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अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनशीलन
षष्ठ परिच्छेद... [417] है। उदाहरणतः, 'जूते से बात करना एक मुहावरा है। इसका प्रयोग में विशेष रुप से 'लोकोक्ति' अलंकार होता है। इस प्रकार प्राय: हम इस प्रकार से कर सकते है: वह अपने नौकरों से जूते से बात सभी लोकोक्तियाँ उसके अन्तर्गत आ जाती है; जैसे 'इहां कोहड करता था या बात करता है या बात करेगा। परन्तु हम यह नहीं बतिया कोउ नाही' 'एक जो होय तो ज्ञान सिखाइए', 'कूप ही में कह सकते कि वह अपने नौकरों से पद-त्राण से वार्ता करता था। यहाँ भांग परी है', 'जिसकी लाठी उसकी भैंस', आदि । किन्तु मुहावरे
लोकोक्तियों तथा मुहावरों-दोनों मे बहुधा लक्षण तथा व्यञ्जना किसी एक अलंकार में सिमित नहीं होते। उनमें अनेक अलंकार का प्रयोग होता है। दोनों में अभिधेयार्थ गौण और लक्ष्यार्थ तथा व्यंग्यार्थ दृष्टिटिगोचर होते हैं, जैसे, उपमा, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, आदि । किन्तु प्रधान होते हैं। मुहावरों के प्रयोग-वाक्यों तथा लोकोक्तियों दोनों मे मुहावरों में अलंकार का पाया जाना अनिवार्य नहीं हैं। चमत्कार, अभिव्यञ्जन-विशिष्टता तथा प्रभाविता होती है। फिर भी
मेरी दृष्टि से ये सब भेदोपभेद सुभाषित या सूक्ति के अन्तर्गत लोकोक्तियों का प्रयोग प्रायः किसी बात के समर्थन, खंडन अथवा समाविष्ट है। और इसी दृष्टि से यहाँ पर सूक्ति-संकलन प्रस्तुत किया पुष्टिकरण के लिए होता है।
गया है। प्रथम शीर्षक में आचारपरक कथाओं को स्थान दिया गया लोकोक्तियों और मुहावरों दोनों में अलंकार होते हैं। लोकोक्तियों है और दूसरे में सूक्तियों को।
श्री गुरु-वन्दनावली)
लोके यो विहरन् सदा स्ववचनैर्वैरं मिथो देहिनां,
दूरीकृत्य सहानुभूतिसचिरां मैत्री समावर्धयत् । मूढांश्वापि हितोपदेशवचसा धर्मात्मन् संव्यधाद् , देशोपदवनाशकं तमजितं राजेन्द्रसूरिंनुमः॥
वाणी यस्य सुधासमाऽतिमधुरा दृष्टिर्महामञ्जुला, संव्रज्या सुखशान्तिदा खलु सदाऽन्यायादिदोषापहा । बुद्धिलॊकसुखानुचिन्तनपरा कल्याणकत्री नृणां, लोके सुप्रथिताऽस्ति तं गुस्वरं राजेन्द्रसूरिं नुमः ॥
यो गङाजलनिर्मलान् गुणगणान्संधारयन् वणिराइ,
यं यं देशमलञ्चकार गमनैस्तं त्वपावीन्मुदा । सच्छास्त्राऽमृतवाक्यवर्णणवशाद मेघव्रतं योऽधरत, तं सज्ज्ञानसुधानिधिं कृतिनुतं राजेन्द्रसूरिं नुमः ॥
तेजस्वी तपसा प्रदीप्तवदनः सौम्योऽतिवक्ताऽचलः, शास्त्रार्थेषु परान् विजित्य विविधैर्मानैस्तया युक्तिभिः । शिष्यांस्तानकरोत्स्वधर्मनिरतान् यो ज्ञानसिन्धुं प्रभु
स्तं सूरिप्रवरं प्रशान्तवपुषं राजेन्द्रसूरिं नुमः ॥
लोकान्मन्दमतीन्स्वधर्मविमुखप्रायान् बहून् वीक्ष्य यो, जैनाचार्यनिबद्धसर्वानिगमानालोड्य बुद्धया चिरम् । मान् बोधयितुं सुखेन विशदान् धर्मान्महामागधीकोशं संव्यतनोत्तमच्छमनसा राजेन्द्रसूरिं नुमः ॥
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