SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 461
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [410]... पञ्चम परिच्छेद 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. अभिधान राजेन्द्र कोश की आचारपरक दार्शनिक शब्दावली का अनुशीलन अकिञ्चनता और आसक्ति-रहितता से बढकर कोई शरणदाता दीप नहीं है 150 मज्झिमनिकाय में बुद्ध को अकिञ्चन, अल्पाहारी, यथाप्राप्त वस्त्रों में संतुष्ट, संतोषी और एकान्तवासी बताया है |51 धम्मपद में कहा है-'सन्तोष ही परम धन है 52 10. ब्रह्मचर्य :- बौद्ध परम्परा में भी श्रमण साधक ( भिक्षु) के लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य और गृहस्थ साधक के लिये स्वपत्नी संतोष व्रत की मर्यादाएँ स्थापित की गई हैं। 53 विनयपिटक में बौद्ध भिक्षु के लिए स्त्री का स्पर्श वर्जित माना गया है | 54 इतना ही नहीं, भिक्षु का एकान्त में भिक्षुणी के साथ बैठना - अपराध माना गया है।55 बुद्धने कहा है- जो पुण्य-पाप का परित्याग कर ब्रह्मचारी बनकर ज्ञानलोक में विचरण करता है, वही भिक्षु हैं ।" बुद्ध ने स्त्री के मेल (मिलन) को दुराचार कहा है ।7 बुद्ध ने दुःख के मूल को नष्ट करने के लिए ब्रह्मचर्य को आवश्यक माना है। 58 धम्मपद में शील की सुगंध को सर्वश्रेष्ठ सुगंध कहा है 159 बौद्ध परम्परा में भावना : जैन परम्परा की तरह बौद्ध परम्परा में भी अनित्यादि बारह एवं मैत्र्यादि चारों भावनाओं का वर्णन प्राप्त होता है और अधिक बाँध लेता है" । वज्जालग्गं में कहा है - अपने प्रति किये हुए अपराधों को भी क्षमा करना केवल सज्जन ही जानता है 12 मार्दव :- बौद्ध धर्म में अहंकार की निन्दा की गई है। बौद्ध भिक्षु के लिए यौवनमद, आरोग्य मद और जीवन मद पतन का कारण माना गया है। 33 सुत्तनिपात में जाति, धन और गोत्र का गर्व अवनति का कारण बताया है । 34 आर्जव:- बुद्धने ऋजुता को कुशल धर्म कहा है। उनकी दृष्टि में सरलता सुख, सुगति, स्वर्ग और शैक्ष भिक्षु के लाभ का कारण है। 35 शौच :- जैनधर्म के भावशौच अर्थात् मानसिक शौच की तरह बौद्धधर्म में भी दूषित चित्तवृत्तियों के परित्याग का वर्णन है। 36 सत्य :- • बौद्ध धर्म में भी भिक्षु के लिए कृत-कारितअनुमोदन तीनों प्रकार से असत्य भाषण ”, मिथ्या भाषण, चुगली, कठोर वचन, अहितकर वचन, कपटपूर्ण वचन, अपमानजनक वचन त्याज्य है। भिक्षु को हमेशा शुद्ध, उचित, अर्थपूर्ण, तर्क पूर्ण और मूल्यवान् वचन बोलना चाहिए। 38 संयम :- बौद्ध परम्परा में भी इन्द्रियों पर संयम सन्तुष्टता तथा भिक्षु जीवन में अनुशासन में संयमपूर्वक रहना आवश्यक माना गया है। 39 बुद्धने शरीर वाणी और मन के समय को उत्तम और दुःखों से छूटने का कारण माना है। 40 संयुक्त निकाय में मुनि को कछुवे की तरह रहने के लिए कहा " तथा मज्झिमनिकाय में चित्तवृत्तियों के निरोध का कथन किया गया है। 42 तप :- बौद्ध वाड्मय में तप की गरिमा के विषय में चिन्तन करते हुए कहा है- 'तपो च ब्रह्मचरियं च सिनानमनोदकम् । '43 तप और ब्रह्मचर्य बिना पानी का स्नान है। इसी तरह बुद्धने और भी कहा है- 'सद्धाबीजं तपो वुट्ठि - श्रद्धा मेरा बीज है, तप मेरी वर्षा है। इस प्रकार अनेक सूक्तियों में तप की गरिमा की स्पष्ट झलक परिलक्षित होती है। प्रसिद्ध दर्शन समीक्षक डॉ. सागरमलजी जैन के अनुसार जैनों की तरह ही बौद्ध धर्म में भी बौद्ध भिक्षुओं के लिए अतिभोजन वर्जित है, साथ ही एक समय भोजन करने का आदेश है। 45 बौद्ध भिक्षुओं को भी रसासक्ति का निषेध है, साथ ही विभिन्न आसन और भिक्षाचर्या स्वीकृत है लेकिन जैन साधना जितनी कठिन नहीं है। इतना ही नहीं, अभ्यन्तर तप में भी प्रायञ्चित की तरह प्रवारणा, विनय, वैयावृत्य (सेवा), वाचना, पृच्छना, परावर्तना और चिन्तन रुप स्वाध्याय, व्युत्सर्ग (कार्योत्सर्ग) और ध्यान ये छहों प्रकार बौद्ध परम्परा में भी समान रूप से मान्य हैं। 46 त्याग:- बौद्ध परम्परा में भी तृष्णा को दुःख माना गया है। 47 बुद्ध सबसे दृढ बन्धन सोना, चांदी, पुत्र और स्त्री में रही आसक्ति को मानते है। 48 बुद्ध की दृष्टि में परिग्रह या आसक्ति का मूल तृष्णा है । 49 अतः परिग्रह और तृष्णा त्याज्य हैं। अकिञ्चनता:- बौद्ध ग्रंथ चुलनिद्देशपालि में कहा है Jain Education International 31. वही, 1/1/35 32. वज्जालग्गं 44 33. 34 35. 36. 37 38. 39. 40. 41. 42. अंगुत्तरनिकाय, निकाय 3/39 सुत्तनिपात 1/6/14 अंगुत्तरनिकाय, निकाय 2/15-16 धम्मपद 9/10 221 222-223; सुत्तनिपात 7/1, 6 / 14; संयुत्तनिकाय 3/33, 40/13/1 सुत्तनिपात 26/22 वही, 53/7, 9, मज्झिमनिकाय, अभयराज सुत्त धम्मपद 375; दीर्घनिकाय 1/2/2, विशुद्धिमग्गो 1 / 101 धम्मपद 361 43. 44 45. 46. 47. संयुत्तनिकाय 1/2/27 मज्झिमनिकाय, 2/35/4 संयुत्तनिकाय 1/1/58 सुत्तनिपात 1/4/2 इतिवृत्तक- 2/1/1 जैन-बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. 111 संयुत्तनिकाय 2/12/66, 1/1/65 48. धम्मपद 345 49. महानिद्देसपालि 1/11/107 50. चुलनिद्देशपालि 2/10/63 51. मज्झिमनिकाय, 77 52. धम्मपद 204 सुत्तनिपात 26/11 53 54. विनयपिटक, पातिमोक्ख, संघादिसेसधम्म 2 55. विनयपिटक, पातिमोक्ख, पाचितियधम्म 30 56. धम्मपद 361 57. वही, 18 / 8 58. 59. धम्मपद 7 शाश्वत धर्म, ब्रह्मचर्य विशेषांक, पृ.83 A For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003219
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh ki Shabdawali ka Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshitkalashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2006
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy