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11के.
अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन
प्रथम परिच्छेद... [5] विहार करते हुए वि.सं. 1920 में राजगढ में पधारे थे तब वहाँ यति सूरीश्वरजी के सदुपदेश से खीमेल (राजस्थान) निवासी किशोरमलजी मानविजय ने उनको अपने गुरु की खाली गादी पर श्रीपूज्य बनकर वालचंदजी खीमावत परिवार के सहयोग से श्री संघ जावरा द्वारा बैठने को कहा, तब आपने 'मुझे तो क्रियोद्धार करना है" -ऐसा क्रियोद्धारस्थली श्री राजेन्द्रसूरि वाटिका-जावरा(म.प्र.) में एक कहकर श्रीपूज्य की गादी पर बैठने से मना कर दिया था। सुरम्य गुरुमंदिर का निर्माण किया गया हैं। क्रियोद्धार का अभिग्रह :
क्रियोद्धार प्रत्रिका :वि.सं. 1920 में ही पं. रत्नविजयजी अन्य यतियों के साथ
आचार्यश्री द्वारा उपर्युक्त क्रियोद्धार कार्य जिस शुभ मूहुर्त विहार करते हुए चैतमास में राणकपुर पधारे तब भगवान महावीर
में किया गया था तत्संबंधी निम्नाङ्कित पत्रिका उपलब्ध हैं
"स्वस्ति श्री तीर्थनायकं जिनवरेन्द्र श्रीवर्धमानं प्रणिप्रत्य, के 2389 वें जन्म कल्याणक के उपलक्ष में रत्नविजयजी ने अट्ठम
लिख्यते श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर-क्रियोद्धार पत्रिका । श्री (तीन उपवास) तप करके राणकपुर में परमात्मा आदिनाथ की
विक्रमादित्य राज्यातीते सं. 1925 वर्षे अषाढकृष्णौ 10 (दशमी) साक्षी से पांच वर्षों में क्रियोद्धार करने का अभिग्रह लिया था ।
शनौ (सोमे) रेवति नक्षत्रे शोभनयोगे मिथुनलग्ने क्रियोद्धारसमयं वहीं पारणा के दिन प्रात:काल में मुनि रत्नविजयजी मंदिर से दर्शन
शुभम् 1 ता. 15-6-1868 कर बाहर जिनालय के सोपान उतर रहे थे तब किसी अबोध बालिका
तस्य लग्नमिदम् - ने आकर कहा- "नमो आयरियाणं' मालछाब तेला छपल हो गया
4 शुं. आप पालणा करो, बाछठ मीनों में करना" ('नमो आयरियाणं' महाराज साहब! तेला (अट्ठम तप) सफल हो गया। आप पारणा करो। (क्रियोद्धार)
राहY 3 सू.बु. बासठ महीनों में (के बाद) करना" -ऐसा कहकर वह बालिका दौडकर मंदिर में उद्दश्य हो गई। इस प्रकार उन्हें दिव्य शक्ति के द्वारा क्रियोद्धार करने का संकेत भी मिला 16 - इसके बाद वि.सं. 1922 में जालोर( राजस्थान) चातुर्मास में भी आपको क्रियोद्धार करने की तीव्र भावना हुई । यति महेन्द्र विजयजी, धनविजयजी आदिने भी क्रियोद्धार करने में अपनी सहमति
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10 बताई। वि.सं. 1923 में भी जब आप धाणेराव से आहोर पधारे थे
क्रियोद्धारक के तत्काल बाद श्री धनविजयजी एवं श्री तब भी आपने आहोर में एक महिना तक अभिग्रह धारण करके
प्रमोदरुचिजी आपके पास उपसंपद् दीक्षा ग्रहण करके आपके शिष्य शुद्ध अन्न-पानी ही उपयोग में लिये। इतना ही नहीं अपितु राजेन्द्रसूरि
बन गये एवं प्रथम श्रावक-श्राविका के रुप में जावरा निवासी छोटमलजी रास में तो स्पष्ट उल्लेख हैं कि, श्रीपूज्य पद एवं आचार्य पद ग्रहण
जुहारमलजी पारख एवं उनकी श्राविकाने गुरुदेवश्री से श्रावक व्रत करने के पश्चात् आपने अपने गुरुश्री प्रमोद सूरिजी48 से भी क्रियोद्धार
अंगीकार किये। (उनके वंशज आज भी इन्दौर, रतलाम, आदि जगह हेतु विचार विमर्श करके आज्ञा भी प्राप्त की थी।
हैं)। ___ अत: उत्कृष्ट तप-त्यागमय शुद्ध साधु जीवन का आचरण
क्रियोद्धार के साथ ही आपने प्राचीन त्रिस्तुतिक परम्परा एवं वीरवाणी के प्रचार के अपने एक मात्र ध्येय की पूर्ति हेतु पूर्वोक्तानुसार का भी पुनरुद्धार किया एवं अपने गच्छ का नाम श्री सौधर्म धरणेन्द्रसूरि आदि के द्वारा नव कलमनामा अनुमत होने के बाद आचार्य
बृहत्तपोगच्छ रखा। अत: यहाँ प्रसंगोपात्त त्रिस्तुतिक सिद्धान्त का श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजीने वि.सं. 1925 में आषाढ वदि दशमी
भी परिचय दिया जा रहा हैंशनिवार/सोमवार, रेवती नक्षत्र, मीन राशि,शोभन (शुभ) योग, मिथुन लग्न में तदनुसार दिनांक 15-6-1868 में क्रियोद्धार करके ।
44.
श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 27 शुद्ध साधुजीवन अंगीकारकिया । उसी समय छडी, चामर, पालखी
45. धरती के फूल पृ. 68, 70 आदि समस्त परिग्रह श्री ऋषभदेव भगवान के जिनालय में श्री 46. धरती के फूल पृ. 71 संघ-जावरा के अर्पित किया, जिसका ताडपत्र पर उत्कीर्ण लेख
47. धरती के फूल पृ. 33 से 38
48. आचार्य श्रीमद् विजय जयंतसेन सूरीश्वरजी के अनुसार उनके गुरु श्री श्री सुपार्श्वनाथ के मंदिर के गर्भगृह के द्वार पर लगा हुआ है।
प्रमोदसूरिजी एवं उनके बड़े गुरुभ्राता श्री हेमविजयजी के तप-त्याग क्रियोद्धार के समय आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र
एवं साधु जीवन का मुनि रत्नविजयजी पर अमीट प्रभाव था। क्योंकि सूरीश्वरजीने अट्ठाई (आठ उपवास) तप सहित जावरा शहर के बाहर
उनका जीवन तो साधु के समान ही था। वे अपनी पिछली उम्र में (खाचरोद की ओर) नदी के तटपरवटवृक्ष के नीचे नाण (चतुर्मुख
नित्य आयंबिल तप करते थे परंतु धरणेन्द्रसूरि एवं उनके साथवाले यतियों
का जीवन शिथिलाचारी था। जिनेश्वरप्रतिमा) के समक्ष केश लोंच किया, पञ्च महाव्रत उच्चारण ____49. श्री राजेन्द्रसूरि का रास पृ. 47; श्री राजेन्द्रगुणमञ्जरी, पृ. 35, 36; जीवनप्रभा किये एवं शुद्ध साधु जीवन अंगीकार कर सुधर्मा स्वामी की 68वीं
पृ. 19 पाट पर आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी' नाम से प्रख्यात ।
50. धरती के फूल पृ. 126, 127
51. श्री राजेन्द्रसूरि का रास, पृ. 47; अभिधान राजेन्द्र भाग 7, संस्कृत प्रशस्तिहुए । वर्तमान में आपके प्रशिष्यरत्न, राष्ट्रसंत आचार्य श्रीमद्विजय जयंतसेन
1, मुद्रण प्रशस्ति-2
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