्ध - कर्मपरमाणु कितने समय तक आत्मा से संयोजित 7. गौत्र 8 मुहूर्त 20 कोटकोटि सागरोपम रहेंगे और कब निर्जरित होंगे, इस काल-मर्यादा का निश्चय स्थिति- 8. अन्तराय अन्तरमुहूर्त 30 कोटकोटि सागरोपम बन्ध करता है। अतः यह बन्धन की समय-मर्यादा का सूचक हैं। 2. उदय - कर्म की स्वफल प्रदान करने की अवस्था का नाम 4. अनुभाग(व)बन्ध - कर्मों के बन्धन और विपाक की तीव्रता उदय हैं। उदय में आनेवाले कर्म पुद्गल अपनी प्रकृति के अनुसार एवं मन्दता का निश्चय करना, यह अनुभाग बन्ध का कार्य है। दूसरे शब्दों में यह बन्धन की तीव्रता या गहनता का सूचक है। फल देकर नष्ट हो जाते हैं। कर्म-पुद्गल का नाश/क्षय अथवा निर्जरा उपरोक्त चार प्रकार के बन्धनों में प्रकृति बन्ध एवं प्रदेश कहलाता हैं। बन्ध का सम्बन्ध मुख्यतया योग अर्थात् कायिक, वाचिक एवं मानसिक 3. उदीरणा - नियत समय से पूर्व कर्म का उदय में आना उदीरणा क्रियाओं से हैं, जबकि बन्धन की तीव्रता (अनुभाग) एवं समयावधि कहलाता है। जैन कर्मवाद कर्म की एकान्त नियति में विश्वास नहीं (स्थिति) का निश्चय कर्म के पीछे रही हुई कषाय-वृत्ति और मिथ्यात्व करता। जिस प्रकार प्रयत्नपूर्वक नियत काल से पहले फल पकाये पर आधारित होता है। संक्षेप में योग का सम्बन्ध प्रदेश एवं प्रकृति जा सकते हैं उसी प्रकार प्रयत्नपूर्वक नियत समय से पूर्व बद्ध कर्मों बन्ध से है, जबकि कषाय का सम्बन्ध स्थिति एवं अनुभाग बन्ध को भोगा जा सकता हैं। सामान्यत: जिस कर्म का उदय जारी होता है उसके संजातीय कर्म की ही उदीरणा संभव होती हैं। मोदक का दृष्टान्त :- जैसे कोई लड्डु वायु कोई पित्त 4. सत्ता - बद्ध कर्म परमाणु अपनी निर्जरा अर्थात् क्षय होने तक या कोई कफ का नाश करें वैसे ज्ञानावरण आत्मा के ज्ञानगुण का आत्मा से सम्बद्ध रहते हैं। इसी अवस्था का नाम सत्ता है। इस घात करता है, दर्शनावरण से आत्मा के दर्शनगुण का घात होता है, अवस्था में कर्म अपना फल प्रदान न करते हुए विद्यमान रहते हैं। मोहनीय सुख-आत्मसुख-परमसुख-शाश्वतसुख के लिये घातक है, बन्धन, सत्ता, उदय और उदीरणा में कितनी कर्म-प्रकृतियाँ अन्तराय से वीर्य अर्थात् शक्ति का घात होता है, वेदनीय अनुकूल (उत्तरप्रकृतियाँ) होती हैं, इसका भी जैन कर्मशास्त्रों में विचार किया एवं प्रतिकूल संवेदन अर्थात् सुख-दुःख का कारण है, आयु से आत्मा गया है। बन्धन में कर्म-प्रकृतियों की संख्या एक सौ बीस, उदय को नारकादि विविध भवों की प्राप्ति होती हैं, नाम के कारण जीव में एक सौ बाईस, उदीरणा में भी एक सौ बाईस तथा सत्ता में एक को विविध गति, जाति, शरीर आदि प्राप्त होते हैं और गोत्र प्राणियों सौ अठावन मानी गई हैं। नीचे की तालिका में इन चारों अवस्थाओं के उच्चत्व-नीचत्व का कारण हैं। इसे प्रकृति कहते हैं। में रहनेवाली उत्तरप्रकृतियों की संख्या दी जाती हैं।.00 : जैसे कोई लड्डु 100 ग्राम, कोई 500 ग्राम, कोई 1 किलो बन्ध उदय उदीरणा सत्ता का होता है वैसे किसी कर्म के दलिक कम किसी कर्म के ज्यादा 1. ज्ञानावरणीय कर्म 5555 होते हैं, इसे प्रदेश कहते हैं। 2. दर्शनावरणीय कर्म 9 जैसे कोई लड्डु एक दिन, कोई एक सप्ताह, कोई एक मास 3. वेदनीय कर्म 2 2 2 2 तक रहें वैसे कोई कर्म 20/30/70 कोडाकोडि सागरोपम काल तक 4. मोहनीय कर्म ____ 26 28 28 28 रहें - इसे स्थिति कहते हैं। 5. आयु कर्म स्निग्ध-रुक्ष-मधुर-कटुकादि रस में से किसी मोदक में एक 6. नाम कर्म 67 67 67 100 गुण हो, कोई द्विगुण कोई त्रिगुण हो वैसे किसी कर्म में एकस्थानीय 7. गोत्र कर्म 2 2 2 2 किसी में द्विस्थानीय/त्रिस्थानीय या चतुःस्थानीय रस होता है, इसे 8. अन्तराय कर्म 5555 अनुभाव/रस कहते हैं। योग 120 122 122 158 कर्म का स्थितिकाल: 98. अ.रा.पृ. 3/258 1. बंध - कर्म का जब बन्ध होता है, तब से लगाकर फल देकर 99. अ.रा.पृ. 3/278 से 283 दूर होने तक के समय को स्थितिकाल कहते हैं। कम से कम स्थिति 100. अ.रा.भा. 3 कम्मशब्द, कर्मग्रंथ-2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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